Book Title: Jainetar Drushtie Jain
Author(s): Amarvijay
Publisher: Dahyabhai Dalpatbhai

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Page 390
________________ (१२५) हो. यया क्रोध, भय, लोभ आदि द्वारा और उसमें यह गुण भी होना चाहिये कि उस पर चाहे कुछ भी किया जाय परन्तु क्रोध न आवे, किन्तु सबको क्षमा करे विरोधी चाहे कितना ही दुष्ट क्यों न हो। इसके उपरान्त अन्य लक्षण भी श्रीजिनेश्वरके बतलाये हैं. मैंने इस निबन्धके प्रारम्भमें कहा था कि सब उपदेशोंका सार इस महावाक्यमें है कि “ अहिंसा परमो धर्मः " अर्थात् 'किसीको कष्ट नहीं देना ' यही सबसे बड़ा धर्म कर समाप्तम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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