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मदनपराजय
जिनराजको आज्ञा पाते ही संज्वलन राग-द्वेषको जिनराज के पास ले आया ।
वहाँ आकर राग-द्वेषने देखा कि जिनराज सिंहासनपर विराजमान हैं, उनके सिरपर तीन शुभ्र छत्र लटक रहे हैं, चौंसठ चामर दुर रहे हैं, भामण्डल के प्रभा-पु जसे वह दमक रहे हैं, अनन्त चतुष्टयसे सुशोभित हैं और कल्याणातिशोंसे सुन्दर हैं। जिनराजका इस प्रकारका वैभव देखकर राग-द्वेष एकदम चकित हो गये । उन्होंने जिनराजको प्रणाम किया और उनके पास बैठ गये ।
तदुपरान्त वे जिनराजसे कहने लगे- स्वामिन् हमारे स्वामीने जो मावेश दिया है उसे सुन लीजिए-
उनका आदेश है कि श्राप जो त्रिभुवनके सारभूत अमूल्य रत्न हमारे स्वामीके ले आये हैं उन्हें वापिस कर दें। दूसरे, प्राप जो सिद्धि - अंगना के साथ विवाह कर रहे हैं इसमें त्रिलोकीनाथ कामकी प्रज्ञा प्रापको नहीं मिली है। तीसरे, यदि आप सुखी रहना चाहते हो तो कामकी सेवा करो और सुखसे रहो। क्योंकि कामदेव के प्रसन्न रहनेपर संसार में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं रहती है। कहा भी है:
"यदि कामदेव प्रसन्न हैं तो सहज ही कपूर, कुंकुम, अगरु, कस्तूरी और हरिचन्दन आदि अनेक वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं । और अनेक प्रकारके सुख भौ ।” तथा च
"कामके प्रसन्न होनेपर धवल छत्र, मनोरम अश्व और मदोन्मत्त हाथो - सब कुछ प्राप्त रहते हैं ।"
राग-द्वेष कहने लगे---इसलिए जिनराज, आपको उस कामदेवकी सेवा अवश्य करनी चाहिए, जिसकी सुरासुर गण, चन्द्र, सूर्य, यक्ष गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, विद्याधर पोर किन्नर सेवा किया करते हैं, जो पाताल लोक में शेषनागके द्वारा पूजित होता है; स्वर्ग में देव