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इस प्रकारका भी प्रयत्न किया है कि जिससे मुक्ति स्त्री आपकी हो पत्नी बने। इसके अतिरिक्त मैंने इस तरहकी युक्तिका प्रयोग किया है कि उल्टे जिनराज आपको ही सेवा करेगा। मोहकी बात सुनकर मकरध्वज बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा- भोह, तुमने ठीक कहा है । यह काम तुम्हारे सिवा और कौन कर सकता है ?
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मोह बोला- देव में इस प्रकार प्रशंसाका पात्र नहीं हैं । आपका जो कार्य मुझसे बन पड़ता है, वह सब आपके प्रभावसे । कहा भी है -
मदनपराजय
"छानर वृक्षको शाखा प्रशाखाओंतक ही उछलकर अपना पराक्रम दिखला सकता है । यदि वह समुद्र पार करता है, तो इसमें प्रभुका हो प्रभाव समझना चाहिए, वानरका नहीं ।"
मोह कहता है - स्वामिन् ठीक यही बात मेरे सम्बन्धकी है । तथा
"धूलि यदि सूर्यको ढक देती है तो इसमें धूलि की विशेषता नहीं यह तो वायुका विक्रम है। इसी प्रकार यदि मेंढ़क सपका मुँह चूमता है, यह भी मन्त्रविद्को कुशलता है । और चंतमें कोकिल जो कलगान करती है, वह भी ग्राम्रवृक्षोंके मजरित होनेका परिणाम है । वैसे हो मुझ जैसा मूढ़ जो बात कर रहा है इसमें भी गुरुका माहात्म्य ही काम कर रहा है ।"
अथवा बुद्धिमान् पुरुष क्या नहीं कर सकते ? कहा भी है:"जब मनुष्य सर्प, व्याघ्र, गज और सिंहको भी उपायोंसे वशमें कर लेते हैं तो जागरूक बुद्धिमान् पुरुषोंके लिए जिनदेवको श्राधीन करना क्या कठिन चीज है ?"
और भी कहा है :
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"बरं बुद्धिर्न सा विद्या विद्याया घोगरीयसी । बुद्धिहोना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ॥"
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