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* २६ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
कर्म) समझी जाने वाली क्रियाएँ भी उसके साथ राग-द्वेष-कषायादि दूषण हों तो कर्म की कोटि में आ जाती हैं साधनात्मक क्रियाएँ पूर्वोक्त दूषणों से युक्त हों तो अकर्म के बदले कर्मरूप बन जाती हैं। कई दफा कर्ता के परिणाम अशुभ होने से संवर और निर्जरा वाले स्थान में आस्रव और बंध तथा शुद्ध परिणाम हों तो आम्रव और बन्ध होने वाले स्थान में संवर और निर्जरा भी हो जाती है। इसी प्रकार कर्मविज्ञान ने विविध युक्तियों-प्रमाणों के आधार पर यह भी बताया है कि कर्म का अर्थ केवल सक्रियता या प्रवृत्ति नहीं, तथैव अकर्म का अर्थ केवल निष्क्रियता या निवृत्ति नहीं है। अतः समस्त कर्म को कर्म (बन्धकारक) मानना न्यायसंगत नहीं, अयुक्तिक भी है। जो कर्म रागादि से प्रेरित होकर किया जाए, वह साम्परायिक क्रियाजनित कर्म है, इसके सिवाय जो कर्म रागादिरहित होकर मात्र कर्त्तव्यरूप से किया. जाए. वह ऐपिथिक क्रियाजनित शुद्ध कर्म = अवन्धक कर्म = अकर्म है। विकर्म और कर्म में अन्तर : दोनों से बचकर अकर्म करने की प्रेरणा
जिस प्रकार कर्म से ही 'अकर्म' प्रादुर्भूत या निर्मित होता है, उसी प्रकार 'विकर्म' भी कर्म में से प्रादुर्भूत या निर्मित होता है। कर्म के ही ये दो विभाग हैं, एक शुभ और दूसरा अशुभ। शुभ योगत्रय के साथ कषाय हों तो शुभास्रव = पुण्यरूप शुभ बन्ध = कर्म कहलाता है तथा अशुभ योगत्रय के साथ कपाय हों तो अशुभानव = पापरूप अशुभ बन्ध = विकर्म कहलाता है। ये दोनों ही कर्म साम्परायिक क्रियाजनित होने से कर्मबन्धकारक होते हुए भी तीव्र कषाय-मन्द कषाय, अयत्ना-यत्ना, ज्ञात-अज्ञात, अशुभ भाव-शुभ भाव, अशुभ राग-शुभ राग तथा प्रमाद की तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से अशुभ बन्ध-शुभ बन्ध घातक होते हैं। अतः पहला कर्म 'विकर्म' और दूसरा कर्म 'कर्म' कहलाता है। दान, शील, तप, भाव, परोपकार, व्रत, नियम, पालन आदि की यतनापूर्वक की जाने वाली जो छह क्रियाएँ शुभ आम्नव तथा शुभ बन्ध की कारण हैं, वे 'कर्म' हैं तथा इसके विपरीत जो क्रियाएँ अयत्नापूर्वक प्रबल कषायाविष्ट होकर की जाती हैं, वे अशुभ बन्ध की कारण होने से उन्हें 'विकर्म कहा जाता है। इन्हीं दोनों में से आचारांगसूत्र में मूलकर्म को 'विकर्म' में और अग्रकर्म (शुभ कर्म) को 'कर्म' में गिनाकर दोनों से बचकर ‘अकर्म करने की प्रेरणा दी गई। शुभ, अशुभ और शुद्ध कर्म : एक अनुचिन्तन ___ इससे आगे के निबन्ध में कर्मविज्ञान ने समझाने का प्रयत्न किया है कि कर्मजल से परिपूर्ण इस संसाररूपी महासमुद्र में ‘अकुशल', 'अर्धकुशल' और 'कुशल' इन तीन प्रकार के नाविकों के समान तीन प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं, जो अकुशल प्रमादी नाविक होता है, उसकी नौका जैसे सछिद्र होकर समुद्र-जल में डूब जाती है, तथैव अकुशल व्यक्ति द्वारा संसार महासमुद्र में पापकर्मों का ज्वार आते ही आम्रव-निरोधरूप संवर न कर पाने के कारण उसकी जीवन-नैया पापकर्म से परिपूर्ण होकर डूब जाती है। दूसरे अर्धकुशल नाविकों की तरह होते हैं, उनकी जीवन-नैया सछिद्र होते हुए भी बीच-बीच में व्रत, तप संयम, नियम आदि पुण्यों से वे अपनी डूबती-उतराती जीवन-नैया की मरम्मत करते रहते हैं, आस्रव छिद्र बंद करते रहते हैं। तीसरे साधक अतिकुशल नाविक के समान कष्टों, विपत्तियों, परीषहों, उपसर्गों तथा कषायों के प्रसंग पर समभावरूपी चप्प से अपनी जीवन-नैया को खेते हए प्रशान्त कर्मजल में संवर-निर्जरा के जलमार्ग से आगे से आगे बढ़ते जाते हैं और संसार-समुद्र को पार करके सर्वकर्मजल से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। इन्हीं त्रिविध नाविकों के अनुरूप संसारी जीवों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय परिभाषा में हम क्रमशः अशुभ, शुभ और शुद्ध कर्म; दूसरे शब्दों में-पाप, पुण्य और धर्म कह सकते हैं। शास्त्रों में इन्हें क्रमशः अशुभाम्रवरूप, शुभानवरूप और संवर-निर्जरारूप बताया गया है। अन्तिम शुद्ध कर्म को अकर्म कहा है। वैदिक और बौद्धदर्शन में भी इन तीनों का समान या दूसरे नामों से उल्लेख है। गीता में इन त्रिविध कर्मों को तामस. राजस और सात्त्विक कर्म के रूप में पृथक्-पृथक् लक्षण बताकर निरूपित किया है। कर्म के शुभाशुभत्व का मुख्य आधार इन तीनों दर्शनों में कर्ता का शुभ-अशुभ मनोभाव या आशय बताया गया है। इसके सिवाय दो आधार और हैं शुभ-अशुभ कर्म को पहचानने के-(१) कर्म को अच्छा-बुरा बाह्य रूप, और (२) उससे सामाजिक जीवन पर पड़ने वाला अच्छा-बुरा प्रभाव; यानी उसका परिणाम अच्छा या बुरा हो। तथैव कर्म के शुभ-अशुभत्व का नाप-तौल वृत्ति और कृति दोनों के शुभ-अशुभत्व के आधार पर भी करना चाहिए। आत्मा के अनुकूल और प्रतिकूल व्यवहार, दृष्टिकोण या
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