Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 16
________________ मिथ्यात्व अधि०१ दैत्यराज मिथ्यात्व मिथ्यात्वं विदन् जीवो, विपरीतदर्शनो भवति । न च धर्म रोचते हि, मधुरं रसं यथा ज्वरितः ॥ मिथ्यात्व या अज्ञाननामक कर्म का अनुभव करनेवाला जीव ( स्वभाव से ही) विपरीत श्रद्धानी होता है। जिस प्रकार ज्वरयुक्त मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता, उसी प्रकार उसे कल्याणकर धर्म भी नहीं रुचता है। १५. सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि, य तह पुणो य फासे दि । धम्म भोगणिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणि मित्तं ।। स० सा० । २७५ तु० - अध्या० सा० । १२.४ श्रद्धाति च प्रत्येति च रोचयति, च तथा पुनश्च स्पृशति । धर्म भोगनिमित्तं, न तु स कर्मक्षयनिमित्तं ।। (और यदि कदाचित् ) वह धर्म की श्रद्धा, रुचि या प्रतीति करे भी और उसका कुछ स्पर्श करे भी, तो (तत्त्वज्ञान के अभाव के कारण) उसके लिए वह केवल भोग-निमित्तक ही होता है, कर्म-क्षय-निमित्तक नहीं। वह सदा मनुष्यादिरूप देहाध्यासस्थ व्यवहार में मूढ़ बना रहता है। १६. हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अस्थि वा णत्थि वा पुणो॥ उत्तरा० । ५.६ हस्तागता इमे कामाः, कालिता ये अनागताः। को जानाति परं लोकं, अस्ति वा नास्ति वा पुनः॥ उसकी विषयासक्त बुद्धि के अनुसार वर्तमान के काम-भोग तो हस्तगत है और भूत न भविष्यत् के अत्यन्त परोक्ष । परलोक किसने देखा है? कौन जानता है कि वह है भी या नहीं? मिथ्यात्व अधि०१ हाथ लगे शूल १७. इमं च मे अत्थि इमं च ण त्थि, इमं च मे किच्चं इमं अकिच्चं । तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कह पमाए । उत्तरा० । १४.१५ इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम् । तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमायेत् ॥ 'यह वस्तु तो मेरे पास है और यह नहीं है। यह काम तो मैंने कर लिया है और यह अभी करना शेष है।' इस प्रकार के विकल्पों से लालायित उसको काल हर लेता है। कौन कैसे प्रमाद करे ? ९. लेने गये फूल, हाथ लगे शूल १८. भोगामिस दोसविसण्णे, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थो। बाले य मंदिए मूढे, बज्झइ मच्छ्यिा व खेलम्मि ॥ उत्तरा०। ८.५ तु०प० प्र० । टी० । २.५७ भोगामिषदोषविषष्णः हितनिःश्रेयसबुद्धित्यक्तार्थः । बालश्च मन्दकः मूढः, बध्यते मक्षिका इव श्लेष्मणि॥ भोगरूपी दोष में लिप्त व आसक्त होने के कारण, हित व निःश्रेयस (मोक्ष) की बुद्धि का त्याग कर देनेवाला, आलसी, मूर्ख व मिथ्यादृष्टि ज्यों-ज्यों संसार से छूटने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों कफ में पड़ी मक्खी की भाँति अधिकाधिक फंसता जाता है। ____ Jan Education internath-दे० गा०1८४ For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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