Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 14
________________ मिथ्यात्व अधि० १ २. मंगल प्रतिज्ञा ३. सुदपरिचिदाणुभूया, सव्वस्स वि कामभोगबंध कहा । एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥ स० सा० । ४ तु०ज्ञा० सा० । १५.२ श्रुत परिचितानुभूता, सर्वस्यापि कामभोगबन्धकथा । एकत्वस्योपलम्भ:, केवलं न सुलभो विभक्तस्य ॥ काम भोग व बन्ध की कथा तो इस लोक में सबकी सुनी हुई है, परिचित है और अनुभव में आयी हुई है। परन्तु निज स्वरूप में एक तथा अन्य सर्व पदार्थों से पृथक् ऐसे आत्म-तत्त्व की कथा ही यहाँ सुलभ नहीं है । ४ एक गम्भीर पहेली ४. तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पण्णो सविहवेण । जदि दाज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्वं ॥ -स० सा० । ५ तमेकत्वविभक्तं दर्शयेहमात्मनः स्वविभवेन । यदि दर्शयेयं प्रमाणं, स्खलेयं छलं न गृहीतव्यं ॥ उस एकत्व तथा विभक्तस्वरूप पूर्वोक्त आत्म-तत्व को मैं अपने निज वैभव या अनुभव से दर्शाऊंगा। उसे सुनकर प्रमाण करना । तथा कहने में कहीं कुछ भूल जाऊँ तो छल ग्रहण न करना । ( क्योंकि उस अनन्त को पूरा कहने में कौन समर्थ है ? ) ३. एक गम्भीर पहेली ५. सब्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला । अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउ कामा ॥ आचा० । २. ३.७ Jain Education International तु० आ० अनु० । २ सर्वे प्राणिनः प्रियायुषः, सुखास्वादाः दुःखप्रतिकूलाः । अप्रियवधाः प्रियजीविनः, जीवितुकामाः ॥ मिथ्यात्व अधि० १ ५ यह कैसी भ्रान्ति सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है। सभी सुख चाहते हैं तथा दुःख से घबराते हैं। सभी को वध अप्रिय है और जीवन प्रिय । सभी जीना चाहते हैं । ( परन्तु ) ६. हा ! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं । भीमे भवतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि ॥ मरण समा० । ५९० For Private & Personal Use Only हा ! यथा मोहितमतिना, सुगति-मार्गमजानता । भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयङ्करे ॥ तु०बा० अ० । २४ हा ! मोक्षमार्ग अर्थात् धर्म को नहीं जानता हुआ, यह मोहित - afa जीव अनादिकाल से इस भयंकर तथा भीम भव-वन में भटक रहा है। ७. सो णत्थि इहोगासो, लोए बालग्गकोडिमित्तोऽवि । जम्मणमरणाबाहा, अणेगसो जत्य ण य पत्ता ॥ मरण समा० । ५९४ प्र० सा० । ६४ तु०बा० अ० । २६ सः नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि । जन्ममरणाबाधा, अनेकशो यत्र न च प्राप्ता ॥ इस लोक में बाल के अग्रभाग जितना भी कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ मैंने जन्म-मरण आदि अनेक बाधाएँ न उठायी हों। ४. यह कैसी भ्रान्ति ८. जेसि विसयेसु रदी, तेसि दुक्खं वियाण सब्भावं । जइ तं ण हि सब्भावं, वावारो णत्थि विसयत्थं ॥ तु० = अध्या० सा० । १८.६७ येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम् । यदि तन्न हि स्वभावो, व्यापारो नास्ति विषयार्थम् ॥ जिन जीवों की विषयों में रति होती है, दुःख ही उनका स्वभाव है, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो वे विषयभोग के प्रति व्यापार ही क्यों करते ? www.jainelibrary.org

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