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(११०) जो पहुंचे हैं वे समझाये नहीं गये और अशुद्धरूपमें दर्शाये गये हैं। जैनियोंका मुख्यसिद्धान्त “ प्राणीमात्रको कष्ट नहीं देना " है। और इस सिद्धान्तका मूल विश्वके प्रमाणिक ज्ञान पर निर्भर है। जब मनुष्य अपना और विश्वका ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब वह लोगोंके माने हुए विचारोंको माननेके लिये बाध्य नहीं होता है यही नहीं किन्तु वह अपने स्वीकृतमन्तव्योंको समझानेके लिये दूसरे मनुष्योंके वास्ते उक्त ज्ञानका द्वार बन जाता है। ज्यां ज्यों मनुष्य अपना तथा अन्यलोगोंका जितना जितना ज्ञान प्राप्त करता जाता है उतना ही उसमें प्रेमभाव बढ़ता जाता है। " प्राणीमात्रको कष्ट नहीं देना" यह सिद्धान्त प्रेम ही पर निर्धारित है और ज्यों ज्यों मनुष्यमें प्रेम उत्पन्न होता है त्यों त्यों यह सिद्धान्त उसको मन, वचन, और कायासे अन्यलोगोंको कष्ट पहुंचानेसे रोकता है।
जैनी, विकाश ( Development ) के विचार की प्रतिष्ठा करते हैं। और मानते हैं कि सनीव प्राणी अपनी पूर्णदशा तक विकाश कर सकता है । ज्ञान और चरित्रकी पूर्ति अथवा पूर्ण योग्यता इसीमें है कि किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकारसे कष्ट नहीं पहुंचाना, ( तथा किसी प्रकारका अज्ञान नहीं
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