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कैसे सोचें ? (२)
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इस दुनिया में कुछ परिवर्तनीय है और कुछ अपरिवर्तनीय। जो अपरिवर्तनीय है, जो ध्रौव्यांश है उसे नहीं बदला जा सकता। किन्तु जो पर्याय हैं, उन्हें बदला जा सकता है। कोई भी पर्याप अपरिवर्तनीय नहीं होता। क्रोध की अवस्था एक पर्याय है, मान और अहंकार की अवस्था एक पर्याय है, लोभ की अवस्था एक पर्याय है, प्रियता और अप्रियता की अवस्था एक पर्याय है। ऐसे हजारों पर्याय हैं। वे कभी अपरिवर्तनीय नहीं होते। उन्हें बदला जा सकता है। सारे संबंध और सभी कर्म पर्याय हैं। उन्हें बदला जा सकता है। मूल तत्त्व को नहीं बदला जा सकता। मूल तत्त्व दो ही हैं-चेतन और अचेतन। ये नहीं बदले जा सकते। चेतन अचेतन में या अचेतन चेतन में नहीं बदला जा सकता। पर्याय बदले जा सकते हैं। जब यह तथ्य जान लिया जाता है तब सारे संबंध-विजातीय भाव टूटने लग जाते हैं। उस स्थिति में यह स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि ध्यान विसंबंध की प्रक्रिया है। ध्यान करने वाले व्यक्ति की चेतना संबंधातीत होने लग जाती है। यह व्यवहार में कुछ अटपटी-सी बात लगती है। पर यह होता है। उस व्यक्ति का सारा रस बदल जाता है, मर जाता है। जब वह परम रस में मग्न हो जाता है, तब ये नीचे के रस तुच्छ हो जाते हैं, रसहीन हो जाते हैं। पदार्थ में रसानुभूति तब तक ही होती है जब तक रसातीत अवस्था का अनुभव नहीं हो जाता। ध्यान से संबंधातीत अवस्था का उदय होता है और तब सब कुछ विसंबंधित हो जाता है। पदार्थ पदार्थ मात्र रह जाता है और चेतना चेतना मात्र रह जाती है। पदार्थ को चेतना के साथ जोड़ने वाला सूत्र है-आसक्ति। वह ध्यान की प्रक्रिया से कट जाता है, तब पदार्थ उपयोगिता मात्र रह जाता है। जीना है तो श्वास लेना ही होगा, भोजन और पानी का उपयोग करना ही होगा। जीना है तो कपड़े और मकान का उपयोग करना ही होगा। इन सब में उपयोगिता की दृष्टि बनी रहती है, मूर्छा या आसक्ति टूट जाती है, यह एक नई स्थिति का निर्माण है।
ध्यान के द्वारा चिन्तन में सृजनात्मक शक्ति का विकास होता है। उसका साधन बनता है-अनावेश। यह है आवेश का अभाव। चिन्तन का एक दोष है-संदेह । आदमी संदेह बहुत करता है। वह खतरा उठाता है, इसलिए संदेह करता है। एक कहावत है-दूध से जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। इसमें सचाई है। आदमी जब ठगा जाता है तब हर बात में संदेह करने लग जाता है। यदि प्रवंचना के तत्त्व समाज में नहीं होते तो आदमी में
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