Book Title: Karmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Author(s): Shivsharmsuri, Gunratnasuri
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
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प्रस्तावना
[ २५ के अन्तर्गत होता है । उस वक्त समयोनावलिकाद्विकबद्ध एवं किट्टिकरणाद्धा की एकावलिका
अनुपशान्त होता है शेष सर्वदलिक उपशान्त होता है । अगले समय जीव सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक को प्राप्त करता है पहले की हुई किट्टि द्वितीयस्थिति से खींच कर सूक्ष्मसंपरायद्धा के तुल्य करता है। तथा प्रथम और अन्तिमसमयकृत किट्टीयों को असंख्यभाग छोडकर शेष किट्टि की उदीरणा करता है । द्वितीय समय में उदयप्राप्त किट्टीओं का असंख्यभाग उपशान्त होने से उदय में जीव नहीं देता है और अपूर्व असंख्यभाग उदीरणा करण से ग्रहण करता हैं । इस प्रकार सूक्ष्मसंपराय के चरमसमय तक समझना। द्वितीयस्थितिगत दलिक को भी पूर्ववद् उपशम करता है । उसके बाद उपशान्तमोह गुणस्थानक प्राप्त करता है।
___उपशांतमोहगुणस्थानक पर उपशान्ताद्धा के संख्यातभागप्रमाण गुणश्रेणि की रचना करता है । वह गुगश्रेणि सम्पूर्ण उपशान्ताद्धा तक प्रदेश और काल की अपेक्षा समान रहती है । उपशान्ताद्धा करण रहित होती है परन्तु दृष्टित्रिक में संक्रमण व अपवर्तना होती है । जिस विधि से आरूढ होता है, उसी विधि से प्रमत्त गुणस्थानक तक उतरता है। उसमें विशेष इस प्रकार अन्तर है कि उतरता हुआ जीव द्वितीय स्थिति से दलिक ग्रहण कर प्रथमस्थिति करता है और उदयादि स्थिति में प्रक्षेप करता है । प्रक्षेप में प्रथमसमय में ज्यादा द्वितीयसमय में विशेषहीन विशेषहीन यावत् आवलिका आवलिका के उपर असंख्यगुण असंख्यगुण गुणश्रेणि के क्रम से प्रक्षेप समझना । यह क्रम वेद्यमान प्रकृतियों का समझना । अवेद्यमान प्रकृति का तो आवलिका के बाहर ही गुणश्रेणि का क्रम समझना । अवरोह को आनुपूर्वी सक्रम नहीं होता है । छ आवलिका के बाद उदीरणा होना वह भी नहीं होता है । वेद्यमान संज्वलनाद्धा से अधिक शेष मोहनीय प्रकृतियों की गुणश्रेणि अधिक होती है, तथा जिस संज्वलन से श्रेणि को प्रतिपन्न हुआ उस कषाय का उदय होने पर उसकी गुणश्रेणि शेषकर्म सदृश होती है।
झपक, उपशमक अवरोहक को अशुभकर्मों का स्थितिबंध क्रमशः दुगना दुगुना बंध होता है और अनुभाग अनंतगुण अनंतगुण अधिक होता हैं । शुभ प्रकृतियों का उक्त प्रमाण से विपरीत क्रम होता है । उपशमनाद्धा में वर्तमान जीव काल करता है, वह अवश्य देव बनता है। क्योंकि शेष नोन बद्धायु कर्म वाला श्रेणि आरोहण नहीं करता है, बन्धनादिकरण आरोहक जहां जहां व्यवच्छिन्न करता है । अवरोहक वहाँ वहाँ उन करणों को उद्घ टित करता है। एक भव में उत्कृष्ट से दो बार श्रेणि का आरोहण होता है । उपरोक्त क्रम पुरुषवेद से उपशमश्रेणि प्रतिपन्न का है । लेकिन स्त्रीवेद से प्रतिपन्न जीव प्रथमस्थिति की एक उदयस्थिति को छोड़कर शेष सर्व स्त्रीवेद उपशांत हो जाता है । अवेदक होकर
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