Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

Previous | Next

Page 83
________________ तत्त्वाधिकार १३ मोक्ष तत्त्व तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने । न हि स्रोतसि प्रविशन्ति, कृस्नं परिशुष्यति तडागम् ॥ जिस प्रकार तालाब में जल का प्रवेश होता रहने पर, जल निकास का द्वार खोल देने से भी वह सुखता नहीं है, उसी प्रकार संवरहीन अज्ञानी को केवल तप मात्र से मोक्ष नहीं होता। ३३४. जहा महातलागस्स, सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिंचिणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ।। ३३५. एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा णिज्जरिज्जई। उत्तरा० । ३०.५-६ तु० = पं० का०।१४४ यथा महातडागस्य सन्निरुद्धे जलागमे। उत्सिंचनेन, क्रमेण शोषणा भवेत् ॥ एवं तु संयतस्यापि, पापकर्म निरास्रवे। भवकोटिसंचितं कर्म, तपसा निर्जीयते ॥ जिस प्रकार किसी बड़े भारी तालाब में जलागमन के द्वार को रोक कर उसका जल निकाल देने पर वह सूर्य ताप से शीघ्र ही सूख जाता है। उसी प्रकार संयमी साधु पाप-कर्मों के द्वार को अर्थात् राग-द्वेष को रोक कर तपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। --[अज्ञानी जितने कर्म करोड़ों भवों में खपाता है, ज्ञानी विगुप्ति रूप संवर-युक्त होकर उतने कर्म उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है।'] ८. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) ३३६. सेणावतिमि निहते, जहा सेणा पणस्सती। एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए। दशाश्रुत०। ५.१२ तु० = त० सू० । १०.१-२ १. राग देष ही दो महापाप हैं । दे० गा० ११८, २. दे० गा० २०६ तत्त्वाधिकार १३ १४३ - मोक्ष तत्त्व सेनापतौ निहते, यथा सेना प्रणश्यति। एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥ जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना नष्ट हो जाती है या भाग जाती है, उसी प्रकार राग-द्वेष के कारणभूत मोह-कर्म के क्षय हो जाने पर शेष सब कर्म-संस्कारों का क्षय स्वतः होता जाता है। ३३७. लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के । गइपुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु ।। वि० आ० मा०। ३१४१-३१४२ . तु० = त० सू०। १०.६-७ अलाबु च ऐरण्डफलमग्निधूमश्चेषुर्धनुविप्रमुक्तः । गतिः पूर्वप्र योगेणैवं सिद्धानामपि गतिस्तु ॥ जिस प्रकार मिट्टी का लेप धुल जाने पर तूम्बी स्वतः जल के ऊपर आ जाती है, जिस प्रकार एरण्ड का बीज गर्मी के दिनों में चटखकर स्वयं ऊपर की ओर जाता है, जिस प्रकार अग्नि की शिखा तथा धूम का स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन होता है और जिस प्रकार धनुष्य से छुटे हुए बाण का पूर्व प्रयोग के कारण ऊपर की ओर गमन होता है, उसी प्रकार पूर्व प्रयोगवश सिद्धों की भी ऊर्ध्व गति स्वभाव से स्वतः हो जाती है। ३३८. जावद्धम्म दब्वं, तावं गंतूण लोयसिहरम्मि। चेट्ठति सव्वसिद्धा, पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा ॥ ति०प०।९.१६ तु० -- विशे० आ० भा०।३१५९+३१७४-७५ यावद्धर्मो द्रव्यं, तावद् गत्वा लोकशिखरे । तिष्ठन्ति सर्वसिद्धाः, पृथक् पृथक् गतसिक्थमूषकगर्भनिभाः ॥ लोक के शिखर पर जहाँ तक धर्म द्रव्य की सीमा है वहाँ तक जाकर सभी मुक्त जीव पृथक पृथक स्थित हो जाते हैं। उनका आकार १. गमन के हेतुभूत धर्म-द्रव्य की सीमा का उल्लंघन कोई भी द्रव्य नहीं कर सकता और यह लोक प्रमाण है। इसलिए सिद्धात्माओं की पूर्वोक्त खाभाविक ऊर्व गति लोक-शिखर तक ही हो पाती है, उससे आगे नहीं। Jan Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112