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और प्रतिकूलता से दु:खी न होना अर्थात् अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों में समभाव से रहना। यही निर्विकल्पता है। आशय यह है कि जहाँ समभाव हैसमता है, वहाँ ही निर्विकल्पता है। समता और निर्विकल्पता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ निर्विकल्पता है वहाँ ही दर्शन है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जहाँ समता (समभाव) है, वहाँ ही दर्शन है। अतः जैसे-जैसे विकल्प घटते जाते हैं और समता या निर्विकल्पता पुष्ट होती जाती है-बढ़ती जाती है वैसे-वैसे दर्शन गुण प्रकट होता जाता है। दर्शन गुण का प्रकटीकरण स्व-संवदेन रूप में होता है। अतः जैसे-जैसे दर्शन गुण का विकास या प्रकटीकरण होता जाता है, वैसे-वैसे स्व-संवेदन (आत्मानुभव-स्वानुभव गुण) की स्पष्टतासूक्ष्मता प्रकट होती जाती है। चेतना का विकास होता जाता है। ___ दुःख किसी को भी पसंद नहीं है, परन्तु सुख के भोगी को न चाहते हुए भी दु:ख भोगना ही पड़ता है, क्योंकि विषय-कषाययुक्त भोगों के सुखों के साथ पराधीनता, जड़ता, अभाव, भय, चिंता, खिन्नता, शक्तिहीनता, वियोग, प्रतिकूलता, आकुलता आदि दुःख सदैव जुड़े रहते हैं। सुख में जीवन बुद्धि होने पर सुख की आशा, सुख की दासता, सुख के प्रलोभन में आबद्ध प्राणी प्रथम तो अपने दुःखों का कारण अपने को नहीं मानकर अन्य वस्तु-व्यक्ति- परिस्थिति को मानता है और भोग्य वस्तुओं का आश्रय लेकर परिस्थिति को बदलकर इन दुःखों को दूर करना चाहता है, परन्तु आज तक ऐसा किसी के लिए भी संभव नहीं हुआ। द्वितीय बात यह है कि विवेक या तटस्थ विचार से वह इस सत्य को भी जान भी लेता है कि इन दुःखों का कारण मैं स्वयं हूँ, मेरी सुखभोग की इच्छाएँ हैं, फिर भी वह इस सत्य की उपेक्षा करता है। वह अपनी सुख की दासता को नहीं छोड़ना चाहता है, क्योंकि उसकी यह मान्यता होती है कि यह विषय सुख ही जीवन है। यह सुख नहीं है तो जीवन का कोई अर्थ नहीं है। यह मान्यता इतनी दृढ़ होती है कि वह सत्य को देखते हुए भी अनदेखा कर देता है। उस पर सत्य का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उसके लिए तो सर्वस्व विषय सुख व सुख की सामग्री का संग्रह ही है। क्योंकि उसने विषय-सुख के अतिरिक्त अन्य सुख का, निज स्वरूप के निराकुल सुख का कभी अनुभव किया ही नहीं है। यद्यपि सुख सदैव निराकुलता-निर्विकल्पता की अवस्था में ही मिलता है, परन्तु उसका ध्यान उस ओर नहीं जाता है और उस निर्विकल्पता से मिले सुख को भी कामना पूर्ति से मानता है, जो घोर मिथ्यात्व है। सुख निराकुलता में, निश्चिंतता में, निर्विकल्पता में स्वाधीनता में है, इस तथ्य पर वह विचार ही नहीं करता है।
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जैनतत्त्व सार