________________
समस्त शक्तियों का उद्भव निर्विकल्पता में ही होता है। जागृत अवस्था में सुषुप्तिवत् होने पर निर्विकल्प होने पर चिन्मयता, शान्ति, विवेक, प्रसन्नता, ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य, सामर्थ्य आदि दिव्य गुणों की अभिव्यक्ति, अनुभूति होती है। यदि कोई एक मुहूर्त इस अवस्था में रह जाये, तो वीतरागता या कैवल्य की उपलब्धि हो जाती है। इन्द्रिय, मन, देह आदि से असंग होने पर ही चिन्मय स्वभाव की, स्वानुभव की, अविनाशी तत्त्व की, निज दर्शन की अनुभूति होती है। यही सच्चा दर्शन गुण है। कामना-त्याग से निर्विकल्पता
सब प्रकार के चिन्तन, कामना व चाह रहित होते ही निर्विकल्प स्थिति स्वतः होती है तथा किसी न किसी प्रकार की चाह से ही संकल्प एवं चिंतन की उत्पत्ति होती है अर्थात् निर्विकल्पता भंग होती है। निर्विकल्प स्थिति में ही विश्रान्ति का अनुभव होता है। विश्रांति में ही शान्ति, शक्ति, सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है। शान्त चित्त में ही विवेक की जागृति तथा सत्य की जिज्ञासा होती है, त्याग का सामर्थ्य आता है और प्रवृत्ति करने की शक्ति आती है। अतः जितनी-जितनी निर्विकल्पता गहन होती जाती है अर्थात् दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता जाता है, वैसे-वैसे ज्ञान बढ़ता जाता है। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है, वैसे- वैसे राग-द्वेष-मोह आदि दोषों में कमी आती जाती है। निर्विकल्पता का रस निराकुल होता है, निज के चिन्मय स्वरूप का होता है- सच्चा वास्तविक सुख होता है, यह विषय-सुख से भिन्न-विलक्षण होता है। विषय सुख की प्रतीति तो इन्द्रिय व मन के उत्तेजित होने पर, सक्रिय होने पर होती है। उसमें आकुलता, जड़ता, पराधीनता रहती ही है। जबकि निर्विकल्पता का सुख निराकुल, निर्विकार, स्वाधीन एवं चिन्मय होता है।
जब तक व्यक्ति कामना अपूर्ति जनित दुःख को दूर करने के लिए वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि अपने से भिन्न पदार्थों का आश्रय लेता है, तब तक वह पराधीनता, जड़ता, नीरसता आदि दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। जो व्यक्ति कामना अपूर्ति के दुःख का कारण कामना उत्पत्ति को मानता है, वह कामना रहित अर्थात् निर्विकल्प हो जाता है। उसे ही शान्ति का रस मिलता है, जो वास्तविक सुख है। यही नहीं कामना पूर्ति के समय जो सुख होता है वह भी उस समय कामना के न रहने से, कामना का अभाव होने पर चित्त के शान्त होने से, निर्विकल्प होने से
जीव-अजीव तत्त्व
[5]