Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 111
________________ वकियिक शरीर-अणिमा गरिमा आदि शील व्रत-अहिंसा आदि पाँच मूल विक्रियाओं में समर्थ देवों व नार- व्रतों के रक्षणार्थ धारण किये कीयों का शरीर । (२९८) गये कुछ नियम । (१७९) वैयावृत्य-वृद्ध रोगी व गुरु आदि की शुक्ल ध्यान-ध्यान ध्याता ध्येय की सेवा । (२१९-२२१) त्रिपुटीरहित निर्विकल्प समाधि । वैराग्य-संसार देह भोगों से विरक्तता। (२३१) (१३०) शुद्धोपयोग-सर्व कामनाओं व विकल्पों व्यवहार-भेदोपचार अर्थात् अखण्ड से अतीत केवल ज्ञाता दृष्टा भाव । तत्त्व में गुण-गुणी आदि रूप भेद करना (२७-२८), अभेदोपचार शुद्धोपयोग-वत समिति गुप्ति आदि अर्थात् अनात्मभूत पदार्थों में पालने के भाव। (१११) स्वामित्व कर्तृत्व व भोक्तृत्व रूप शौच-सन्तोषरूपी जल से लोभ रूपी सम्बन्ध स्थापित करना। अथवा मल को धोना। (२७६) बाह्य ज्ञान बाह्य आचार आदि। श्रमण-साधु । (२४९) अत-हिसा अनूत आदि के प्रति श्रावक-त्यागी व विवेकी गृहस्थ । (१७९) विरति भाव। (त० सू० ७.१) श्रुत-शास्त्र तथा शास्त्रज्ञान। (११२) श्वेताम्बर-किसी भी लिंग से मुक्ति शब्द नय-पदार्थ के वाचक शब्द के माननेवाला एक प्रधान जन सम्प्रविषय में तर्क-वितर्क करने वाली दाय । (४२३-४२४) दृष्टि। (३८९) षडावश्यक कर्म-दे० आवश्यक कर्म । शम-मोह क्षोभ विहीन समता परि- सचित्त-सजीव पदार्थ, यथा हरित वन णाम (११७) । वैराग्य (१३१), स्पति, कीट पतंग आदि । (१७०) शल्य-जीव का वह सूक्ष्म कषायला सत्य-तथ्य प्रिय व हितकर बचन। भाव जो कांटे की भांति मन में (१६८) बराबर चुभता रहता है। यह समिति-चलने, बोलने, खाने आदि तीन प्रकार का होता है-माया, दैनिक क्रियाओं के प्रति यत्ना मिथ्या व निदना । (१५९-१६०) चारी प्रवृत्ति । (१५३, १९२) शिक्षाव्रत-श्रावक के कुछ ऐसे नियम सम्यग्ज्ञान-जीवादि नव तत्वों का जिनके द्वारा उसे साधु धर्म की सम्यगवधारण। (२२) शिक्षा मिले, यथा कुछ काल पर्यन्त आत्मा व अनात्मा का विवेक । समता युक्त हो सामायिक करना। (७९) अखण्ड तत्त्व का निर्विकल्प (१८५) ज्ञान (८२) Jain Education International सम्यक् चारित्र-रागद्वेष का परिहार सापेक्ष-प्रयोजनवश किसी एक धर्म को (२२), समता (११६), अशुभ मुख्य (३७८) तथा अन्य को से निवृत्ति (गुप्ति) तथा शुभ में गौण कर देना । (३८६) प्रवृत्ति (समिति) । (१३९) सामायिक-समता भाव (१८७), सर्व सम्यग्दर्शन-जीवादि नव तत्त्वों का सावध कर्मों का त्याग। (१८८) श्रद्धान (२२), अथवा नवतत्त्वों सामायिक संयम-समता-प्रधान निर्विमें अनुगत शुद्धात्मा की श्रद्धा कल्प निश्चय चारित्र । (१८७) रुचि प्रतीति ! (४३) सिद्ध-लोक-शिखर पर विराजित सराग धर्म-व्रत समिति गुप्ति आदि मुक्तात्मा। (१) ___ रूप सविकल्प आचरण । (१५४) स्कन्ध-अणुओं के संघात से निर्मित सल्लेखना-कषाय व देह को सम्यक पदार्थ । (३४९-३५१) प्रकार कृश करते हुए समतापूर्वक स्थितिकरणत्व-कदाचित साधना मार्ग देह का त्याग कर देना । (२३८) से डिग जाने पर पुनः उसी में संग्रह नय-तत्त्व के भेद-प्रभेद रूप व्यष्टि स्थापित होने का प्रयत्न । (६९) सत्ताओं को संग्रह करके एक रूप स्याद्वाद-वाक्य को कथंचित-वाचक देखने वाली दृष्टि (३८९)।। स्यात्-पद-मुद्रित करके बोलने की संयम-पंचव्रत-धारण, पंच-समिति न्यायपूर्ण पद्धति, ताकि अनपेक्षित धमों का लोप होने के बजाय पालन, कषायचतुष्क-निग्रह, पंचे अनुक्त रूप से उनका भी संग्रह न्द्रिय-विजय आदि । (१६२) हो जाय। (४०५-४०६) संबर-संयम द्वारा कर्मों के आगमन स्वभाववाद-वस्तु स्वभाव से ही परिको रोक देना। (३२०) णमन शील है। (३४६) संवेग-धर्म व धर्म-फल के प्रति बहुमान स्वाध्याय-शास्त्राध्ययन सर्वप्रधान तप का भाव। (१३०) है। (१२२-१२३) संसार-जन्म-मरण रूप संसरण (६-७) हिंसा-जीवों का मारना व्यवहार हिसा सागार धर्म-सग्रन्थ अर्थात् गृहस्थ है और राग-द्वेष की उत्पत्ति का धर्म । (२४७) निश्चय हिंसा है। (१६६) For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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