Book Title: Kalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 408
________________ श्री कल्प सूत्रे ॥३९०॥ कल्पमञ्जरी टीका वायुभूते त्तणेणं संविऊ अस्थि । सो जीवो देहिदिये हिंतो पुहं अस्थि । जओ जया इंदियाइं नस्संति तया सो तं तं इंदियत्थं सरइ, जहा-एसो सद्दो मए पुन्वं सुणिमओ, एयं वत्थुजायं मए पुच्वं दिटुं, एसो गंधो मए पुवं अग्याओ, एसो महुर तित्ताइरसो मए पुव्वं आसाइओ, एसो मिउकक्खडाइफासो मए पुव्वं पुट्टो आसी। एवं पयारो जो अणुहबोहवइ, सो जीवं विना कस्स होज्जा ? तुज्झ सत्थे वि वुत्तं "सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येषब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धोयं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः" इति । जइ सरीराओ अन्नो कोवि जीवो न हवेज ताहे "सत्येन तपसा ब्रह्मचर्येण एपलभ्यः" इइकहं संगच्छेज । अओ सिद्धं सरीराओं भिन्नो अन्नो जीवो अस्थित्ति । एवं पहुकयगुणेणं छिन्नसंसओ पडिबुद्धो वाउभूई वि पंचसयसिस्सेहि पब्बइओ ॥०१०८।। छाया-ततः खलु वायुभूतिविपः 'द्वारपि भ्रातरौ प्रत्रजितौ' इति ज्ञात्वा चिन्तयति-सत्यम, एष सर्वज्ञो दृश्यते, यत्मभावेग मम द्वारपि भ्रातरौ तदन्ति के प्रबजितौ। अतोऽहमपि तत्र गत्वा स्वमनोगतं तज्जीवतच्छरीरविषयं संशयमपाकरोमीति कृत्वा सोऽपि पश्चशतशिष्यपरितः प्रभुसमीपे समनुप्राप्तः। प्रभुस्तं नामसंशयनिर्देशपूर्व वदति-भो ! वायुभूते ! तवमनसि संदेहो वर्त्तते-यत् शरीरं तदेव जीवः, नान्यस्तद्वयतिरिक्तः मूल का अर्थ-तब वायुभूति ब्राह्मण ने 'मेरे दोनों भाई दीक्षित हो गये' यह जान कर विचार कियासचमुच हो वह सर्वज्ञ प्रतीत होते हैं, जिस सर्वज्ञता के प्रभाव से मेरे दोनों भाई उनके पास दीक्षित हुए हैं। अत एव मैं भी वहाँ जाकर अपने मनमें स्थित 'तज्जीव-तच्छरीर' अर्थात् वही जीव और वही शरीर हैंभिन्न नहीं, इस विषय के संशय का निवारण करूँ। इस तरह विचार कर वह भी अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास पहूँचे। प्रभु ने उन के नाम का और संशय का उल्लेख कर के कहा-हे वायुभूति ! तुम्हारे મૂળનો અર્થ-ત્યારબાદ વાયુભૂતિ બ્રાહ્મણે જાણ્યું કે, ભાઈએ દીક્ષિત થઈ ગયા છે. આ સાંભળી તેને પ્રતીતિ થઈ કે જરૂર “વદ્ધમાન સ્વામી’ સર્વજ્ઞ જણાય છે. તેની સર્વજ્ઞતા ને લીધે, મારા બંને ભાઈઓ, સંસારથી વિરક્ત थया, भाटे भा। संशय ५५ यiar व्य४४३ अनेथील निवतु ! भारी संशय वा छे 'तज्जीवतच्छरीर' अर्थात् छ त शरीर छ, भने शरी२ ते छे. मान लिन्ननथी पपछे, આવી શંકાનું સમાધાન “વધ માન’ પાસે જઈ કરી આવું ! આ પ્રમાણે વિચારગ્રસ્ત બની નિર્ણય કર્યો, અને પિતાના પાંચ શિષ્ય સમુદાય સાથે પ્રભુની સમીપે આવવા તે રવાના થયા. પ્રભુની સમીપ આવી, યથાસ્થિત સ્થાન પર બેઠા. ત્યાર પછી પ્રભુએ, તેમની ઉપર દૃષ્ટિ કરી, તેમના ખરા નામનું સંબોધન કરીને તેમના મનમાં “જીવ-અને શરીર तज्जीवतच्छरीर विषय संशय निवारणम् । ॥सू०१०८॥ ॥३९०|| તે શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨

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