________________
द्वितीय परिच्छेद दूतेन सबकं सैन्यं निर्बलं ज्ञायते ध्वम् । सैन्यसंख्या च दुलेन दूतात् परबलं प्रभोः ॥२२॥"
* ६ इस घटनाको सुनकर मकरध्वज कहने लगा- मोह, तुमने बिलकुल सच कहा है, बुद्धिके बिना कुछ नहीं हो सकता। लेकिन मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुमने जो सैन्य-संमेलन किया है, उसे यहां लाये हो या नहीं ?
उत्तरमें मोक्ष कहने लगा-क्षेत्र, मैंने सत्य संमेलन करके उससे यह कह दिया है कि मैं स्वामीकी आजा लेकर सभी पाता हूँ। प्राप तबतक यहीं ठहरिए ।' इस प्रकार कहकर मैं आपके पास चला पाया हूँ । अब आप जो भाज्ञा दें. मैं उसका पालन करने के लिए प्रस्तुत हूँ ।
मोहकी बात सुनकर मकरध्वजको बड़ा संतोष हुआ । उसने मोहको अपनी छातोसे लगा लिया और कहने लगा मोह, तुम्हीं तो हमारे मन्त्री हो। इस समस्त राज्यको तुम्हें हो रक्षा करनी है। इसलिए इस समय मुझसे क्या पूछते हो ? जो तुम्हें उचित मालूम दे, करो । नीतिज्ञोंने कहा भी है:---
__ "जब राज्यपर मंभोर संकट उपस्थित होता है तब मन्त्रियोंकी बुद्धिको परीक्षा होती है. मौर सन्निपात होने पर वैद्योंकी। स्वस्थ अवस्थामें तो सभी कुशल कहलाते हैं।"
मकरध्वजको बात सुनकर मोहने कहा-महाराज, प्राप ठीक कह रहे हैं। फिर भी सेनाके आने के पहले हमें दूत भेजना चाहिए । कहा भी है:---
'पहले दूत भेजना चाहिए और फिर युद्ध करना चाहिए । नोतियास्त्रके पंडित दूतकी इसीलिए प्रशंसा करते हैं।
वस्तुत. दूतसे हो सेनाकी सबलता और निदलताका पता चलता है । और सेनाको संख्याका ज्ञान भी दूतसे ही होता है। इसलिए दूत राजाके लिए बड़ा भारी वल है।"