Book Title: Kalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

Previous | Next

Page 382
________________ श्री कल्प सूत्रे ॥ ३६४ ॥ श 【獎 हियाए सुहाए महुराए वाणीए भासीअ । भगवओ वयणं सोचा सो पुणो अईव चगिय चित्तो जाओ । 'अहो ! अण मम णामं कहं णायं ? | एवं बियारिय मणसि तेण समाहिय किमेत्थ अच्छेरगं-जं जगपसिद्धस्स विजगगुरुस्स मज्झ नाम को न जाणइ ? मज्झ मणंसि जो संसओ वहइ-तं जइ कहेइ छिंदइ य, ताहे अच्छेरं गणिज्जइ । एवं aियारेमाणं तं भगवं कहीअ - गोयमा ! तुज्झ मणंसि एवारिसा संसओ वट्टइ-जं जीवो अत्थि गोवा ? | जओ वेएस - "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति "ति कहियमत्थ । स विस हेमि-तुमं वेयपयाणं अत्थं सम्मं न जाणासि - जीवो प्रत्थि, जो चित्तचेयण्ण विष्णाण सन्नाइलवणेहि जाणिज्जइ । जइ जीवो न सिया ताहे पुण्णपात्राणं कत्ता को भवे ? तुझ जन्नदाणाइकज्जकरणस्स निमित्तं को होज्जा ? तवसस्थेविवृत्तं - "सवै अयमात्माज्ञानमयः " अओ सिद्धं जीवो अत्थित्ति । इच्चाइ पहुवणं सच्चा तस्स मिच्छतं जले लवणमिव, सुज्जोदये तिमिरमिव चिंतामणिम्मि दारिदमिव गलियं । तेण सम्मत्तं पत्तं । तरणं से भगवं वंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी- भदंत ! रुक्खस्स उच्चत्तं मावि वामणजणो अहं ममंदो तुम्हें परिक्खिउं समागओ, सामी ! जो तए मम पत्रिबोहो दत्तो तेणं संसाराओ विरतोहि अओ मं पव्वाविय दुःखपरंपरा उलाओ भवसायराओ तारेह । तणं समणे भगवं महावीरे 'इमो मे पढमो गगहरो भविस्सर 'त्ति कट्टु तं पंचसयसिस्स सहियं नियहत्थेण पञ्चावे | तेणं कालेणं तेगं समरणं गोयमगोत्ते इंदभूई अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी जाए इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाज भंडमत्त निक्खेबणासमिए उच्चारपासवण खेल जल्ल सिंघाण परिद्वावणियासमिए मगसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुचे वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तििदिए गुत्तभयारीचाईबलज्जू तबस्सी खंतिखमे जिइंदिए सोही आणियाणे अप्पुस्सुए अवहिले ससामण्णरए इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ कहु विहरइ । सेणं इंदभूईणामं अणगारे गोयमगोते सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाग संठिए वज्जरिसह नारायणसंघयणे कणगलगनिघसम्हगोरे उग्गतवे दिसतवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेस्से चउदसपुब्बी चउणाणोवगए सव्वक्खरसण्णिवाई समणस्स भगवओं महावीरस्स अदूरसामंते उढजाणु अहोसिरे झाणकोडोबगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ सू०१०६ ।। શ્રી કલ્પ સૂત્ર : ૦૨ कल्प मञ्जरी टीका इन्द्रभूतेः आत्म विषयक संशय वारणं तस्य दीक्षा वर्णनम् । ग्रहण ॥ मृ०१०६ ॥ ॥३६४॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509