Book Title: Kalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रीकल्पसूत्रे
कल्पमञ्जरी टीका
(१३५०||
"भो भो पमाय मवहय भएह एणं, आगच्च निव्वुइ पुरिंपइ सत्यवाहं ।
जो णं जगत्तयहिओ सिरिवद्धमाणो, लोगोवयारकरणे गवओ जिणिदो ॥१॥ एवं सोचा खणमित्तं ऊससिय पुव्वं ताव गोयमगोत्तो इंदभूई नामं माहणो रुटो कुद्धो आसुरुत्तो मिसिमिसेमाणो एवं वयासी-अम्हंमि विजमाणे अन्नो को इमो पासंडो समासियवियंडो, जो अप्पाणं सवण्णुं सव्वदरिसिं कहेइ, न लज्जेइ सो ? दीसइ, इमो को वि धुत्तो कबडजालिओ इंदजालिओ। अणेण सबण्णुत्तस्स आडंबरं दरिसिय इंदजालप्पओगेण देवावि वंचिया, जं इमे देवा जनवाडं संगोवंग वेयण्णुं मंच परिहाय तत्थ गच्छंति । एएसि बुद्धि विपज्जासो जाओ, जेणं इमे तित्थजलं चइय गोप्पयजलमभिलसमाणा चायसाविव, जलं चइय थलमभिलसमाणा मंडूगाविव, चंदणं चइय दुग्गंधमभिलसमाणा मक्खियाविव, सहयारं चइय बब्बूरमभिलसमागा उहाविव, सुजपगासं चइय अंधयारमभिलसमाणा उलूगाविव जनवाडं चइय धुत्तमुवगच्छंति। सच्चं जारिसो देवो तारिसाचेव तस्स सेवगा। नो णं इमे देवा, देवाभासा एव। भमरा सहयार मंजरीए गुंजंति, वायसा निंबतरुम्मि। अत्थु, तह वि अहं तस्स सचण्णुत्तगव्वं चूरिस्सामि । हरिणो सीहेग, तिमिरं भक्खरेण, सलभो वण्हिणा, पिवीलिया समुद्देणं, नागो गरुडेण, पन्चओ वजेणं, मेसो कुंजरेण सद्धिं जुझिउं कि सक्केइ ? । एवं चेव एसो इंदजालिओ ममंतिए खणंपि चिहिउँ नो सके। अहुणेव अहं तयंतिए गमिय तं धुत्तं परा जिणेमि। मुज्जतिए ख जोअस्स बरागस्स का गणणा। अहं नो कस्सवि साहजं पडिविवस्सामि कि अंधयारप्पणासे मुजो अन्न पडिक्खइ ? अश्रो सिग्यमेव गच्छामि। एवं परिचिंतिय पोत्ययहत्यो कमंडलु दभासणपाणीहिं पीयबरेहिं जण्णोववीयविभूसिय कंधरोह-हे सरस्सई कंठाभरण ! हे वाइविजयलच्छी केयण ! हे वाइमुहकवाडयंतणतालग! हे वाइचारणविधारणपंचाणण ! वाइस्सरियसिंधुचुलुगीगरागत्थी! वाइसीहा हावय ! वाइविजयविसारय ! वाइविंदभूवाल ! वाइसिरकरालकाल ! वाइकयलीकांडखंडणकिवाण! वाइतमत्थोमनिरसणपचंडमत्तंड ! वाइ गोहूमपेसणपासाणचक्का! वाइयामघडमुग्गर ! वाइउलूगदिनमणी ! वाइवच्छुम्मूलणवारण ! वाइदइच्च देववई ! वाइसासणनरेस! वाइकंसकंसारि! वाइहरिणमिगारि! वाइज्जरजरंकुरन ! वाइजूइमल्लमणी! वाइहिय यसल्लघर ! वाइसलहपज्जलंतदीवग ! वाइचक्कचूडामणि ! पंडियसिरोमणी ! विजियाणेगवाइवाय ! लद्धसरस्सईसुप्पसाय ! दूरीकयावरगव्वुमेस ! इच्चाहजसं गायतेहि पंचसयसीसेहि परिवुडो जयजयसद्देहि सद्दिज्जमाणो पहुसमीवे समणुपत्तो। तत्थ गंतूण से समोसरण समिद्धिं पहुतेयं च विलोइयं किमेयंति चगियचित्तो संजाओ ।।सू०१०५।।
यज्ञपाटकस्थ
ब्राह्मण वर्णनम्। मु०१०५॥
॥३५०॥
શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨
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