Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 109
________________ कायक्लेश-उग्र आसन मांड कर धूप छल-वक्ता के अभिप्राय से विपरीत शीत या वर्षा में निश्चल स्थित शब्दार्थ करना। (४) रहना। (२१२) छेदोपस्थापना-व्रत समिति आदि के कायोत्सर्ग-शरीर को ठूठ या काष्ठ विकल्पों से युक्त व्यवहार चारित्र। वत् सोचकर निश्चल व निष्क्रिय (४१६) हो जाना। (१९९) जम्बूद्वीप-यह पृथिवी-मण्डल। (४०९) कार्मण शरीर-उपरोक्त द्रव्य-कमों का जीव-प्रत्येक देह में स्थित चेतन संचय। (२९८) अमूत्तिक जीवात्मा। (२८९-२९३) काल-द्रव्यों के परिणमन में उदासीन तत्त्व-द्रव्यादि का सारभूत भाव हेतुभूत, अणु-परिमाण, असंख्यात (३०९) तत्व नौ है (२०७) अमूत्तिक द्रव्य-(३७७-३७८) तप-इच्छा का निरोध (२०७) क्षमा-क्रोध का कारण होने पर भी तीर्थकर-तीर्थ अर्थात् संसार सागर का क्रोध न करना। (२६८) किनारा । उसके प्रति प्रवृत्त क्षोभ-राग द्वेष-युक्त परिणाम (११७) होनेवाले महापुरुष तीर्थकर कहगाँ-गुरु के समक्ष अपने दोष बताकर लाते हैं। (४१०) आत्मनिन्दन करना। (२१५) तियंच-वनस्पति व कीट-पतंग आदि गुण-प्रत्येक अवस्था में द्रव्य के साथ से लेकर पशु-पक्षी पर्यन्त सर्व रहने वाले उसके स्थायी अंश। जीव-राशि । (१११) यथा मनुष्य में ज्ञान इच्छा प्रयत्न तेजस शरीर-इस स्थूल देह में कान्ति आदि तथा आम में रूप रस व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाला कोई गन्ध आदि। (३६३) आभ्यन्तर सूक्ष्म शरीर। (२९८) गुणवत-अहिंसा आदि मूल अणुव्रतों त्याग-प्राप्त भोगों के प्रति पीठ दिखा के मूल्य को अनेक-गुणा कर देने कर चलना। (२८२) वाले कुछ नियम। (१८१) दया-परदुःख-कारतरता। (२६२-६३) गुप्ति-मन वचन काय का गोपन। दान-दान देकर खाना ही खाना है। अशुभ योग की निवृत्ति। (२६५) (१९२) दिगम्बर-फेवल नग्न लिंग से मुक्ति गुरु उपासना-गुरु-विनय । (२६०) मानने वाला एक प्रधान जैन ज्ञप्ति-किया-निष्काम कर्म । (१४७) सम्प्रदाय । (४१७) चातुर्याम मार्ग-अहिंसा, सत्य, अचौर्य दिखत-दिशाओं की सीमा का परि व ब्रह्मचर्य इन चार व्रतों का माण करके उससे बाहर व्यापार मार्ग। (४१५) करने का त्याग। (१८२) देव-स्वर्गवासी। (१११) निदान-परमव में सुख की कामना। द्रव्य-गुण-पर्यायवान् । (३६३) उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त । (३६७) निरपेक्ष-सहवर्ती दूसरे धर्म या पक्ष का त्रिकालवर्ती पर्यायों का पिण्ड। लोप करके केवल अपना पक्ष पुष्ट करनेवाला अभिप्राय। द्रव्य छह है-जीव, पुद्गल, धर्म, (३८६) अधर्म, आकाश व काल । (३८७) निजरा-तप द्वारा निर्जरा-तप द्वारा कर्मों का क्षीण द्रव्याथिक नय-पर्याय या विशेष को होना। (३३२) गोण करके केवल अनुगताकार निविचिकित्सा-किसी भी धर्म या सामान्य को ग्रहण करने वाली पदार्थ के प्रति ग्लानि न होना। दृष्टि। (३९७ ) द्रव्येन्द्रिय-देहगत आँख नाक आदि। निश्चय-एकरसात्मक अखण्ड तत्त्व द्वेष-अनिष्ट विषयों के प्रति अरति (२७-२८) । आभ्यन्तर परिणाम भाव (१२८); विशेष दे० । व स्वसंबेदन ज्ञान । (अधि०३) (११८-१२१) नगम नय-द्वैताद्वैत ग्राही दृष्टि । (३८९) धर्म-समता निश्चय धर्म है और व्रत पंचशिक्ष मार्ग-अहिंसा, सत्य, अस्तेय दया दान आदि व्यवहार धर्म है। ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह, ऐसे पांच (२४२) व्रतों का मार्ग (१६३) धर्म द्रव्य-जीव पुद्गल की गति में पण्डित-तत्त्वज्ञ, सम्यग्दृष्टि । (१४४) उदासीन सहकारी, लोकाकाश पण्डितमरण-समाधि या सल्लेखना प्रमाण एक अमूत्तिक द्रव्य। मरण। (१३३) (३०३) परम भाव-पूर्ण-काम, योगनिष्ठ । ध्यान-शरीर को स्थिर करके मन को (३०) किसी विषय के प्रति एकाग्र परमात्मा-जीव की सभी पर्यायों में करना। (२२४-२२७) अनुगत शुद्ध चित्तत्व कारणनय-प्रयोजनवश वस्तु के किसी एक परमात्मा है ( ३४३), और अंश को प्रधान करके देखने व मुक्तात्मा कार्य-परमात्मा है। कहनेवाला अभिप्राय या पक्षविशेष। (३८१) परमेष्ठी-अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय नरक-लोकाकाश का अघोमाग (११२) व साधु ये पांच (१), परमेष्ठी निःकांक्षित्व-निष्कामता। (५३) कहलाते हैं। (२२८) निःशंकित्व-तात्विक निर्भीकता।(५२) परसमय-मिथ्यादृष्टि अज्ञानी। (८३) Jan Education int o nal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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