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मवनपराजय "क्या स्वर्ग में कुवलय के समान कमनीय नेत्रवाली देवाङ्गनाएं नहीं पों जो इन्द्रने तपस्विनी प्रतिस्याका सतीस्व-भंग किया ? ठीक है, जब हृदयकी तृण-कुटीरमें कामाग्नि दहकने लगती है तो अच्छा विवेकनिष्ठ भी विवेक-बुद्धि खो बैठता है।"
रति मोहसे कहती गयी-पाप भी इस बाससे अनभिज्ञ नहीं हैं कि मुक्ति-रपा जिननायको छोड़कर अन्य किसीका नाम तक नहीं सुनना चाहती। फिर समझमें नहीं आता कि प्राणनाथ दूसरेकी स्त्रीके लिए क्यों इतने लालायित हैं ? सुनिए, परस्त्री-सेवन कितमा भयंकर है:
"नीतिविदोंका कथन है कि परस्त्री प्राणोंका नाश करनेवाली है, घोर विरोधका कारण है और दोनों लोकमें अनुपसेव्य है । इसलिए मनुष्य परदाराकी चाह कभी न करे।" प्रथ च
"परकीया नारी संसार-भ्रमणका कारण है, नरकवारके मागके लिए दीपिका के समान है और शोक एवं कलहका मूल कारण है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह परदाराको बाह कभी न करे ।
जो परदारासे अनुचित सम्बन्ध रखते हैं, उनका सर्वस्वसक छिन जाता है । वे बाँधे जाते हैं, उनके शरीरके अङ्ग छेदे जाते हैं और मरकर वे पोर नरकमें जाते हैं।
जो मूढ़ मनुष्य परकीय स्त्रीको केवल चाह सक करते हैं वे जन्म-जन्मान्तरमें नपुंसक होते हैं, तिर्यञ्च होत हैं और दरिद्र होते हैं।"
२० एवं तस्या वचनमाकर्ण्य मोहमल्लस्ता प्रति[स] प्रपंचमबोचत-हे देवि, युक्तमिदमुक्त भवतीभिः । परं किन्तु यस्य यथा भवितव्यमस्ति तदन्यथा न भवति । उक्तं च यतः
"भवितव्यं यथा येन न तद्भवति चान्यथा । नीयते तेन मार्गेण स्वयं वा तत्र गच्छति ॥३६॥