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मदनपराजय
देवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः।।१४॥" तथा च"रथस्यकं चक्रं भुजगयमिता: सप्त तुरगा
निरालम्बो मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि । रवियत्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः
क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे ॥१५॥"
अन्यच्च, यतस्पया स्वभावेन पृष्टोऽहं तस्मान्ममा कथितम् । सबदि ममात्ति पहरसि तस्वं पतिव्रता भवसि ।
* ७ जब रतिने बड़े अनुनय-विनयके साथ मकरध्वजसे इस प्रकारकी बात पूछो तो उत्तरमें मकरध्वजने कहा-तुम हमसे यह वात क्यों पूछती हो ? ऐसा कौन है जो मेरी यह अवस्था दूर कर सके ?
मकरध्वजकी बात सुनकर रतिने कहा-प्राणनाथ, बतलाइए तो आपको यह हालत क्यों और कैसे हो गयी ?
मकरध्वज कहने लगा-प्रिये, जिस दिन मैंने संज्वलनके द्वारा लायी गयी विज्ञप्ति पढ़ी और सिद्धि कन्याफे रूप एवं लावण्यका मनोहर विवेचन सुना उसी विनसे मेरी यह शोचनीय स्थिति हो गयी है । समझमें नहीं पाता कि अब मैं क्या करूँ ?
रतिने कहा-यदि यह बात है तो अापने व्यर्थ ही शरीरको सुखाया । जब मोह-सरीखे सुभट आपके मन्त्री हैं तो यह रहस्यपूर्ण समाचार प्रापने उन्हें क्यों नहीं बतलाया? नीतिकार ने कहा है
"जो बात माताको नहीं बतलायी जा सकती उसे अपने स्वजन से कह देना चाहिए और मन्त्रीसे तो अवश्य ही कह देना