________________
१४]
मदमपराजप
लगा है और एकदम मीण भी हो गया है। उसे बड़ी चिन्ता हुई और वह अपनी प्रिय सखी प्रीलिसे पूछने लगी-सखि, पसा नहीं, अपने पतिदेवको क्या हो गया है ? देखती नहीं, यह रोज ही चिन्तित और चलचित्त बने रहते हैं।
रतिकी बात सुनकर प्रीतिने कहा-सखि, मालूम नहीं, प्राणनाथको इस प्रकारको अवस्था क्यों हो गयी है ? कदाधित उनके सिर कोई महान् पनि कार्यमा पार हो । कोहो. में शनगी दल प्रवृत्ति में हस्तक्षेप करनेकी कोई जरूरत नहीं मालूम देती। कहा भी है
"जो मनुष्य अप्रयोजनीय कार्यों में अपनो टांग अड़ाता है उसकी ककुद्रुम राजाको तरह दुर्दशा होती है ।"
रतिने प्रीति ने कहा-मखि, सुमने यह ठीक बात नहीं कही। पतिव्रताओंका यह धर्म नहीं है कि वे पतिकी किसी प्रकारको चिन्ता न करें।
उत्तरमें प्रीसिने कहा-सखि, यदि यह बात है सो प्राणनाथसे तुम ही पूछो कि ये इतने चिन्तित और खिन्न मयों बने रहते हैं ?
रतिने सखीकी बात ध्यान में रख ली।
एक बार रातके समय महाराज मकरध्वज शयनागारमें शय्यापर लेटे हुए थे। इतनेमें रति अपनी शङ्का समाहित करवेके लिए मकरध्वजके पास पहुंची। वहाँ जाकर वह मकरध्वजका इस प्रकार आलिङ्गन करने लगी जिस प्रकार पार्वती महादेवका, इन्द्राणी इन्द्रका, गङ्गा समुद्रका, सावित्री ब्रह्माका, लक्ष्मी श्रीकृष्णका, रोहिणी चन्द्रका और पद्मावती नागेन्द्रका आलिङ्गन करती है।
रतिने इस प्रकार प्रालिङ्गन करनेके बाद मकरध्वजसे पूछामहाराज, प्राज-कल न पाप ठीक भोजन करते हैं, न ठीक नींद लेते