Book Title: Khamansutta Pakkhiyasutta Khamangasuttani Savchuriyai
Author(s): Purvacharya, Lalitangvijayji
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
View full book text ________________
समणसुआदि विषयकं ॥३॥
संयतस्य पतत् त्रिप्रकारकमपि प्रमत्तसंगतमुपयोगमालिन्यं यावत्कालं विद्यते तावत्कालं जीवानामात्मारम्भकत्वं परारम्भकत्वमुभयारम्भकत्वं भगवत्यां प्रसिद्धं, तथा च तथ:--- __“जीवा णं भंते ! किं आयारंभा परारंभा तदुभयारंभा अणारंभा? गोयमा । अत्त्येगइया जीवा आयारंभावि परारंभावि, तदुभयारंभावि, नो अणारंभा । अत्यगइया जीवा नो आयारंभा नो तदुभयारंभा, भणारंभा ॥ से केणटेणं भंते एवं वुश्चइ-अत्येगाया जीवा आयारंभावि ? एवं पडिउच्चारेयव्वं, गोयमा ! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संसारसमावनगा य असंसारसमावनगा य तस्थ णं जे ते संसारसमावनगा ते दुविहा पन्नता, संजया य असंजया य, तस्थ ण जे ते संजया ते दुविहा पण्णता, तं जहापमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा नो परारंभा जाव अणारंभा, तत्स्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोग पडुश्च नो आयारंभा नो परारंभा जाव अणारंभा, असुभं जोग पडुश्च आयारंभावि जाव नो अणा| रंभा, तत्थ ण जे ते भसंजया ते अविरतिं पडुश्च आयारंभावि जाव नो अणारंभा, से तेणटेणं गोयमा एवं बुच्चा-अस्थगया जीवाजाव अणारंभा ॥"
एवञ्च यावत् प्रमत्तत्वं तावदारम्भकत्वं, आरम्भो नाम जीवोपघात उपद्रवणं सामान्येनाऽऽश्रवद्वारप्रवृत्तिविभावो वा। अनेनोल्लेखेनैतावत्सुनिश्चितं जातं यन्मिथ्यादृष्ट्यादीनां प्रमत्तान्तानां जीवानां प्राणातिपातादिपापस्थानकप्रवृत्तिरल्पाऽधिक्येनावाश्य वर्तते, तज्जन्यविविधकर्मणामुपभोगार्थमयं जीवः संसारे बंभ्रमीति, जन्मजरामरणादिदुःखमनेकविधश्च उपभुङ्क्ते। एतनिखिलदुःख| निवारणोपायस्तु पारगतप्रणीतसुविशुद्धधर्माराधनमेव प्रसन्नचेतसा, धर्मश्च षडावश्यकाराधनमयः तजन्याऽन्तरविशुद्धिमयश्च
किश्चित् प्रास्ताविकम् ॥३॥
Jain Education Interes
For Private & Personel Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120