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कालको जगत्का आदिकाल मानना उचित नहीं । जिस पदार्थका यह जगत बना है उसी पदार्थका बनता आ रहा है । अस्तु, अति प्राचीनकालमें जाने, तथा उस कालको जगत्का आदिकाल माननेके स्थानमें हम अभीके जगत्को ही आदि समझने लगें तो ठीक होगा. इसीको आदि गिन करके दूर दूर तक सब दिशाओंमें आगे पीछे ज्योति फैलावें ( अर्थात् जैनधर्मके सिद्धान्तोंको विस्तृतरूपसे प्रचार करें ) जिस प्रकार समुद्र के किनारे पर खड़ा हुआ मनुष्य अपनी दृष्टिके विस्तारको सीमाबद्ध नहीं कर सकता इसी प्रकार हम देश तथा कालका अन्त कभी नहीं पा सकेंगे । समुद्रमें जहाज कहीं भी हो परन्तु वहांसे दृष्टि सीमाबद्ध हो सकती है वैसे ही देश अथवा कालके किसी भागको आदिरूपमें गिन लो परन्तु उसकी पहिली सीढ़ी क्या या कहां समझनी ? यह प्रश्न हमेशां उठे हीगा +
संसार किसका बना हुआ है ?
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दो मुख्य वस्तुओंका । अर्थात् पदाथ और द्रव्यसे विश्व बना हुआ है चैतन्य और जड़ ( सचराचर ) जीव | जैनशास्त्र इन दो पदार्थोको मानता है अर्थात अनन्त पदार्थ और जड़ जीव । निस्सन्देह इन दोनों की स्थिति देश तथा कालमें है
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