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प्रथम परिच्छेद
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नहि भवति यत्र भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य च भवितव्यता मास्ति ॥३७॥" ततो रतिरुवाच - भो मोह तदधुना कि कर्त्तव्यम् । तत्कथय । अहंचेत् त्वया सह भूयोप्यागमिष्यामि तम्मां दृष्ट्या स कामोऽतिकोपं यास्यति तत्वं गच्छ हे मागमि व्यामि । मोहः प्राह हे वेवि, युक्तमेतन्न भवति । भवतीभिरवश्यमागन्तव्यम् । रतिराह भी भीह, त्वं तत्र मां नोवा किं तावत् प्रथमं भविष्यसि ? स मोहः प्राह
उत्तरादुसरं वाक्यं वदतः सम्प्रजायते । सुषृष्टिगुणसम्पन्नाद् बीजाद्द्बीजमिवापरम् ॥६६॥ एवमुक्त्वा रतिरमण्या सह कामपार्श्वे समागतो मोहः । इति ठक्कुरमा इन्ददेवस्तुत जिन (नाग) देवविरचिते
स्मरपराजये संस्कृतबन्ध
अतावस्थानामप्रथमपरिच्छेदः । १॥
* २० रसिकी इस प्रकार विस्तृत बात सुनकर मोहमल्लने कहा - देखि, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, लेकिन भवितव्यता अन्यथा नहीं हो सकती । कहा भी है :
"जिसकी जैसी भवितव्यता होती है वह होकर रहती है। और वह भी उसी रूप में होती है, अन्यथा नहीं । मनुष्य या तो भवि तव्यता के रास्ते पर खींच लिया जाता है या वह स्वयं हो उस रास्ते से प्रयाण करता है ।
जो भविष्य नहीं है वह कभी नहीं होता और जो भवितव्य होता है वह अनायास भी होकर रहता है । यदि भवितव्यता नहीं है तो हमेलोक रखी हुई वस्तु भी विनस जाती है ।"