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(९१) रागी हैं और उन्होंने अपने यहाँ एक स्वरूपानुरूपा संस्कृतपाठशाला स्थापित की है, और उस पाठशालामें विविधविद्याविशारद प्रसिद्धनामा श्रीमान्-पण्डित चण्डीप्रसादजी सुकुल जैसे धुरन्धर अध्यापक हैं । देखा जाता है कि इस पाठशालाका फल उत्तम है। पण्डित श्यामसुन्दर वैश्य इसी पाठशालाके फल स्वरूप हैं जिनका शास्त्रमें अच्छा अभिनिवेश है। आशा है कि यह पाठशाला जैनलोगोंमें विद्याप्रचारकी मूलभूत होगी। सज्जनों ! एक दिन वह था कि जैनसंप्रदायके आचार्योंके हुङ्कारसे दसों दिशाएँ गूंज उठती थी, एक समयकी वार्ता है कि हमारही ( याने वैदिकसंप्रदायी वैष्णवने ) किसी सांप्रदायिकने हेमचन्द्राचार्यजीको देख कर ( जोकि संन्यासवेषके थे ) कहा ।
आगतो हेमगोपालो दण्डकम्बलमुद्हन् ।
बस तो फिर क्याथा उन्होनें मन्दमुसुकानके साथ उत्तर दिया कि।
१ जुवो भाईओ ! दंड. अने कांबलने धारण करतो पेलो हेम गोवालीओ आवे छे.
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