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प्रथम परिच्छेद
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चाहिए । भला मन्त्रीको छोड़कर अन्य कौन विश्वास पात्र हो
सकता है ? "
मकरध्वज उत्तर में कहने लगा है प्रिये, यह समाचार मोहसे भी छिपा नहीं है । उसे इस रहस्यका पूरा पता है । मैंने उसे हाल ही समस्त सैन्य तैयार करने के लिए भेजा है। पर तुमसे भी मुझे एक बात कहनी है। जब तक मोह समस्त सैन्य तैयार करके वापिस नहीं आता है, तब तक तुम सिद्धि - कन्या के पास जाकर इस प्रकारका यत्न करो जिससे वह जिनराजसे विमुख हो जावे और अपने विवाहोत्सव के अवसरपर मुझे ही अपना जीवन-संगी चुने | मुझे विश्वास है, तुम्हारा उद्योग अवश्यमेव सफल होगा। नीतिविदोंका कहना है :
"लक्ष्मी उद्योगी मनुष्यको ही प्राप्त होती है । यह अकर्मण्यों - का कथन है कुछ भागो की लता है। इसलिए अनुष्को चाहिए कि वह देवको एक ओर रख कर अपनी शक्तिके अनुसार प्रयत्न करे । यत्न करनेपर भी यदि सफलता नहीं मिलती है तो इसमें मनुष्यका कोई अपराध नहीं ।" अथ च
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"जिसके रथ में केवल एक पहिया है और सांपोंसे बंधे हुए सात घोड़ हैं । मार्ग में कोई अवलम्ब नहीं है । सारथी भी एक पैरवाला है । इस प्रकारका सूर्य भी प्रति दिन अपार आकाशके एक छोरसे दूसरे छोर तक आता-जाता है। इसलिए यह निविवाद है कि महात् पुरुष प्रपने बलसे ही कार्य सिद्ध करते हैं, दूसरोंके श्राश्रयसे नहीं ।"
प्रिये, तुमने मुझे अपना समझकर सहज भावसे मेरी बात पूछी, इसलिए ही मैंने सब कुछ बतला दिया। अब यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम मेरी मनोव्यथा दूर कर मुझे सुखी करो। इसमें ही तुम्हारा पातिव्रत्य निहित है ।