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मदनपराजय
तथा चमातंण्डान्वयजन्मना क्षितिभृता चाण्डालसेवा कृता
रामेणा विक्रमेण गहनाः संसेषिताः कन्दराः । भोमायः शशिवंशजेन पवरवैन्यं कृतं रकवत् स्वाऽभाषाप्रतिपालनाय पुरुषः किं कि न चाङ्गी
कृतम् ॥२७॥ एवं सखीचचनमार्य रतिरमणी कामं प्रणम्य निर्ग्रन्थमार्गेण निर्गता । तद्ययायथेन्दुरेखा गगनाद्विनिर्गता
यथा हि गङ्गा हिममबिनोधरास् । कद्धायथेभात करिणी विनिर्गता
रतिस्तथा सा मदनाद्विनिर्गता ॥२८॥ * १८ मकरध्वजके इस प्रकार दारुण वाक्य सुनकर रतिने कहा-नाथ, प्राय ठोक कहते हैं, पर पापको उचित-अनुचितका विवेक नहीं है । कहा भी है :
"रेशम कीड़ोंसे बनता है, सुवर्ण पत्थरसे निकलता है, दूब गोरोमसे पैदा होती है, कमल कीचड़से उत्पन्न होता है । चन्द्रमा समुद्रसे जन्म लेता है, नीला कमल गोबरसे प्रकट होता है, अग्नि काठसे निकलती है, मरिण सापके फणसे उत्पन्न होता है, और गोरो. चन गोपित्तसे प्रकट होता है । इस प्रकार मूल्यवान् पदार्थ अपनीअपनी प्रकट विशेषताओंके कारण मूल्यवान् समझे जाते हैं । जन्मसे कोई मूल्यवान् नहीं बनता।"
रति काम से कहती है. नाथ, ठीक इसी प्रकार अखिल स्त्रीसृष्टि दूषित नहीं कही आ सकती और इसीलिए मुझे भी प्रापको इस कोटिमें नहीं रखना चाहिए। आप ही बतलाइए, मापको छोड़