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१३ तन्त्र-साधना और जैन जीवनदृष्टि प्रमाण है कि जैन साधना केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं है वरन् उसमें लोकहित या लोककल्याण की प्रवृत्ति भी पायी जाती है।
यह सुनिश्चित तथ्य है कि जैनधर्म में तान्त्रिक साधना को जो स्वीकृति मिली उसका मूलभूत प्रयोजन लोककल्याण/संघकल्याण ही था। जैनाचार्यों ने न तो कभी अपने वैयक्तिक क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए षट्कर्मों की तान्त्रिक साधना की, न ऐसी तांत्रिक साधना को कोई स्वीकृति ही दी। जैनग्रन्थों में षट्कर्मों की तान्त्रिक साधना की जो अनुशंसा है वह मात्र लोकल्याण के लिए ही है। जैनधर्म में संघ सर्वोच्च है और संघ के कल्याण के लिए जो भी किया जाता है वह विहित माना जाता है। चाहे उसे अपवाद के रूप में ही क्यों न स्वीकार किया हो। जैन परम्परा यह मानती है कि स्तम्भन आदि की तांत्रिक साधनाएँ मूलतः पाप हैं, आत्मा के बन्धन एवं पतन का कारण हैं। उनके इस दोष का निराकरण केवल तब ही सम्भव है, जब ये वैयक्तिक क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिये नहीं, अपितु जैनशासन की प्रभावना और धर्मसंघ के कल्याण के लिए की जायें।
जैन तंत्र के दार्शनिक आधार
जैन तत्त्व दर्शन के अनुसार जीव अनादिकाल से कर्मों के आवरण के कारण संसार में परिभ्रमण कर रहा है। कर्म के कारण ही उसमें वासनाएँ और कषायें जन्म लेती रहती हैं और वे ही इसे बंधन में डालती हैं। जैनदर्शन में कर्म ही पाश है और कर्म युक्त जीव ही पशु है। जीव को कर्म संस्कारों या कर्म आवरण से पूर्णतः मुक्त करना-यही विमुक्ति या मोक्ष है जो जैन साधना का लक्ष्य है। जैनदर्शन में 'कर्म' जडशक्ति है और जीव आध्यात्मिक शक्ति है। आध्यात्मिक शक्ति, जिसे शिव भी कहा गया है, का जड़शक्ति के पाश से मुक्त होना- यही विमुक्ति है। जड़शक्ति या भौतिक पक्ष के द्वारा जीव की विवेकात्मक आध्यात्मिक शक्ति का आवरण-यही बन्धन है और यही संसार है। जैन साधना में कर्मशक्ति या जड़शक्ति का चेतनशक्ति या विवेकशक्ति पर अधिकार होना- यही आस्रव और बन्धन है और जीवशक्ति को जड़शक्ति के प्रभाव से प्रभावित नहीं होने देना और उसके आवरण को समाप्त कर देना-यही संवर और निर्जरा की प्रक्रिया है, जो उसकी साधना का मूल आधार है और जिनसे अन्त में मुक्ति की प्राप्ति होती है। वस्तुतः जैन तत्त्वमीमांसा चित्रशक्ति और जड़शक्ति अथवा विवेक और वासना के सम्बन्धों की कहानी ही कहती है।
ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से तंत्र को अनुभव पर आधारित दर्शन कहा जाता
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