Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 75
________________ द्रव्याधिकार १२ १२६ पुद्गल द्रव्य २९३. जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं। तं देही देहत्थो, सदेहमित्तं पभासयदि ॥ पं० का०। ३३ तु० = राय पएस० सुत्त । १८७ यथा पद्मरागरत्नं, क्षिप्त क्षीरे प्रभासयति क्षीरम् । तथा देही देहस्थः, स्वदेहमात्रं प्रभासयति ॥ ( ज्ञानस्वरूप की दृष्टि से यद्यपि आत्मा भी सर्वगत कहा जा सकता है, परन्तु ) जिस प्रकार पद्मरागमणि दूध के वर्तन में डाल देने पर उसमें स्थित ही सारे दूध को प्रकाशित करती है, उसके बाह्य क्षेत्र को नहीं; उसी प्रकार यह देहस्थ जीवात्मा भी इस शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता हुआ देह प्रमाण ही प्रतिभासित होता है, उससे अधिक नहीं। (देह में रहते हुए भी यह इससे पृथक् एक स्वतंत्र पदार्थ है।) ३. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) ( पुद्गल जैन-दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ वही है, जो कि सांख्य-दर्शन में तन्मात्रा व पंचमहाभूत का। यह दो प्रकार का होता हैपरमाणु व स्कन्ध। परमाणुओं के पारस्परिक संघात से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। और उनके विभाग से वे पुनः परमाणु का रूप धर लेते हैं। इस प्रकार नित्य पूरण व गलन करते रहने के कारण 'पुद्गल' नाम अन्वर्थक है। रूप रस गन्ध स्पर्श युक्त होने के कारण यह इन्द्रियग्राह्य है और इसलिए रूपी है। शब्द, अन्धकार, आतप, उद्योत, पृथिवी आदि चतुर्भूत, यह स्थूल शारीर, मन, वाणी, रागद्वेषादि अभ्यन्तर भाव ये सब पुद्गल के ही कार्य माने गये है।) २९४. भेदसंघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलना त्मिका क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गल शब्दोऽन्वर्थः ।। रा० वा०। ५.१.२६ तु० = उत्तरा । ३६.११ व्याधिकार १२ पुद्गल द्रव्य परस्पर में मिलकर स्कन्धों या भूतों को उत्पन्न करते है। और पुनः गलकर परमाणु बन जाते हैं। इस प्रकार नित्य ही पूरण गलनरूप स्वाभाविक क्रिया करते रहने से इस भौतिक द्रव्य की 'पुद्गल' संज्ञा अन्वर्थक है। २९५. खन्धा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य। परमाणुणो य बोद्धव्वा, रूविणो य चउविहा॥ उत्तरा०।३६.१० तु० = पं०का०७४ स्कन्धाश्य स्कन्धदेशाइच, तत्प्रदेशास्तथैव च। परमाणवश्च बोद्धव्याः, रूपिणश्च चतुर्विधः॥ रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल चार प्रकार का है--स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश व परमाणु। २९६. खंध सयलसमत्थं, तस्स दु अद्धं भणंति देसो ति। अद्धंद्धं च पदेसो. परमाणु चेव अविभागी॥ पं०का०1७५ स्कन्धः सकलसमस्तस्तस्य, त्वधं भणन्ति देश इति । अद्धिं च प्रदेशः, यरमाणुश्चैवाविभागी॥ पृथिवी आदि स्थूल पदार्थ स्कन्ध कहलाते हैं। उसके आधे को देश तथा उसके भी आधे भाग को प्रदेश कहते हैं। जिसका पुनः भेद होना किसी प्रकार भी सम्भव न हो वह परमाणु कहलाता है। (अति स्थूल, स्थूल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म के भेद से स्कन्ध अनेक प्रकार २९७. सईधयार - उज्जोय, पभा - छायातवेहिया। वण्णगंधरसफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं। नव तत्त्व प्रकरण । ११ तु० त०मू०। ५.२३-२४ शब्दान्धकारोद्योत-प्रभाच्छायातपाधिकाः। वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शाः, पुद्गलानां तु लक्षणम् । १. परमाणु के पारस्परिक संघात से स्कन्ध बनने की प्रक्रिया के लिए दे० गा० ३४९-३५१ १.दे.गा०७९-८० २. दे.गा.३४९-३५२ Jan Education international For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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