Book Title: Jainetar Drushtie Jain
Author(s): Amarvijay
Publisher: Dahyabhai Dalpatbhai

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Page 381
________________ ( ११६ ) जीवको होती हुई भ्रांति । संसारी देहधारी जीव सामान्यरूपसे अनेक बलप्रवाहों ( अर्थात् शक्तियों) का केन्द्र होता है । ये शक्तियें आत्माका गुण नहीं हैं परन्तु उनके साथ आत्माका अत्यन्त सूक्ष्मरूपसे सम्बन्ध है और वह उनको अपने समझ लेता है और मानता है कि मैं उनका बना हुआ हूं । इस मिथ्याभावमेंसे वह जागृत हो अर्थात् अपने आपको जाने वहां तक उसको इस अवस्थामें पड़ा रहना पड़ता है । बलप्रवाहशक्ति अर्थात् कर्म । हमारे आसपास चारों ओर जो समस्त फेरफार दृष्टिगत होते हैं उनका कारण यही है । यह अन्तर केवल स्थूलशरीरमात्र ही हैं यही नहीं, परन्तु सद्गुण, दुर्गुण आदिका भी प्रभाव पड़ता है । आत्माका स्वभाव कैसा है । आत्मा स्वभाविकतया दैवी है और शुद्धदशामें समानभांतिसे ज्ञानवान् वीर्यवान् तथा चारित्रवान् है । पापी आत्माके समान जगत् में कुछ नहीं है जो मनुष्य पाप करता है तो अपने में 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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