Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 110
________________ परिग्रह-देहादि अनात्मभूत पदार्थों में प्रमाद-शास्त्रविहित कर्मों के प्रति मूर्छा या इच्छा का भाव । अथवा अपने स्वरूप के प्रति अनु(१७७,४२९) त्साह । (१५४-१५८) परिणमन-मनुष्य की बाल-बद्धादि प्रशम-राग-द्वेषविहीन शान्त परि अवस्थाओं की भांति, द्रव्य में णाम। (७२-७३) पर्यायों का नित्य बदलते रहना। प्रायश्चित्त-अपने दोषों के शोधनार्थ (१२१) पश्चात्तापपूर्वक ग्रहण किया गया परीषह-जय-तितिक्षा । (१३७) दण्ड । (२१४) पर्याय-द्रव्य व गुण के नित्य परिवर्तन- प्रोषध-पर्व के दिन आहार भोग व शील क्रमवर्ती कार्य। मनुष्य की शरीर-संस्कार आदि का त्याग बाल वृद्धादि अवस्थाएँ तथा आम करके धर्म ध्यान में समय बिताना। की कच्ची-पक्की आदि अवस्थाएं बन्ध-राग-दूषक कारण हान बन्ध-राग-द्वेष के कारण होने वाला 'द्रव्य-पर्यायें हैं, और ज्ञान की कर्मसंचय। (३२९-३३१) तरतमताएँ तथा रस की खट्टी बहुश्रुत-शास्त्रज्ञ। (१४०) मीठी आदि अवस्थाएँ गुण-पर्यायें बाल-अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि । (१४४) हैं। (३६३) बालचरण-समताविहीन कोरा कर्मपर्यायाथिक नय-द्रव्य या सामान्यांश काण्ड। (१४२) को छोड़ कर केवल पर्याय या बालश्रुत-तत्त्व विहीन कोरा शास्त्रविशेषांश को ग्रहण करनेवाली ज्ञान । (१४२) दृष्टि। (३९७-३९९) बोधिदुर्लभ-जगत् की दुर्लभ से दुर्लभ पुद्गल-रूप-रसादि-गुणयुक्त तथा पूरण वस्तुओं में भी श्रद्धा व संयमगलन स्वभावी मूत्तिक या भौतिक .युक्त तत्त्वज्ञान दुर्लभतम है। द्रव्य । (२९४-३००) (११२-११४) प्रतिक्रमण-भूतकालीन दोषों का आत्म- ब्रह्मचर्य-आत्मा में रमण निश्चय ब्रह्म लानि के भाव द्वारा शोषन करना। चर्य है (१७३) और स्त्री-त्याग प्रतिष्ठापना समिति-मल-मूत्र का निर्जन व्यवहार ब्रह्मचर्य। (१७५) स्थान में निक्षेपण करना।(१९७) भक्ति-ज्ञानादि गुणों का बहुमान प्रदेश-एक परमाणु परिमाण क्षेत्र। निश्चय भक्ति है। (२५५) और (३०८) जिनेन्द्र भक्ति व्यवहार है। (२५६) प्रमाण-अनेक धर्मात्मक वस्तु को, भय-मय सात होते हैं। (५३) मुख्य गौण किये बिना, युगपत भरतक्षेत्र-जम्बूद्वीप का दक्षिणवर्ती ग्रहण करनेवाला ज्ञान । (३८३) क्षेत्र । (४०९) Jain Education International १९७ भावेन्द्रिय-इन्द्रियगत देखने सुनने आदि युक्ताहार-शुद्ध व परिमित आहार। की शक्ति । (२०२) भाषा-समिति-सोच समझकर स्व-पर योग-मन वचन काय को प्रवृत्त करने हितकारी वचन बोलना (१९४) वाला बाभ्यन्तर प्रयत्न। (१९) भोग-परिभोग परिणाण व्रत-भोगेच्छा रत्नत्रय-मोक्षमार्ग के तीन प्रधान को वश करने के लिए भोग-परि- अंग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व भोग की वस्तुओं का परिमाण सम्यक्चारित्र। (२०) करना। (१८३) रस-परित्याग-नमक मीठा घी आदि मध्यलोक-लोकाकाश का मध्यवर्ती रसों को छोड़ कर नीरस आहार वह भाग जिसमें तिर्यच व मनुष्य करना। (२०७) रहते हैं। (११०) राग-इष्ट विषयों के प्रति रति भाव मनोगुप्ति-रागादि की निवृत्ति। (१९८) (१२८),विशेष दे० (११८-१२१) महाव्रत-अहिंसा आदि का पूर्णदेश लेश्या-कषायानुरंजित प्रवृत्ति। (२३९) पालन । (१६३) लोक-आकाश का मध्यवर्ती वह भाग मार्दव-अष्टविध मद का न होना। जिसमें जीव आदि षट् द्रव्य (२७०) अवस्थित है (३०२)। यह तीन मिथ्यात्व-तत्त्व विषयक विपरीत भागों में विभाजित है-अघो, थद्धान। (१४) मध्य व ऊर्ध्व । (११०) मोक्ष-कों के निःशेष विध्वंस हो जाने वचन गुप्ति-अलीक वचनों की निवृत्ति पर जीव की वासना-शून्य शुद्ध अथवा मौन । (१९८) बुद्ध अवस्था (३३६), पुनः संसार वात्सल्य-मंत्री, प्रमोद, करुणा, मध्य में आवर्तन नहीं होता (३४०) स्थता आदि रूप भाव। (७१) मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व विनय-अभ्युत्थान, अनुगमन, गुरु सम्यग्चारित्र इन तीनों की इच्छानुसार वर्तन। (११६-१८) समुदित एकता । (२२) विभक्त-आत्मा की देहादि से पृथमोह-अनात्मभूत जगत् में स्वामित्व कता। (४) कर्तुत्व व भोक्तृत्व बुद्धि का होना विविक्त देशसेवित्व-एकान्तवास । (२१०) मौन-अनात्मभूत पदार्थों में मन की विषय-इन्द्रियों के भोग्य ।(८) प्रवृत्ति न होना । (२००) वृत्ति परिसंख्यान-इस विधि से मिक्षा पज्ञ-तप रूपी अग्नि में कर्मों का होम। मिलेगी तो लेंगे अन्यथा नहीं, (२६६) ऐसे अटपटे अभिग्रह । (२०९) For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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