Book Title: Kalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

Previous | Next

Page 409
________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥३९१॥ hts जीवः, प्रत्यक्षादि प्रमाणेन तदुपलम्भाभावात् । जलबुद्बुद इव स शरीराद् उत्पद्यते शरीर एव विलीयते । अतो नास्ति अन्यः कोऽपि पदार्थों यः परलोके गच्छेत् । विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इत्यादि वेदवचनमपि अत्रा मानम् । अत्रोच्यते सर्वप्राणिनां देशतो जीवः प्रत्यक्षोऽस्त्येव, स स्मृत्यादि गुणानां प्रत्यक्षत्वेन संविदस्ति स जीवो देहेन्द्रियेभ्यः पृथगस्ति । यतो तदा इन्द्रियाणि नश्यन्ति तदा स तं तमिन्द्रियार्थं स्मरति, यथा एष शब्दो मया पूर्वं श्रुत १, एतद् वस्तु जातं मया पूर्व दृष्टम् २, एष गन्धो मया पूर्वमात्रातः ३, एष मधुरतिक्तादि रसो मया पूर्वमास्वादितः ४, एष मृदुकर्कशादि स्पर्शो मया पूर्व स्पष्ट आसीत् । एवं प्रकारो योऽनुभवो मन में सन्देह है कि जो शरीर है वही जीव है। शरीर से भिन्न कोई जीव नहीं है, क्यों कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उसका उपलंभ नहीं होता । जल के बुलबुले के समान जीव शरीर से उत्पन्न होता है । और शरीर में हो विलीन हो जाता है । अत एव उससे भिन्न कोई पदार्थ नहीं जो परलोक में जाता हो । 'विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादि ( पूर्वोल्लिखित) वेद - वचन भी इस विषय में प्रमाण है । अर्थात् पाँचभूतों से यह आत्मा उत्पन्न होता है, और पाँच भूतो में ही मिल जाता है । इसका समाधान यह है- सभी प्राणियों को देश से जीव का प्रत्यक्ष होता ही है । वह जीव स्मृति आदि गुणों का साक्षात् ज्ञाता है। वह जीब शरीर तथा इन्द्रियों से भिन्न है; क्यों कि जीव, इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी इन्द्रियों द्वारा जाने हुए विषयों का स्मरण करता है । जैसे- वह शब्द मैंने पहले सुना था; वे वस्तुएँ मैंने पहले देखी थीं; वह गंध मैने पहले संघी थी; वह मधुर और तिक्त रस मैंने पहले चखा था, वह એકજ છે' એ ધેાળાઈ રહેલી શંકા, સભા સમક્ષ પ્રગટ કરી. “ તારા મનમાં સદેહ છે કે, જીવ અને શરીર જુદા નથી, પણ એકજ છે. કારણ કે પ્રત્યક્ષ આદિ પ્રમાણુ વડે, તેની ઉપલબ્ધિ થઈ શકતી નથી જલના પરપોટા સમાન, જીવ શરીરમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને તેમાંજ વિલય થાય છે. શરીરથી કોઇ ભિન્ન પદાથ' છે જ નહિ, કે પરલેાકમાં तो होय ! 'विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इत्यादि या बेहवाइयो वडे, तु तारी मान्यता ने पुष्टि आये छे." ઉપર દર્શાવેલી વાયુભૂતિની માન્યતાને નિર્મૂળ કરવા, ભગવાન સમાધાન આપે છે કે, સ` પ્રાણીએ જુદા જુદા ભાસે છે, તે તેનું પ્રમાણ છે. જીવમાં સ્મૃતિ વિગેરે ગુણા રહેલા છે, તે તેની બીજી પ્રત્યક્ષતા છે. ઇન્દ્રિયા અને શરીરની રચના ભિન્ન ભિન્ન જણાય છે, તે પણ તેના પૂરાવે છે. કારણ કે ઇન્દ્રિયાના નાશ થતાં પશુ, ઇન્દ્રિયા દ્વારા જણાયેલ વિષયોની સ્મૃતિ રહે છે. પહેલા સાંભળેલા શબ્દો, પહેલી દેખાએલ વસ્તુઓ, અગાઉ સૂંઘાએલ પદાર્થો, શ્રી કલ્પ સૂત્ર : ૦૨ कल्प मञ्जरी टीका वायुभूतेः तज्जीवतच्छरीर विषय संशय निवारणम् । ॥ मु०१०८ || ॥३९१॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509