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प्रथम परिच्छेद
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सपछत्वा मुनयः प्रोचुः-हे पुत्रि, युक्तमिदमुक्त भवस्या । परन्तु यद्यपि जीवस्य परमश्रावकगुणाः सन्ति, तथाप्यन्तकाले पारशो बुद्धिरुत्पद्यते ताशी गतिर्भवति ।
* १५ मुनिराजको बात सुनकर उसे बड़ा विस्मय हुआ। वह सोचने लगो, मुनिराजका कथन अवश्य हो सत्य है । अयोंकि उस बावड़ी में प्रतिदिन जो मेंढक उछलकर मेरे सामने आता है, वही मेरे पति होने चाहिए। मुनिराज कदापि मिथ्या नहीं कह सकते। इस प्रकार सोचकर वह पुनः मुनिराजसे बोली-'महाराज, मेरे पतिदेव जितेन्द्रिय थे, कृतज्ञ थे, विनीत थे, मन्दकषायी थे, प्रसन्नात्मा बे, सम्यग्दृष्टि थे और महान् पवित्र थे । वे श्रद्धालु थे, भावुक थे, निरन्तर षट्कर्मपरायण थे। व्रत, शोल, तप, दान और जिनपूजामें उद्यप्त रहते थे। मक्खन, मद्य, मांस, मधु, पांच उदम्बरफल, अनन्तकाय, अज्ञात फल, निशि भोजन, कच्चे गोरसमें मिश्रित द्विदलभोजन, पुष्पित चावल और दो आदि दिन के सिद्ध हुए भोजनके न्यागी थे। पांच अणुक्तोंका पालन करते थे। पापसे डरते थे और दयालु थे । इस प्रकार व्रती-तपस्वी भी मेरे पति मर कर मेंढक हुए ! महाराज, श्राप बतलाइए, इसका क्या कारण है ?"
मुनिराज कहने लगे -पुत्रि, तुम ठीक कहती हो! पर बात यह है कि भले ही किसी व्यक्तिमें समस्त श्रावकोचित गुणों का सद्भाव हो, परन्तु मृत्युके समय उसके जिस प्रकारके परिणाम रहते हैं उसी कोटिका गतिबन्ध हुमा करता है।
*१६ अथ साप्रोवाच-भो भगवन्, तन्मे नाथस्यान्त. काले कोहयो भावः समुत्पन्नः ? अथ ते अवन्ति स्म-हे पुत्रि, स जिनदत्तो महाज्वरसंपोडितोऽन्तकाले तदेव वार्त्तन(तया) मृत्वा निजगहाङ्गणवाया बरोऽभूत् । ततः साऽब्रवीत्-हे