Book Title: Jainetar Drushtie Jain
Author(s): Amarvijay
Publisher: Dahyabhai Dalpatbhai

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Page 385
________________ ( १२० ) देहमुक्त हुए उपरान्त जीवन । शरीररहित आकृतिमें अन्तिमजीवन भी होता है । इस स्थितिके पीछे पहिलेकी भांति मनुष्यको जन्म मरण ऐसा नहीं होता । भूतकाल के विषय में यह विचार होता है कि ऐसा कोई समय नहीं था जब कि यह आत्मा शरीररहित आकृतिमें रहा हो। साथ ही यह भी निर्णय नहीं है कि शारीरिक जीवन इस पृथ्वी पर ही रहा हो । जीवनकी ऐसी स्थितियें हैं कि यदि पृथ्वी परके जीवोंसे विशेषसूक्ष्मतरजातके शरीर होते हैं तो उनको साधारण बोलीमें देवशरीर कहते हैं और इस श्रेणीमेंके जीव शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकारके होते हैं ( अर्थात् देव और दैत्य दोनों होते हैं ) तथा अन्यभाषामें स्वर्गनिवासी और नर्कवासी होते हैं । 1 चार प्रकार के जीव । जैनी मानते हैं कि जीव ४ प्रकारके ही होते हैं अर्थात् मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक (दैत्य ) और देव ( देवता ). तिर्यञ्चमें केवल, वनस्पति ही नहीं परन्तु मनुष्ययोनिके अतिरिक्त अन्य सब योनिये यथा पक्षी, मछली, पशु इत्यादि सबका समावेश होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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