Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 82
________________ तत्त्वाधिकार १३ १४० बन्ध तत्त्व (पुण्य क्षीण हो जाने पर) शीघ्र ही वह नरक आदि गतियों के दुःखों को प्राप्त हो जाता है। [परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुण्य सर्वत्र व सर्वदा इसी प्रकार तिरस्कार के योग्य है:] ३२८. वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहि। छायात वठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं । मो० पा०।२५ वरं व्रततपोभिः स्वर्गः, मा दुक्खं भवतु नरके इतरैः। छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः । पाप-कर्मों के द्वारा नरक आदिक के दुःख भोगने की बजाय तो व्रत तप आदि के सम्यक् अनुष्ठान से स्वर्ग प्राप्त करना ही अच्छा है। घाम में बैठ कर प्रतीक्षा करने वाले की अपेक्षा छाया में बैठ कर प्रतीक्षा करने वाले की स्थिति में बड़ा अन्तर है। ( इसके अतिरिक्त इस प्रकार का पुण्य परम्परा रूप से मोक्ष का कारण भी हो जाता है।) ६. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) ३२९. एएहि पंचहि असंवरेहि, रयमादिणित्तु अणुसमयं । चउविह गति पेरंतं, अणुपरियटति संसारं ॥ प्र. व्या० । १.५ अन्तिम गा०, तु० = ध०१५।३४ । गा० १८ एतेः तंचभिरसंवरः, रजमाचित्याऽनुसमयम् । चतुविधगतिपर्यन्त-मनुपरिवर्तन्ते संसारम् ॥ हिसा असत्य आदि पाँच प्रवान असंबर या आस्रवद्वार हैं। इनसे प्रति समय अनुरंजित रहने के कारण जीव नित्य ही कर्म-रज का संचय करके चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। ३३०. स्नेहाभ्यक्ततनोरंगं, रेणुनाश्लिष्यते यथा। रागद्वेषानुविद्धस्य, कर्मबन्धस्तथा मतः ।। अध्या० सा०। १८.११२ तु० -- स० सा० । २३७-२४१ तत्त्वाधिकार १३ १४१ निर्जरा तत्त्व जिस प्रकार शरीर पर तेल मल कर व्यायाम करने वाला व्यक्ति रज-रेणुओं से लिप्त होता है, उसी प्रकार जिस व्यक्ति का चित्त राग से अनुविद्ध है, उसी को कर्मों का बन्ध होता है। राग-द्वेष विहीन केवल क्रिया मात्र से नहीं। ३३१. रत्तो बंधदि कम्म, मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। एसो बंधसमासो, जीवाणं जाण णिच्छयदो॥ प्र० सा०। १७९ तु० = स्थानांग। २.९६ रवतो बध्नाति कर्म, मुच्यते कर्माभिः रागरहितात्मा। एष बन्धसामासो, जीवानां जानीहि निश्चयतः॥ रागी जीव ही कर्मों को बांधता है, और राग-रहित उनसे मुक्त होता है। परमार्थतः संसारी जीवों के लिए राग ही एक मात्र बन्ध का कारण व बन्धस्वरूप है। ७. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) ३३२. तवसा उनिज्जरा इह, निज्जरणं खवणनासमेगछा। कम्माभावापायणमिह, निज्जरमो जिणा विति ।। सावय० पण्णति। ८२ तु० - भ० आ० । १८४७-१८४८ तपसा तु निर्जरा इह, निर्जरणं क्षपणं नाश एकार्थाः । कर्माभावापादानमिह, निर्जरा जिना ब्रुवते ॥ तप के प्रभाव से कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरण, क्षपण, नाश, कर्मों के अभाव की प्राप्ति ये सब एकार्थवाची हैं। ३३३. तवसा चेवण मोक्खो, संवरहीणस्स होइ जिणवयणे । ण हु सोते पविस्संते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ।। भ० आ०। १८५४ x (अ) ज्ञानी कर्म करता हुआ भी अवर्ता है। दे० गा० १४७ (आ) शानी विषय-वन करता हुआ भी असेवक है। दे० गा० १२२ (३) प्रमादी सदा हिंसक है, अप्रमादी नहीं। दे० गा० १६७ १. पानी के कर्म निर्जरा के कारण है। दे० गा० १३४ २. राग द्वेष ही दो महापाप हैं। दे० गा० ११८ १.३० गा० ४०-१२ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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