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श्री मल्प
मूत्रे ॥३१३॥
कल्पमञ्जरी टीका
शुद्धहृदयः निर्मलचित्तः, खनिविषाणमिव एकजातः एकः प्रधानः जातः उत्पन्नः। तथा-भारण्डपक्षीव-भारण्डनामकपक्षिवत् अप्रमत्तः-प्रमादरहितः, कुञ्जर इव हस्तिवत् शौण्डीर-शूर:-पराक्रमी, तथा-वृषभ इव-बलीवर्दवत् , जातस्थामा उत्पन्नवीयः, सिंह इव-सिंहवत् , दुर्धर्षः अपराजेयः, वसुन्धरेव-पृथिवीवत् सर्वस्पर्शसहः, शीतोष्णादि सकल स्पर्शसहनशीलः, तथा-मुहुतहुताशन इव-निक्षिप्तघृतादि वह्निरिव तेजसा प्रकाशेन ज्वलन्= दीप्यमानः, तथा-वर्षावासवर्जवर्षतौ वासं विहाय-वर्षाकालिकमासचतुष्टयं परित्यज्य तदतिरिक्तेषु अष्टासु ग्रैष्महेमन्त ऋतु सम्बन्धिषु मासेषु ग्रामे २ एकरात्रत-नगरे २-पश्चरात्रम् , तथा-वासीचन्दनकल्प:-वासीव वासीताम्अपकारिणमित्यर्थः, चन्दनभिव उपकारकत्वेन कल्पयति मन्यते-इति वासीचन्दनकल्पः। उक्तश्च
"यो मामपकरोत्येष तत्त्वेनोपकरोत्यसौ।
शिरामोक्षायुपायेन कुर्वाण इव नीरुजम् ॥" गेंडा के सींग के समान ये रागादि को की सहायता से रहित होने के कारण, एक स्वरूप थे। भारंड नामक पक्षी के समान प्रमादरहित थे। हाथी के समान पराक्रमी थे। वृषभ के समान वीर्यशाली थे। सिंह के समान अजेय थे। पृथ्वी के समान सर्वसह-शीत-उष्ण आदि सकल स्पर्शों को सहन करनेवाले थे।
जिस में घोकी आहुति दी गई हो ऐसी अग्नि के समान तेजोमय थे। वर्षावास-वर्षाऋतु के चार मासों के सिवाय ग्रीष्म और हेमन्त ऋतुओं के आठ महिनों में, ग्राम में एक रात और नगर में पाँच रात से अधिक नहीं ठहरते थे। भगवान बासी चन्दन कल्प थे अर्थात् वमूले के समान अर्थात् अपकारी पुरुष को भी चन्दन के समान उपकारक मानते थे। जैसे कहा है--
“यो मामपकरोत्येप, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ।
शिरामोक्षाधुपायेन, कुर्वाण इच नीरुजम्" ॥ इति । જળ જેવા નિર્મળ ચિત્તવાળા હતા. ગેંડાના શિંગડાની જેમ એક જ અદ્વિતીય ઉત્પન્ન થયેલ હતા. ભાખંડ નામના પક્ષીના જેવા પ્રમાદ રહિત હતા. હાથી જેવા પરાક્રમી હતા. વૃષભની જેમ વીર્યવાન હતા. સિંહ જેવા અજેય હતા. પૃથ્વીની જેમ સર્વ-શીત, ઉષ્ણુ આદિ સકળ સ્પર્શોને સહન કરનાર હતા. જેવાં ઘીની આહુતિ અપાઈ હોય એવા भनि तपस्वी ता. वर्षावास-वर्षांतुना थार महीना। सिवाय श्रीभ मन भन्त ऋतुभाना मानाએમાં ગામમાં એક રાત અને નગરમાં પાંચ રાતથી વધારે રહેતા નહી. ભગવાન વાસી ચન્દન ક૯૫ હતા, એટલે કે વાંસલાની જેમ અપકારી પુરુષો પણ પ્રભુને ચન્દનની જેમ ઉપકારક માનતા હતા જેમકે કહ્યું છે
भगवदवस्था वर्णनम् । सू०९८॥
॥३१३॥
શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨