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(९६) मत जबसे प्रचलित हुआ है । जबसे संसारमें सृष्टिका आरम्भ हुआ तबसे यही इस्का सत्य उत्तर है ।
जिनकी सभ्यता आधुनिक है वे जो चाहें सो कहें परंतु मुझे तो ( जिसे अपौरुषेय वेद माननेमें किसी प्रकारका असंतोष और अनङ्गीकार नहीं है यही नहीं, परंतु सर्वथा तृप्ति, विश्वास, और चेतःप्रसत्ति है ) इस्में किसी प्रकारका उन नहीं है कि जैनदर्शन वेदान्तादिदर्शनोंसे भी पूर्वका है। तबही तो भगवान् वेदव्यासमहर्षि ब्रह्मसूत्रोंमें कहते हैं:नैकस्मिन्न संभवात् । सज्जनों ! जब वेदव्यासके ब्रह्मसूत्रप्रणयनके समय पर जैनमत था तब तो उसके खण्डनार्थ उद्योग किया गया । यदि वह पूर्वमें नहीं था तो वह खण्डन कैसा और किस्का ? सज्जनों ! समय अल्प है और कहना बहुत है इससे छोड़ दिया जाता है, नहीं तो बात यह है कि-वेदोंमें अनेकान्त वादका मूल मिलता है। सज्जनों ! मैं आपको वेदान्तादि दर्शनशास्त्रोंका और जैनादिदर्शनोंका कौन मूल है यह कह कर सुनाताहूँ। उच्चश्रेणीके बुद्धिमान् लोगोंके मानसनिगूढ विचारही दर्शन हैं । जैसे-अजातवाद, विवर्तवाद, दृष्टिसृष्टिवाद, परिणामवाद, आरम्भवाद, शून्यवाद, इत्यादि दार्श
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