Book Title: Kalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 442
________________ श्रीकल्पसूत्रे ॥४२४॥ त्वेन गृहीतं - स्वीकृतम्, तद्यथा - " पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणा" जीवः - पुण्येन शुभकर्मणा पुण्यःपुण्यवान् भवति, पापेन - अशुभकर्मणा पापः- पापवान् भवति, 'पुण्यः, पापः' इत्युभयत्रमत्वर्थीयोऽर्शआदिस्वादच् प्रत्ययः । तेन पुण्यपापशब्दयोः क्लीवत्वेऽपि विशेष्यनिघ्नत्वात्पुंस्त्वम् । यद्वा- वैदिकमयोगस्वात्पुंस्त्वम्, तेन पुण्यं पापं चेत्युभयं शुभाशुभकर्मभ्यां भवतीत्यर्थः । इत्यादि । अनेन पुण्यं पापं चेत्युभयमपि स्वतन्त्रं वस्तु विद्यते इति सिद्धम् । एवं भगवतो वचनं श्रुत्वा छिन्नसंशयः सन् अचल भ्राताऽपि त्रिशतशिष्यैः सह पत्रजितः । ॥ ० ११२ ॥ मूलम् - मेयज्जो विनियसंसय छेयणडं तिसयसीसेहिं परिवुडो पहु समीचे समागओ । भगवंतं एइभो यज्जा ! तब मणंसि इमो संसओ वहइ-परलोगो नत्थि । जओ वेपसु कहियं - "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति" इच्चाइ । तं मिच्छा । परलोगो अस्थिचेव अन्ना जायमेत्तस्स बालस्स माउथणदुद्धपाणे सन्ना कहं भवे ? । तब सिद्धते वि वृत्तं "यं यं वाऽपि स्मरन भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । और पाप दोनों को स्वतंत्र स्वीकार किया गया है। कहा है- “ पुण्यः पुण्येन कर्मणा. पापः पापेन कर्मणा" अर्थात- जीवशुभ कर्म से पुण्यवान होता है और अशुभ कर्म से पापवान होता है। ऐसा मान ने पर वाक्य का अर्थ यह होगा - 'शुभ कर्म से पुण्य और अशुभ कर्म से पाप होता है । ' इससे यह सिद्ध हुआ कि पुण्य और पाप-दोनो स्वतंत्र वस्तुए है। आशय यह है कि आईत मन में कोई भी दो पदार्थ सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न नहीं होते, तथापि अचलभ्राता के मामे हुए सर्वथा अभेदपक्ष का निरास करने के लिए यहाँ केवल भेद-पक्ष का समर्थन किया गया है। द्रव्य की अपेक्षा दोनों में अभेद भी है, अनेकान्तवाद के ज्ञाताओं को यह समझना कठिन नहीं । भगवान् के यह वचन सुनकर अचल भ्राता का संशय छिन्न हो गया। वह भी अपने तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये || मू० ११२ ।। तमारा भागभ शाखोमां पथ युएय भने पाचना तत्त्वाने हां गएयां छे. प्रेम-"पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा" भेटखे यज्ञ उदवावाजा, एय उपार्जन पुरे छे भने तेने स्वर्गीय सुभानी आप्ति थाय छे, ते तमाश શાસ્ત્રોમાં નિર્દેશન છે. અમારા મત પ્રમાણે, કોઇ પણ એ પદાર્થો, સર્વથા સિન્ન કે સર્વથા અભિન્ન હોતાં નથી. છતાં, અચળભ્રાતાના સંદેહ જે સર્વાંદા અભેદ પક્ષના હતા, તેને નિર્મૂળ કરવા, અને દરેક પદાર્થને એકાંતિક નહિ પણ અનેકાતિક દૃષ્ટિએ જોવા, ભગવાને સમજણ આપી હતીઃ આ રીતે પેાતાને અનેકાંત દૃષ્ટિનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થતાં, અચલપ્રાતા વૈરાગ્ય ને પામ્યા, અને સ્વયં દીક્ષિત થયેા. તેની સાથે તેના ત્રણસે શિષ્યાએ પણ દીક્ષા ગ્રહણ કરી. (સૂ॰૧૧૨) શ્રી કલ્પ સૂત્ર : ૦૨ कल्प मञ्जरी टीका अचलभ्रातुदक्षाग्रहणम्। परलोक विषयसंशय निवारणम् । ॥सू० ११२॥ ॥ ४२४॥

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