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( १७४ )
विधिर्ब्रह्मलोकेशशम्भूस्वयम्भूचतुर्व मुख्याभिधानां विधानम् । ध्रुवोऽथो य ऊचे जगत्सर्ग हेतु:
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥ ७ ॥
भावार्थ - ब्रह्मा ( १ ) लोकेश ( २ ) शंभू ( ३ ) स्वयंभू ( ४ ) चतुर्मुख ( १ ) आदि नामोने धारण करनार अने जगत्ना भव्यप्राणिओने मोक्षमार्गनी रचना करवामां हेतुरूप ध्रुवपणे थतो एवो ते एकज जिनेन्द्र परमात्मा अमारा कल्याणने माटे थाओ ॥ ७ ॥
न शूलं न चापं न चक्रादि हस्ते
न हास्यं न लास्यं न गीतादि यस्य । न नेत्रे न गात्रे न वक्त्रे विकारः
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥ ८ ॥
भावार्थ — जेमना हाथमां नथी तो त्रिशूल, धनुष्, चक्रादिक अने जे नथी करतो हास्य नाट्य गीतादिक, तेमज नथी तो जेमना नेत्र, शरीर अने मुख उपर विकार एवो ते एकज जिनेन्द्र परमात्मा अमारा कल्याण माटे थाओ ॥ ८ ॥
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