Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म-सार रत्न त्रय संसार चक्र नरक-गति । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। सर्व सेवा संघ प्रकाशन राजघाट, वाराणसी For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक सर्व सेवा संघ प्रकाशन राजघाट, वाराणसी विषय धर्म संस्करण निवेदन प्रथम मुद्रक भार्गव भूषण प्रेस, वाराणसी २३/४-७४ विज्ञान ने दुनिया छोटी बना दी, और वह सब मानवों को नजदीक लाना चाहता है। ऐसी हालत में मानव-समाज संप्रदायों में बंटा रहे, यह कैसे चलेगा? हमें एक-दूसरे को ठीक से समझना होगा। एक-दूसरे का गुणग्रहण करना होगा। ___अतः आज सर्वधर्म-समन्वय की आवश्यकता उत्पन्न हुई है। इसलिए गौण-मुख्य-विवेकपूर्वक धर्मग्रंथों से कुछ वचनों का चयन करना होगा। सार-सार ले लिया जाय, असार छोड़ दिया जाय, जैसे कि हम संतरे के छिलके को छोड़ देते हैं, उसके अन्दर का सार ग्रहण कर लेते हैं। इसी उद्देश्य से मैंने 'गीता' के बारे में अपने विचार 'गीताप्रवचन' के जरिये लोगों के सामने पेश किये थे और 'धम्मपद' की पुनर्रचना की थी। बाद में 'कुरान-सार', 'ख्रिस्त-धर्म-सार', 'ऋग्वेदसार', 'भागवत-धर्म-सार', 'नामघोषा-सार' आदि समाज के सामने प्रस्तुत किये। मैंने बहुत दफा कहा था कि इसी तरह जैन-धर्म का सार बतानेवाली किताब भी निकलनी चाहिए। उस विचार के अनुसार यह किताब श्री जिनेंद्र वर्णीजी ने तैयार की है। बहुत मेहनत इसमें की गयी है। यह आवृत्ति तो सिर्फ विद्वद्जन के लिए ही निकाली जा रही है। यह पहले कोई एक हजार लोगों के पास भेजी जायगी। उनमें जैन लोग भी होंगे, और दूसरे लोग भी होंगे। वे अपने-अपने सुझाव देंगे। फिर उन सबकी एक 'संगीति' बुलायी जायगी। सब इकट्ठा बैठकर इस पर चिन्तन-मनन, चर्चा आदि Title : Jain Dharma Sara. Publisher : Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat, Varanasi. Subject : Jainism For Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके इसमें जो कुछ फरक करना है, वह फरक करके जैन-धर्म के अनुशासन के अनुसार अंतिम रूप देकर ४००-५०० वचनों में 'जैन-धर्म-सार' समाज के सामने रखेंगे। बहुत महत्त्व की बात है यह । एक बहुत बड़ा काम हो जायगा। जैसे हिन्दुओं की 'गीता' है, बौद्धों का 'धम्मपद' है, वैसे ही जन-धर्म का सार सबको मिल जायगा। बरसों तक भूदान के निमित्त भारतभर में मेरी पदयात्रा चली, जिसका एकमात्र उद्देश्य दिलों को जोड़ने का रहा है। बल्कि, मेरी जिन्दगी के कुल काम दिलों को जोड़ने के एकमात्र उद्देश्य से प्रेरित हैं । इस पुस्तक के प्रकाशन में भी वही प्रेरणा है । मैं आशा करता हूँ, परमात्मा की कृपा से वह सफल होगी। समर्पण ब्रह्म-विद्या मन्दिर, पवनार १-१२-७३ Area जिसके आलोक से यह आलोकित है, जिसकी प्रेरणाओं से यह ओतप्रोत है और जिसकी शक्ति से यह लिखा गया है, उसी के कर कमलों में सविनय समर्पित Jan Education Intematonal Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-परिचय "बुद्ध और महावीर भारतीय आकाश के दो उज्ज्वल रत्न हैं। .... "बुद्ध और महावीर दोनों कर्मवीर थे। लेखन-वृत्ति उनमें नहीं थी। वे निर्ग्रन्थ थे। कोई शास्त्र-रचना उन्होंने नहीं की। पर वे जो बोलते जाते थे, उसीमें से शास्त्र बनते जाते थे, उनका बोलना सहज होता था। उनको बिखरी हुई वाणी का संग्रह भी पीछे से लोगों को एकत्र करना पड़ा।" "बुद्ध-वाणी का एक छोटा-सा संग्रह 'धम्मपद' नाम से दो हजार साल पहले हो चुका था, जो बुद्ध समाज में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में भगवद्गीता के समान प्रचलित हो गया है।" ___धम्मपद काल-मान्य हो चुका है । 'महावीर-वाणी' भी हो सकती है, अगर जैन समाज एक विद्वत्परिषद् के जरिये पूरी छानबीन के साथ उनके वचनों का और उनके क्रम का निश्चय करके एक प्रमाणभूत संग्रह लोगों के सामने रखे। मेरा' (विनोबा का) जैन समाज को यह एक विशेष सुझाव है। अगर इस सूचना पर अमल किया गया, तो जैन-विचार के लिए जो पचासों किताबें लिखी जाती हैं, उनसे अधिक उपयोग इसका होगा।" ___"ऐसा अपौरुषेय संग्रह जब होगा तब होगा। पर तब तक पौरुषेय संग्रह व्यक्तिगत प्रयत्न से जो होंगे, वे भी उपयोगी होंगे।" ये हैं भारत-आत्मा सन्त विनोबा के जैनधर्म के प्रति कुछ उद्गार, जो उन्होंने जैनधर्मके सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० वेचरदासजी कृत, 'महावीरवाणी' नामक पुस्तक की प्रस्तावना में व्यक्त किये हैं। _ 'तत्त्वार्थ-मूत्र' निःसन्देह जैन-दर्शन का एक अद्वितीय ग्रन्थ है, परन्तु सूत्रात्मक होने के कारण वह भारत की वर्तमानयुगीन आत्मा को सन्तुष्ट नहीं कर पा रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ बाबा की शुभ भावना For Private & Personal use only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और श्री राधाकृष्णजी बजाज की आग्रहपूर्ण प्रेरणा की पूर्ति के अर्थ एक निदर्शन मात्र छोटा-सा प्रयास है। प्रभु से प्रार्थना है कि वह समय आये जब कि जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों व उपसम्प्रदायों के आचार्य मिलकर बाबा के स्वप्न को साकार करें। प्रस्तुत ग्रन्थ आगमगत एवं आचार्य-प्रणीत ४२९ गाथाओं व श्लोकों का एक संग्रह है, जिसमें संग्रहकर्ता ने कहीं भी अपने शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। यदि विषय को विशद करने के लिए कहीं कोई शब्द- प्रयोग करना पड़ा है, तो वह कोष्ठक या टिप्पणी में दे दिया गया है। विषय व्याख्या की सिद्धि गाथाओं की क्रम-योजना द्वारा की गयी है। जनदर्शन के प्रायः सभी मौलिक अंग व विषय इसमें आ गये हैं। संग्रह में आधी गाथाएँ श्वेताम्बर साहित्य से ली गयी हैं और आधी दिगम्बर साहित्य से। श्वेताम्बर गाथा के सन्दर्भ के सामने तुलनार्थ दिगम्बर गाथा का सन्दर्भ दिया गया है और दिगम्बर गाथा के सामने श्वेताम्बर गाथा का, ताकि पाठक इस बात का अनुमान लगा सके कि प्रायः सभी दार्शनिक व धार्मिक विषयों में दोनों सम्प्रदाय एकमत हैं। जो कुछ थोड़ा-बहुत व्यावहारिक मतभेद है, वह 'आम्नाय' नामक अन्तिम अधिकार में दे दिया गया है। प्रयत्न किया गया है कि गाथाएँ प्राचीन ग्रन्थों से ली जाये और प्राकृत की ही हों, परन्तु विषय के प्रवाह को अटूट रखने के लिए कहींकहीं, जहाँ उपयुक्त गाथाएं उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, वहाँ अर्वाचीन ग्रन्थों से कुछ संस्कृत के श्लोक भी ग्रहण कर लिये गये है। भूमि का 'जन' नाम से भले ही इस दर्शन की आदि रही हो, परन्तु श्रमण संस्कृति के नाम से यह अक्षय व अनाद्यनन्त है। युग-युग में महापुरुष इस भमण्डल के विविध प्रदेशों में अवतार धारण करते आये हैं, और करते रहेंगे। भगवान् महावीर भी उनमें से एक थे। तीर्थ (भवसागर का तीर) प्रवर्तक होने के कारण ये सभी तीर्थंकर कहलाते हैं। देशकाल की आवश्यकतानुसार सभी प्रायः एक ही उपदेश देते हैं। इतना विशेष है कि स्वयं पूर्णकाम होते हुए भी उनमें से कोई आज तक न तो पूर्ण का प्रतिपादन कर सका है और न कर सकेगा। देश तथा काल की आवश्यकता के अनुसार सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से उसके किसी एक-आध अंग को ही प्रधान करके कहते आये हैं और कहते रहेंगे। यदि पूर्ण के सुन्दर दर्शन करने हैं तो सबका संग्रहीत सार समक्ष रखना होगा, जो न होगा हिन्दू, न मुसलमान, न वेदान्त न बौद्ध, न जैन। वह होगा 'सत्य'-केवल सत्य । _ 'जन' नाम से प्रसिद्ध इस दर्शन का तात्त्विक प्रतिपादन भी वास्तव में एक दृष्टिकोण ही है, पूर्ण नहीं। धर्म के नाम पर हिंसाप्रवृत्ति वाले उस युग में भगवान् महावीर ने समष्टितत्त्व की चर्चा में पड़ना अधिक उचित न समझा। इसीसे उनका यह दर्शन व्यष्टिगत सत्ताओं तक सीमित रहा । इसके अन्तर्गत उन्होंने छह जाति के सत्ताभूत द्रव्यों की स्थापना की--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल । 'जीव' शब्द यहाँ केवल देहधारी प्राणी का नहीं बल्कि स्वसंवेद्य उस अन्तर्चेतना का वाचक है जो प्रत्येक देह में अवस्थित है। इसके अतिरिक्त जितना कुछ भी वाह्याभ्यन्तर प्रपंच दिखाई देता है, वह सब 'पुद्गल' कहलाता है। ये दो ही द्रव्य व्यवहार्य होने से प्रधान हैं, शेष इनकी वृत्ति के अदृष्ट हेतु मात्र हैं। For Private & Personal use only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुदित किये बिना उसका दर्शन सम्भव नहीं। सर्वधर्म समभाव की यह परमोज्ज्वल भावना ही जैन दर्शन के विशाल व उदार हृदय की द्योतक है। प्रायः सभी दर्शनों व धर्मों ने यद्यपि यथावकाश किसी न किसी रूप में इस दृष्टि को स्वीकार किया है, परन्तु सांगोपांग सिद्धांत अथवा प्रणाली के रूप में इसे प्रस्तुत करने का श्रेय केवल जैन-दर्शन को ही प्राप्त है, जिसके कारण यह सदा गौरवान्वित होता रहेगा। व्यक्ति सरलता से अपने तात्त्विक जीवन का अध्ययन करके हेयोपादेय का यथार्थ विवेक जागृत कर सके, इस उद्देश्य से नव तत्त्वों के रूप में जीवन का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। जीव और अजीब ये दो मूल तत्त्व व्यक्ति को देहादि पौद्गलिक प्रपंच से भिन्न अन्तर्चतना का दर्शन कराते हैं। आस्रव, पुण्य, पाप तथा बन्ध ये चार तत्व उसके द्वारा नित्य किये जानेवाले बन्धनकारी कर्मों का तथा उनके कारणभूत राग-द्वेषादि का परिचय देते हैं। संवर व निर्जरा तत्त्व उस साधना की ओर निर्देश करते हैं, जिसके द्वारा जीव इन महा शत्रओं को जीतकर 'स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है, जो 'मोक्ष' नामक अन्तिम आनन्दपूर्ण अवस्था का ही द्योतक है। __ जनदर्शन में 'धर्म' शब्द का अर्थ अति-व्यापक एवं वैज्ञानिक है। धर्म स्वभाववाची शब्द है। आत्मा का स्वभाव है मोह क्षोभविहीन समता-परिणाम। यही इसका धर्म है और यही परमार्थ चारित्र । अन्य सर्व विस्तार संस्कारों के नीचे दबे पड़े इसी स्वभाव को हस्तगत करने की साधना के लिए हैं। ज्ञान को परमार्थ की ओर सदा जागृत रखना और शास्त्र-विहित कर्मों के प्रति प्रमाद न करना, इस प्रकार अन्ध-पंग न्याय से ज्ञान व कर्म दोनों से उसकी अभिव्यक्ति सम्भव है--न अकेले ज्ञान से और न अकेले कर्म से ! 'सम्यग्दर्शन' श्रद्धा, बहुमान, रुचि व भक्तिरूप हार्दिक भाव जागृत करके इन्हें सरस बना देता है। और यही है जैन का त्रिमुखी मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । __ यद्यपि हितमार्ग में इतना पर्याप्त है, परन्तु जैनदर्शन की महत्ता इससे बहुत आगे उस 'स्याद्वाद'-दृष्टि में निहित है, जिसके द्वारा यह त्रिलोक व त्रिकालवर्ती सकल दर्शनों व धर्मों को आत्मसात् कर लेता है, जिसकी दृष्टि में स्व-पक्ष पोषणार्थ किसी भी अन्य दर्शन या धर्म का निषेध करना एकान्त मिथ्यात्व नामक महापाप है। तत्त्व अनन्त धर्मात्मक होने से अनेकान्त स्वरूप हैं इसलिए सभी दृष्टियों को For Private & Personal use only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only सन्दर्भ-संकेत भाषा सं० सं० समय ई० ९९३ ई०१६३८ आम्नाय दि० श्वे० संकेत - ई०-ईस्वी सन् २०=शताब्दी, ई० पू०-ईस्वी पूर्व । वि० श=विक्रमशती क्रम संकेत ग्रन्थ का नाम रचयिता अ० गधा० अमितगति धावकाचार आ० अमितगति अध्या० उप० अध्यात्म उपनिषद् उपा० यशोविजय अध्या० सा० अध्यात्म-सार ४ अनगार धर्म अनगार धर्मामृत पं० आशाधर आ० अनु० आत्मानुशासन आ० गुणभद्र आचा आचारांग संग्रहकर्ता देवद्धिगणी आतु०प्र० आतुर प्रत्याख्यान प्रकीर्णक अज्ञात ८ ९ १० आ० परी आ० मी० आवश्यक सूत्र आप्त परीक्षा आप्त मीमांसा आवश्यक सूत्र इष्टोपदेश ईशावास्योपनिषद् उत्तराध्ययन आ० विद्यानन्दि आ० समन्तभद्र संग्रह. देवद्धिगणी आ० पूज्यपाद (वेदान्त का आगम) संग्रह ग्रन्थ ई० ८५० वि० श०५ वि० श०५ के पश्चात् सं० ई० ८०० सं० ई० श०२ प्रा० वि० श०५ सं० ई० श०५ सं० ई०पू० ३००० वेद प्रा० वि० पू० २००-३०० श्वे. ई० उप० १३ उत्तरा० www.janelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचयिता भाषा समय आम्नाय क्रम सकेत उपा० १४ उपा० दश १५ औपपा० सूत्र १६ कपा० संग्रह देवद्धिगणी ग्रन्थ का नाम उपाध्याय उपासक दशांग औपपातिक सूत्र कषाय पाहुडकी जयधवला टीका कार्तिकेयानुप्रेक्षा प्रा० वि० श० ५ प्रा० , श्वे० आ० वीरसेन . कुमार कार्तिकेय प्रा० ई० ८२५ प्रा० ई.१०२५ दि. गाथा १७ का० अ० गा० १९ गो०० २० गो० जी० २१ गो० जी० जी०प्र० आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती प्रा० ई० श०११पूर्वार्ध दि. आ० केशववर्णी सं० ई०१३६० २२ ज्ञा० २३ ज्ञा० सा० २४ चा०प० २५ ज०प० २६ त अनु० २७ त० सू० २८ ति०५० गोमट्टसार कर्मकाण्ड गोमट्टसार जीव काण्ड गोमट्टसार की। जीवप्रबोधिनी टीका ज्ञानार्णव. ज्ञानसार .. चारित्र पाहुड़ जंबुद्दीव पण्णति तत्त्वानुशासन तत्त्वार्थ-सूत्र तिल्लोय पण्णाति आ० शुभचन्द्र उपा० यशोविजय आ० कुन्दकुन्द आ० पद्मनन्दी आ० नागसेन आ० उमास्वामी आ० यतिवृषभ सं० सं० प्रा० प्रा० सं० सं० प्रा० ई०१०४० ई०१६३८ ई० १५० ई०१०२० ई० २०१२ ई० २०० ई० ५८० For Private & Personal use only क्रम संकेत रचयिता भाषा समय आम्नाय २९ त्रि० सा० २९ द० पा० दश वे ३१ दशाश्रुत दि० आ० नेमिचन्द्र आ० कुन्दकुन्द शय्यम्भव सूरि भद्रबाहू प्रथम प्रा० ई० श०११ पूर्वार्घ दि० प्रा० ई० १५० दि. प्रा० वि० पू० ४०० श्वे० " वि० पू० ३०० दे० ३२ ग्रन्थ का नाम तुलना त्रिलोक सार दर्शन पाहुड़ दश वैकालिक दशाश्रुत स्कन्ध दिगम्बर आम्नाय देखो (दृष्टव्य) देवेन्द्र स्तव प्रकीर्णक द्रव्य संग्रह धवला टीका पुस्तक १ नयचक्र बृहद् नन्दि सूत्र नवतत्त्व प्रकरण नियम सार पद्म पुराण परमात्म प्रकाश पवयणसारोद्धार पंचास्तिकाय प्रा० वि०श०५के पश्चात् श्वे० प्रा० ई० श०११ पूर्वार्ध दि. सं० ई० ८२५ दि० प्रा० प्रा० वि०पू० ५०० देवेन्द्र स्तव ३३ द्र०सं० ३४ घ०१ ३५ न०प० ३६ नन्दि सूत्र ३७ नवतत्त्व प्र० ३८ नि० सा० ३९ पद्म पु० ४० प०प्र० ४१ पवयण सा० ४२ पं०का श्वे० अज्ञात आ० नेमिचन्द्र आ. वीरसेन आ० देवसेन देव वाचक संग्रह ग्रन्थ आ० कुन्दकुन्द आ० रविषेण योगेन्दु देव नेमिचन्द्र सूरि आ० कुन्दकुन्द ई० १५० प्रा० ई० श०६ प्रा० ई० श० १३ प्रा० ई० १५० वे. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा गणना सूची आम्नाय दि० ६६० ई०१००० ई० श०५ वि० श०५ समय ई० वि० श०५ ई० १३२० ई० श०२ भाषा सं० सं० सं० रचयिता आ० अमितगति हरिभद्र सूरि आ० अकलंक संग्रह. देवद्धि गणी आ० कुन्दकुन्द संग्रह देवद्धि गणी आ० मल्लिषण आ० समन्तभद्र संकेत-श्वे० = श्वेताम्बर, दि०=दिगम्बर, सा० सामान्य अधिकार गाथाओं की गणना श्वे, दि. सा. कुल १ मिथ्यात्व अधि० (अविद्या योग) ११ ५ २ १८ २ रत्नत्रय अधि० (विवेक योग) ३ समन्वय अधि० (समन्वययोग) ४ सम्यग्दर्शन अधि० (जागृति योग) ५ सम्यग्ज्ञान अधि० (सांख्य योग) ६ निश्चय चारित्र अधि० (बुद्धि योग) १२ ११ . २३ ७ व्यवहार चारित्र अघि० (कर्म योग) ८ संयम अधि० (विकर्म योग) ९ तप अधि० (राज योग) १० सल्लेखना मरण अधि० (सातत्य योग) ११ धर्म अधि० (मोक्ष संन्यास योग) २० २५ ४५ १२ द्रव्य अघि० (विश्वदर्शन योग) ४ १९ २३ १३ तत्वार्थ अधि० १७ २०३७ १४ सृष्टि व्यवस्था १५ अनेकान्त अघि० (द्वैताद्वैत) १६ एकान्त व नय अधि० (पक्षपात निरसन) १२ ८ २० १७ स्याद्वाद अधि० (सर्वधर्म समभाव) १८ आम्नाय अधि० २०७ २११ ११ ४२९ ग्रन्थ का नाम सामायिक पाठ सावय पण्णत्ति सिद्धि विनिश्चय सूत्र कृतांग सूत्र पाहुड़ स्थानांग स्याद्वादमंजरी स्वयंभू स्तोत्र संकेत सामा पा० Inabot सि० वि० ७६ सू० ० ७७ सू० पा० ७८ स्था० ७९ स्या० मं० ८० स्वयं स्तो० क्रम For Private & Personal use only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रथम खण्ड (धर्म) विषय गाथांक क्रम विषय गार्थाक १. मिथ्यात्व अधिकार ४. सम्यग्दर्शन अधिकार (अविद्या योग) (जागृति योग) १. मंगल सूत्र १ १. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) ४३ २. मंगल प्रतिज्ञा २. सम्यग्दर्शनकी सर्वोपरिप्रधानता४५ ३. एक गम्भीर पहेली ५ ३. श्रद्धा सूत्र ४८ ४. यह कैसी भ्रान्ति ४. सम्यग्दर्शनके लिंग (ज्ञानयोग)५० ५. एक महान् आश्चर्य १० ५. निःशंकित्त्व (अभयत्व) ५२ ६. दुःख हेतु-कर्म ११ ६. निःकाक्षित्त्व (निष्कामता) ५४ ७. अपना शत्रु मित्र स्वयं १२ ७. निविचिकित्सत्त्व ८. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) १४ (अस्पृश्यता निवारण) ५८ ९. लेने गये फूल, हाथ लग शूल १८ ८. अमूदष्टित्त्व (स्वधर्म-निष्ठा) ६० २. रत्नत्रय अधिकार ९. उपगृहनत्व (अनहकारत्त्व) ६१ १०. उपवृंहणत्व (अदंभित्व) ६४ (विवेक योग) ११. स्थितिकरणत्व १. सम्यक् योग--रत्नत्रय १९ (ज्ञानयोगव्यवस्थिति) ६९ २. अभेद रत्नत्रय-आत्मा २१ १२. वात्सल्यत्व (प्रेमयोग) ३. भेद रत्नत्रय २२ १३. प्रशम भाव ३. समन्वय अधिकार १४. आस्तिक्य माव १५. प्रभावना करणत्व (समन्वय योग) १६. भाव संशुद्धि १. निश्चय व्यवहार ज्ञान समन्वय २७ २. निश्चय व्यवहार चारित्र ५. सम्यग्ज्ञान अधिकार समन्वय ३१ (सांख्य योग) ३. ज्ञान कर्म समन्वय ३७ १. सम्यग्ज्ञान सूत्र (अध्यात्म४. परम्परा मुक्ति ४० विवेक) ७९ For Private & Personal use only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ १४ २३ क्रम विषय गाथांक कम विषय गाथांक ६. विनय तप २१६ २. सागार (श्रावक) सूत्र २४८ ७. वयावृत्य तप (सेवा योग) २१९ ३. अनगार सूत्र (संन्यास योग) २४९ ८. स्वाध्याय तप २२२ ४. पूजा-भक्ति सूत्र ९. ध्यान-समाधि सूत्र २२४ ५. गुरु उपासना २६० १०. सल्लेखना मरण अधिकार ६. दया सूत्र ७. दान सूत्र (सातत्य योग) ८. यज्ञ सूत्र १. आदर्श मरण ९. उत्तम क्षमा (अक्रोध) २६७ २. देह त्याग ३. अन्त मति सो गति १०. उत्तम मार्दव (अमानित्व) २७० ११. उत्तम आर्जव (सरलता) २७३ ४. सातत्य योग २४० १२. उत्तम शौच (सन्तोष) २७५ ११. धर्म अधिकार १३. उत्तम त्याग २७९ (मोक्ष संन्यास योग) १४. उत्तम आकिंचन्य १. धर्म सूत्र २४२ क (कस्य स्विद्धनम्) २८३ له اي اعاله ای २६२ WWW क्रम विषय गाांक क्रम विषय गाथांक २. निश्चय ज्ञान २. मोक्षमार्ग में चारित्र (कर्म) (अध्यात्म शासन) का स्थान १४० ३. जगत् मिथ्यात्व दर्शन ८४ ३. चारित्र (कर्म) में ४. व्यवहार जान (शास्त्र ज्ञान) ८६ सम्यक्त्व व ज्ञान का स्थान १४२ ५. निश्चय व्यवहार ज्ञान समन्वय८९ ४. कर्मयोग रहस्य ६. ज्ञानाभिमान निरसन ५. अप्रमाद सूत्र १५१ ७. स्वानुभव ज्ञान ९३ ६. शल्योद्धार १५९ ८. अध्यात्मज्ञान के लिंग ८. आत्म-संयम अधिकार ९. अध्यात्म ज्ञान चिन्तनिका ९८ (विकर्म योग) (क) अनित्य व अशरण संसार १०१ १. संयम सूत्र १६२ (ख) आत्माका एकत्व व अनन्यत्व१०५ २. अनगार (साधु) व्रत सूत्र १६३ (ग) देह-दोष-दर्शन १०८ ३. अहिंसा सूत्र (घ) आस्रव, संवर, निर्जरा भावना ४. सत्य सूत्र १६८ (घ) लोक स्वरूप-चिन्तन ११० ५. अस्तेय (अचौर्य) सूत्र १७० (क) बोधि दुर्लमता ११२ ६. ब्रह्मचर्य सूत्र १७३ (च) धर्म ही सुख ७. परिग्रह-त्याग सूत्र १७६ ६. निश्चय चारित्र अधिकार ८. सागार (श्रावक)बत सूत्र १७९ (बुद्धि योग) ९, सामायिक सूत्र १८७ १. निश्चय चारित्र (समत्व) ११६ १०. समिति सूत्र (यतना सूत्र) १९१ २. महारोग रागद्वेष ११. गप्ति (आत्म गोपन) सूत्र १९८ ३. रागद्वेष का प्रतिकार १२१ १२. मनो मौन २०० ४. कषाय-निग्रह १३. युक्ताहार विहार __२०२ ५. इन्द्रिय-जय १२५ ९. तप व ध्यान अधिकार ६. समता सूत्र (स्थितप्रज्ञता) १२७ ७. वैराग्य सूत्र (संन्यास-योग) १३० (राज योग) १. तपोऽग्नि सूत्र २०३ ८. परीषह-जय (तितिक्षा-सूत्र) १३५ २. अनशन आदि तप २०८ ७. व्यवहार चारित्र अधिकार ३. विविक्त-देश-सेवित्व २१० (कर्मयोग) ४, कायक्लेश तप (हठयोग) २१२ १. व्यवहार चारित्र निर्देश १३९ ५. प्रायश्चित्त तप द्वितीय खण्ड क्रम विषय गाथांक क्रम विषय गाथांक १२. द्रव्याधिकार २. जीव अजीव तत्त्व ३१३ (विश्वदर्शन योग) ३. आस्रव तत्त्व (क्रियमाणकर्म)३१६ ४. संवर तत्त्व (कर्म निरोध) ३२० १. लोक सूत्र २. जीव द्रव्य (आत्मा) ५. पुण्य पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) ३२४ ३. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा व ६. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) ३२९ ____ महाभूत) ७. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) ३३२ ८. मोक्ष तत्त्व (स्वतंत्रता) ३३६ ४. आकाश द्रव्य ९. परमात्म तत्व ३४२ ५. धर्म व अधर्म द्रव्य ६. काल द्रव्य ३०७ १४. सृष्टि-व्यवस्था १३. तत्वार्थ अधिकार १. स्वभाव कारणवाद १. तत्त्व निर्देश ३०९ (सत्कार्यवाद) rmmer २१३ For Private & Personal use only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ षट्खण्डागम । १.१ क्रम विषय गाथांक क्रम विषय गाथांक २. पुद्गल कर्तृत्ववाद ५. समन्वयवाद (नय योजना (आरम्भवाद) ३४९ विधि) ३. कर्म कारणवाद ३५२ १७. स्याद्वाब अधिकार १५. अनेकान्न अधिकार (सर्वधर्म समभाव) (द्वैताद्वैत) १. सर्वधर्म समभाव १. द्रव्य का स्वरूप २. स्याहाद-न्याय ४०२ २. विरोध में अविरोध ३. स्याद्वाद योजना-विधि ४०७ ३. वस्तु की जटिलता १८. आम्नाय अधिकार ४. अनेकान्त निर्देश ३७२ ५. अनेकान्त की सार्वभौमिकता३७४ १. जैनधर्म की शाश्वतता ४०८ ६. सापेक्षतावाद २. देश-कालानुसार जैन धर्म में परिवर्तन १६. एकान्त व नय अधिकार ४१२ ३. दिगम्बर सूत्र ४१६ (पक्षपात निरसन) ४. श्वेताम्बर सूत्र ४१९ १. नयवाद ३७१ २. पक्षपात निरसन ३८२ परिशिष्ट ३. नयवाद की सार्वभौमिकता ३८८ १. गाथानुक्रमणिका पृ०१८५ ४. नय की हेयोपादेयता ३९२ २. सैद्धान्तिक शब्द-कोश पृ० १९२ ३७६ १. मंगल-सूत्र १. णमो अरहताणं । णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं। आवश्यक सूत्र । १.२ नमः अहंदुभ्यः। नमः सिद्धेभ्यः । नमः आचार्येभ्यः। नमः उपाध्यायेभ्यः । नमः लोके सर्वसाधुभ्यः। अर्हन्तों को नमस्कार। सिद्धों को नमस्कार। आचार्यों को नमस्कार। उपाध्यायों को नमस्कार। लोक में सर्वसाधुओं को नमस्कार। ( चत्तारि मंगलं) २. अरहंता मंगलं। सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं । केवलीपण्णतो धम्मो मंगलं । (चत्तारि लोगुत्तमा) अरहता लोगुत्तमा। सिद्धा लोगुत्तमा। For Private & Personal use only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-सूत्र मिथ्यात्व-अधिकार ( अविद्या योग) मिथ्यात्व का ही यह दुर्लध्य प्रभाव है कि व्यक्ति को अपना हित नहीं भाता। दुःख को ही सुख मानते हुए वह न जाने कब से इस भवाटवी में भटक रहा है। ज्यों-ज्यों छूटने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों अधिक अधिक फंसता चला जाता है। साहू लोगुत्तमा। केवलीपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो॥ (चत्तारि सरणं पब्वज्जामि) अरहते सरणं पवज्जामि। सिद्धे सरणं पव्वज्जामि। साहू सरणं पव्वज्जामि । केवलीपण्णतं धम्म सरणं पध्वज्जामि ।। आवश्यक सूत्र । ४.१ तु-भा० पा०। १२२ ( चत्वारि मंगलम् ) अर्हन्तः मंगलम्। सिद्धाः मंगलम्। साधवः मंगलम्। केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः मंगलम् । ( चत्वारि लोकोत्तमाः) अर्हन्तः लोकोत्तमाः । सिद्धाः लोकोत्तमाः। साधवः लोकोत्तमाः। केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः लोकोत्तमः ॥ ( चत्वारि शरणं प्रपद्ये) अहंतः शरणं प्रपद्ये । सिद्धान् शरणं प्रपद्ये। साधन शरणं प्रपद्ये। केवलिप्रज्ञप्तं धर्म शरणं प्रपद्ये ॥ अर्हन्त, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म, ये चारों ही मंगल है तथा लोक में उत्तम है। में इन चारों की शरण को प्राप्त होता हूँ। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व अधि० १ २. मंगल प्रतिज्ञा ३. सुदपरिचिदाणुभूया, सव्वस्स वि कामभोगबंध कहा । एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥ स० सा० । ४ तु०ज्ञा० सा० । १५.२ श्रुत परिचितानुभूता, सर्वस्यापि कामभोगबन्धकथा । एकत्वस्योपलम्भ:, केवलं न सुलभो विभक्तस्य ॥ काम भोग व बन्ध की कथा तो इस लोक में सबकी सुनी हुई है, परिचित है और अनुभव में आयी हुई है। परन्तु निज स्वरूप में एक तथा अन्य सर्व पदार्थों से पृथक् ऐसे आत्म-तत्त्व की कथा ही यहाँ सुलभ नहीं है । ४ एक गम्भीर पहेली ४. तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पण्णो सविहवेण । जदि दाज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्वं ॥ -स० सा० । ५ तमेकत्वविभक्तं दर्शयेहमात्मनः स्वविभवेन । यदि दर्शयेयं प्रमाणं, स्खलेयं छलं न गृहीतव्यं ॥ उस एकत्व तथा विभक्तस्वरूप पूर्वोक्त आत्म-तत्व को मैं अपने निज वैभव या अनुभव से दर्शाऊंगा। उसे सुनकर प्रमाण करना । तथा कहने में कहीं कुछ भूल जाऊँ तो छल ग्रहण न करना । ( क्योंकि उस अनन्त को पूरा कहने में कौन समर्थ है ? ) ३. एक गम्भीर पहेली ५. सब्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला । अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउ कामा ॥ आचा० । २. ३.७ तु० आ० अनु० । २ सर्वे प्राणिनः प्रियायुषः, सुखास्वादाः दुःखप्रतिकूलाः । अप्रियवधाः प्रियजीविनः, जीवितुकामाः ॥ मिथ्यात्व अधि० १ ५ यह कैसी भ्रान्ति सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है। सभी सुख चाहते हैं तथा दुःख से घबराते हैं। सभी को वध अप्रिय है और जीवन प्रिय । सभी जीना चाहते हैं । ( परन्तु ) ६. हा ! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं । भीमे भवतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि ॥ मरण समा० । ५९० हा ! यथा मोहितमतिना, सुगति-मार्गमजानता । भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयङ्करे ॥ तु०बा० अ० । २४ हा ! मोक्षमार्ग अर्थात् धर्म को नहीं जानता हुआ, यह मोहित - afa जीव अनादिकाल से इस भयंकर तथा भीम भव-वन में भटक रहा है। ७. सो णत्थि इहोगासो, लोए बालग्गकोडिमित्तोऽवि । जम्मणमरणाबाहा, अणेगसो जत्य ण य पत्ता ॥ मरण समा० । ५९४ प्र० सा० । ६४ तु०बा० अ० । २६ सः नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि । जन्ममरणाबाधा, अनेकशो यत्र न च प्राप्ता ॥ इस लोक में बाल के अग्रभाग जितना भी कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ मैंने जन्म-मरण आदि अनेक बाधाएँ न उठायी हों। ४. यह कैसी भ्रान्ति ८. जेसि विसयेसु रदी, तेसि दुक्खं वियाण सब्भावं । जइ तं ण हि सब्भावं, वावारो णत्थि विसयत्थं ॥ तु० = अध्या० सा० । १८.६७ येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम् । यदि तन्न हि स्वभावो, व्यापारो नास्ति विषयार्थम् ॥ जिन जीवों की विषयों में रति होती है, दुःख ही उनका स्वभाव है, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो वे विषयभोग के प्रति व्यापार ही क्यों करते ? Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व अधि०१ दैत्यराज मिथ्यात्व यदिदं जगति पृथक् जनाः, कर्मभिलृप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृताहन्ते, नो तस्य मुच्येतास्पृष्टः॥ इस संसार के समस्त प्राणी अपने ही कर्मों के द्वारा दुःखी हो रहे हैं। अन्य कोई भी सुख या दुःख देनेवाला नहीं है। कर्मों का फल भोगे बिना इनसे छुटकारा सम्भव नहीं। मिथ्यात्व अधि०१ . दुःख हेतु-कर्म ९. जह निबदुमुप्पण्णो, कीडो कडुयंपि मण्णए महुरं। तह मुक्खसुहपरुक्खा, संसारदुहं सुहं विति ॥ मरण समा० । ६५५ तु क० पा०।१। गा० १२० । १०२७२ यथा निम्बद्रुमोत्पन्नः, कोटः कटुकमपि मन्यते मधुरम्।। तथा परोक्षमोक्षसुखाः, संसार-दुःखं सुखं ब्रुवते॥ जिस प्रकार नीम के वृक्ष में उत्पन्न कीड़ा उसके कड़वे स्वाद को भी मधुर मानता है, उसी प्रकार मोक्ष गत परमार्थ सुख से अनभिज्ञ प्राणी इस संसार-दुःख को ही सुख कहता है। ५. एक महान् आश्चर्य १०. ( क ) दवम्गिणा जहा रण्णे, डज्झमाणेसु जंतुसु । अण्णे सत्ता पमोयंति, रागद्दोसवसं गया । १०. ( ख ) एवमेव वयं मूढा, कामभोगेसु मुच्छिया । डज्झमाणं ण बुज्झामो, रागद्दोसऽग्गिणा जगं ॥ उत्तरा० । १४.४२-४३ दवाग्निना यथाऽरण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु। अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते, रागद्वेषवशंगताः॥ एवमेव वयं मूढाः, कामभोगेषु मूच्छिताः। दह्यमानं न बुध्यामो, रागद्वेषाग्निना जगत् ॥ जिस प्रकार वन में अग्नि लग जाने पर उसमें जलते हुए जीवों को देखकर दूसरे जीव रागद्वेषवश प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार काम-भोगों में मूर्छित हम सब मूर्ख जन यह नहीं समझते कि ( हम सहित ) यह सारा संसार ही राग-द्वेषरूपी अग्नि में नित्य जला जा रहा है। ६. दुःख-हेतु-कर्म ११. जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहि लुप्पति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जपुठ्ठयं ।। सू० कृ०॥ १.२.१.४ तुलना=रा० वा० । ५.२४.९ ७. अपना शत्रु-मित्र स्वयं १२. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहाधेण, अप्पा मे नंदणं वणं ।। उत्तरा० । २०.३६ आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुधाधेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम् ॥ आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही शाल्मली वृक्ष । आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नन्दन-वन । १३. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पठिय-सुपठिय ।। उत्तरा० । २०.३७ आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च । आत्मा मित्रममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः॥ आत्मा ही अपने सुख व दुःख को सामान्य तथा विशेष रूप से करनेवाला है, और इसलिए वही अपना मित्र अथवा शत्रु है। सुकृत्यों में स्थित वह अपना मित्र है और दुष्कृत्यों में स्थित अपना शत्रु । ८. दैत्यराज मिथ्यात्व ( अविद्या ) १४. मिच्छत वेदंतो जीवो, विवरीयदंसणो होइ। ____ण य धम्म रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो। पं० सं० । १.६ तु०-उत्तरा। ७.२४ Jain Education international For Private & Personal use only ___ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व अधि०१ दैत्यराज मिथ्यात्व मिथ्यात्वं विदन् जीवो, विपरीतदर्शनो भवति । न च धर्म रोचते हि, मधुरं रसं यथा ज्वरितः ॥ मिथ्यात्व या अज्ञाननामक कर्म का अनुभव करनेवाला जीव ( स्वभाव से ही) विपरीत श्रद्धानी होता है। जिस प्रकार ज्वरयुक्त मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता, उसी प्रकार उसे कल्याणकर धर्म भी नहीं रुचता है। १५. सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि, य तह पुणो य फासे दि । धम्म भोगणिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणि मित्तं ।। स० सा० । २७५ तु० - अध्या० सा० । १२.४ श्रद्धाति च प्रत्येति च रोचयति, च तथा पुनश्च स्पृशति । धर्म भोगनिमित्तं, न तु स कर्मक्षयनिमित्तं ।। (और यदि कदाचित् ) वह धर्म की श्रद्धा, रुचि या प्रतीति करे भी और उसका कुछ स्पर्श करे भी, तो (तत्त्वज्ञान के अभाव के कारण) उसके लिए वह केवल भोग-निमित्तक ही होता है, कर्म-क्षय-निमित्तक नहीं। वह सदा मनुष्यादिरूप देहाध्यासस्थ व्यवहार में मूढ़ बना रहता है। १६. हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अस्थि वा णत्थि वा पुणो॥ उत्तरा० । ५.६ हस्तागता इमे कामाः, कालिता ये अनागताः। को जानाति परं लोकं, अस्ति वा नास्ति वा पुनः॥ उसकी विषयासक्त बुद्धि के अनुसार वर्तमान के काम-भोग तो हस्तगत है और भूत न भविष्यत् के अत्यन्त परोक्ष । परलोक किसने देखा है? कौन जानता है कि वह है भी या नहीं? मिथ्यात्व अधि०१ हाथ लगे शूल १७. इमं च मे अत्थि इमं च ण त्थि, इमं च मे किच्चं इमं अकिच्चं । तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कह पमाए । उत्तरा० । १४.१५ इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम् । तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमायेत् ॥ 'यह वस्तु तो मेरे पास है और यह नहीं है। यह काम तो मैंने कर लिया है और यह अभी करना शेष है।' इस प्रकार के विकल्पों से लालायित उसको काल हर लेता है। कौन कैसे प्रमाद करे ? ९. लेने गये फूल, हाथ लगे शूल १८. भोगामिस दोसविसण्णे, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थो। बाले य मंदिए मूढे, बज्झइ मच्छ्यिा व खेलम्मि ॥ उत्तरा०। ८.५ तु०प० प्र० । टी० । २.५७ भोगामिषदोषविषष्णः हितनिःश्रेयसबुद्धित्यक्तार्थः । बालश्च मन्दकः मूढः, बध्यते मक्षिका इव श्लेष्मणि॥ भोगरूपी दोष में लिप्त व आसक्त होने के कारण, हित व निःश्रेयस (मोक्ष) की बुद्धि का त्याग कर देनेवाला, आलसी, मूर्ख व मिथ्यादृष्टि ज्यों-ज्यों संसार से छूटने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों कफ में पड़ी मक्खी की भाँति अधिकाधिक फंसता जाता है। ____ Jan Education internath-दे० गा०1८४ For Private & Personal use only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२: रत्नत्रय अधिकार ( विवेक योग) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ही मोक्ष मार्ग है और यही परमार्थ योग है। परमार्थतः तीनों एक आत्मा ही है, अथवा परस्पर पूरक होने के कारण एक हैं। समझाने मात्र के लिए विश्लेषण पद्धति द्वारा इसे त्रिधा विभक्त रूप में दर्शाया गया है। रत्नत्रय अधि०२ अमेव रत्नत्रय-आत्मा १. सम्यक् योग-रत्नत्रय १९. मणसा वाया कायण वा वि जुत्तस्स वीरियपरिणामो। जीवस्स-प्पणिजोगो, जोगो त्ति जिणेहिं णिहिट्ठो॥ पं० सं० । १.८८ मनसा वचसा कायेन, वापि युक्तस्य वीर्य-परिणामः। जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिननिर्दिष्टः॥ मन वचन व काय से युक्त जीव का वीर्य-परिणाम रूप प्रणियोग, 'योग' कहलाता है। ( अर्थात् जीव का मानसिक, वाचिक व कायिक हर प्रकार का प्रयत्न या पुरुषार्थ योग शब्द का वाच्य है।) २०. चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो, योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः॥ यो० शा० । १.१५ तु०-५० प्र०।२.३ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष--इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ ही प्रधान है। योग उसका कारण है। ज्ञान, श्रद्धान व चारित्ररूप रत्नत्रय उसका स्वरूप है। २. अभेद रत्नत्रय-आत्मा २१. जो चरदि णादि पेच्छदि, अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं । सो चारित्तं गाणं, दंसणमिदि णिच्छिदो होदि ।। पं० का । १६२ तु० =ज्ञा० सा० । १३.३ यश्चरति जानाति पश्यति, आत्मानमात्मनानन्यमयं । स चारित्रं ज्ञानं, दर्शन मिति निश्चितो भवति॥ जो आत्मा अनन्यस्वरूप निजात्मा को, आत्मा के द्वारा ही आचरता है, जानता है तथा देखता है, ( इस हेतु से ) वह आत्मा ही स्वयं ज्ञान, दर्शन व चारित्र सव-कुछ है। For Private & Personal use only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद रत्नत्रय रत्नत्रय अधि०२ ३. भेद-रत्नत्रय २२. जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं तेसिमधिगमो नाणं । रायादीपरिहरणं चरणं, एसो दु मोक्खपहो । स० सा०। १५५ तु०- उत्तरा० । २८.३५ . जीवादिश्रद्धानं, सम्यक्त्वं तेषामधिगमो जानं । रागादिपरिहरणं चरणं, एष तु मोक्षपथः ॥ जीवादि नव तत्त्वों' का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तथा उनका सामान्य-विशेष रूप से अवधारण करना सम्यग्ज्ञान है। राग-द्वेष आदि दोषों का परिहार करना सम्यकचारित्र है और ये तीनों मिलकर समुचित रूप से एक अखंड मोक्षमार्ग है। (ये तीनों वास्तव में पृथक्-पृथक् कुछ नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक होने के कारण एक ही हैं।) २३. जह णाम को वि पुरिसो, रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो, अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥ २४. एवं हि जीवराया, णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो, सो चेव दु मोक्खकामेण ॥ स० सा० । १७-१८ तु० दे० आगे गा० २६ यथानाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति । ततस्तमनुचरति पुनरर्थाथिकः प्रयत्नेन । एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः । अनुचरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन ॥ जिस प्रकार कोई धनार्थी पुरुष राजा को पहले जानता है और उसकी श्रद्धा करता है। तत्पश्चात् वह उसका प्रयत्नपूर्वक अनुसरण करता है। इसी प्रकार मुमुक्षु को जीव या आत्म-तत्त्व जानकर उसकी श्रद्धा करनी चाहिए। तत्पश्चात् उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करना चाहिए। १. दे० अधिकार १५ रत्नत्रय अधि०२ भेद रत्नत्रय २५. ण हि आगमेण सिज्झदि, सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे, असंजदो वा ण णिव्वादि ।। प्र० सा० । २३७ तु० दे० आगे गाथा ३७ न ह्यागमेन सिद्ध्यति, श्रद्धानं यद्यपि नास्त्यर्थेषु । श्रद्दधान् अर्थानसंयतो वा न निर्वाति ॥ तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा, रुचि, प्रेम या भक्ति के बिना केवल शास्त्र-ज्ञान से मुक्ति नहीं होती। और श्रद्धा या भक्ति हो जाने पर भी यदि संयम न पाला जाय अर्थात् प्रवृत्ति व निवृत्तिरूप शास्त्रविहित कर्म न किया जाय तो भी निर्वाण प्राप्त नहीं होता है। २६. इय जीवमजीवे य, सोच्चा सद्दहिऊण य । सव्वनयाणमणुमए, रमेज्जा संजमे मुणी॥ उत्तरा० । ३६.२५० तु०= दे० गा० २३-२४ इति जीवान् अजीवांश्च, श्रुत्वा श्रद्धाय च । सर्वनयानामनुमते, रमते संयमे मुनिः॥ इस प्रकार जीव और अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप को सुनकर तथा परमार्थ तथा व्यवहार आदि सभी दृष्टियों के अनुसार उनकी हृदय से श्रद्धा करके भिक्षु संयम में रमण करे। १. दे० गा०३७-३९ Jan Education International For Private & Personal use only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय अधिकार ( समन्वय योग) जैन-दर्शन समन्वयवादी है, अतः इसकी कथनपद्धति में सदा परमार्थ व व्यवहार दोनों का सन्तुलन रहता है । मोक्ष-मार्ग के दो प्रधान अंग हैं--ज्ञान व चारित्र (कर्म) । ये दोनों ही दो-दो प्रकार के है--निश्चय एवं व्यवहार। दोनों में ही निश्चय तो लक्ष्य या साध्य होता है और व्यवहार अभ्यास द्वारा उसे प्राप्त करने का साधन या कारण है-'हेतु नियत को होई। साधना के द्वारा धीरे-धीरे योगी की चित्त-शुद्धि होती जाती है, जिसके फलस्वरूप वह एक दिन समता की उस भूमि में प्रवेश कर जाता है, जहाँ ज्ञान व चारित्र दोनों एक हो जाते हैं। क्योंकि तत्त्व की शुद्ध अनुभूति ही उस समय ज्ञान कहलाती है और उसमें निश्चय स्थिति ही चारित्र है। यहाँ पहुँचने पर योगी के लिए अमृतकुम्भ भी उपयुक्त व्यवहार विषकुम्भ बनकर रह जाता है। इस विषय में यहाँ इतना विवेक आवश्यक है कि सम्यग्दर्शन युक्त आभ्यन्तर लक्ष्य से सपवेत ही साधनाभूमि के सकल व्यावहारिक विकल्प कार्यकारी होते हैं; उसके बिना वे निरर्थक ही नहीं, बल्कि ज्ञानाभिमान के कारण बनकर प्रायः अनर्थक हो जाते हैं। सम्यक्त्व-यक्त इस सत्य-साधना से योगी यदि कदाचित् उसी भव में मक्त न भी हो सके तो भी वह साधना नष्ट नहीं होती है, और उसे देवों के सुख व मनुष्यों के उत्तम कुलों में जन्म लेने का हेतु वनकर वह उसे परम्परा से तीन-चार भवों में अवश्य मुक्त कर देती है। समन्वय अधि०३ १५ निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय १. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय २७. ववहारेणुवदिस्सइ, णाणिस्स चरित्तं दंसणं गाणं । णवि णाणं ण चरितं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो।। स० सा०। ७ । तु०-उत्तरा० । २८.३ व्यवहारेणुपदिश्यते, ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् । नापि ज्ञानं न चरित्रं, न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः॥ अभेद-रत्नत्रय में स्थित ज्ञानी के चरित्र है, दर्शन है या शान है, यह बात भेदोपचार ( विश्लेषण) सूचक व्यवहार से ही कही जाती है। वास्तव में उस अखण्ड तत्त्व में न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है। वह ज्ञानी तो ज्ञायक मात्र है। प्रश्न : विश्लेषणकारी इस व्यवहार का कथन करने की आवश्यकता ही क्या है ? २८. जह ण वि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उ गाहे उं। तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ स० सा०।८ तु०-अध्या० सा० । १३.७ यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् । तथा व्यवहारेण विना, परमार्थोपदेशनमशक्यम् । उत्तर:-जिस प्रकार म्लेच्छ जनों को म्लेच्छ भाषा के बिना कुछ भी समझाना शक्य नहीं है, उसी प्रकार तत्त्वमूढ साधारण जन को व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना शक्य नहीं है। ( अर्थात् विश्लेषण किये बिना प्राथमिक जनों को अद्वैत तत्त्व का परिचय कराना शक्य नहीं है । ) २९. ववहारोऽभूयत्यो, भूयत्थो देखिदो दू सुद्धणो! भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो । स० सा० । ११ तु०-गा० ८५ ( अध्या० सा० । १८.२८) For Private & Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय अधि० ३ १६ निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय व्यवहारोऽभूतार्थो, भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः।भूतार्थमाश्रितः खलु, सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः॥ विश्लेषणकृत यह भेदोपचारी व्यवहार यद्यपि अभूतार्थ व असत्यार्थ है, और एकमात्र शुद्ध या निश्चय नय ही भूतार्थ है, जिसके आश्रय से जीव वास्तव में सम्यग्दृष्टि होता है। ३०. सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभावदरिसीहि । __ ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ॥ स०सा०।१२ तु० दे० गा० ३३ शुद्धः शुद्धादेशो, ज्ञातव्यः परमभावशिभिः । व्यवहारदेशिता पुनर्ये, त्वपरमे स्थिता भावे॥ ( तदपि व्यवहार प्रयोजनीय है, क्योंकि ) परमभावदर्शियों ने शुद्ध तत्त्व का आदेश चरम-भूमि में स्थित शुद्ध तत्त्वज्ञानी के लिए किया है, और व्यवहार का आदेश अपरमभावरूप निम्न भूमियों में स्थित साधक के लिए किया गया है। २. निश्चय-व्यवहार चारित्र समन्वय ३१. णिच्छ्य सज्झसरूवं, सराय तस्सव साहणं चरणं । तम्हा दो विय कमसो, पढिज्जमाणं पबुज्झेदि ।। न० च० । ३२९ तु०= अध्या० सा० । ११.१४ निश्चयः साध्यस्वरूपः, सरागं तस्यैव साधनं चरणम्। तस्माद् द्वे अपि क्रमशः, पठचमाने प्रबुध्यस्व ॥ समता भाव रूप निश्चय चारित्र' साध्य है, और व्रत-समितिगुप्ति आदि रूप व्यवहार चारित्र' उसे प्राप्त करने का साधन है। क्रम से' अंगीकार किये गये ये दोनों ही व्यक्ति को प्रबुद्ध करने के लिए प्रयोजनीय हैं। समन्वय अधि०३ १७ निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय ३२. जीवोअविश्य व्यवहारमार्ग, न निश्चयं ज्ञातुमुपैति शक्तिम्। प्रभाविकाशेक्षणमन्तरेण, भानूदयं को वदते विवेकी।। आराधना सार । ७.३०. तु०=अध्या० उप० । ३.१३ व्यवहार मार्ग में प्रवेश किये बिना जीव निश्चय मार्ग ( अर्थात् अभेद रत्नत्रयभूत शुद्ध आत्मा ) को जानने या अनुभव करने में समर्थ नहीं हो सकता। प्रभात होने से पहले सूर्य का उदित होना कौन विवेकी कह सकता है ? ३३. अभ्यासे सक्रियापेक्षा, योगिनां चित्तशुद्धये । ज्ञानपाके शमस्यैव, यत्परैरप्यदः स्मृतं ।। अध्या० सा० । १५.२१ तुरत्नकरण्ड श्राव० । ४७-४८ योगी को चित्त-शुद्धि के लिए, अभ्यास-दशा में सक्रिया अर्थात् व्यवहार-चारित्र की अपेक्षा होती है। ज्ञान के परिपक्व हो जाने पर अर्थात् साक्षात् साम्यभाव की उपलब्धि हो जाने पर, प्रशान्त भाव रूप समता की ही अपेक्षा होती है, अन्य किसी क्रिया की नहीं। गीता में भी यही कहा है। (साधक-दशा में भी यदि बह व्यवहार-चारित्र का अवलम्बन नहीं लेता तो उसका अधःपतन निश्चित है।) ३४. कर्मयोग समभ्यस्य, ज्ञानयोगसमाहितः । ध्यानयोग समारुह्य, मुक्तियोगं प्रपद्यते ॥ अध्या० सा० । १५.८३ तु०=द्र० सं० टीका । ३५ । पृ० १४९ योगी कर्मयोग अर्थात् व्यवहार-चारित्र के अभ्यास द्वारा ज्ञानयोग में समाहित चित्त होकर, ध्यानयोग पर आरूढ़ हो, मुक्तियोग को प्राप्त कर लेता है। ( व्यवहार व निश्चय का यह कम यथायोग्य रूप में सर्वत्र जानना चाहिए।) १. दे० गा० ११७, २. दे० गा० १६२ २. पहले साधन पुरुषार्थपूर्वक किया जाता है, फिर उसके फलस्वरूप साध्य खयं प्राप्त होता है। यही क्रम है। १. गी० । ६- ३ 3 २ . दे० गा० १५४ । For Private & Personal use only. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय अधि०३ ज्ञान-कर्म समन्वय ३५. जह वि णिरुद्धं असुहं सुहेण, सुहमवि तहेव सुद्धेण । तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णिय आदं ॥ न० प० । ३४७ तु-दे० गा० ३४ यथैव निरुद्धं अशुभं शुभेन, शुभमपि तथैव शुद्धेन। तस्मादनेन क्रमेण च योगी, ध्यायतु निजात्मानम् ॥ प्रारंभ में जिस प्रकार व्यवहारभूत शुभ प्रवृत्तियों के द्वारा अशुभ संस्कारों का निरोध हो जाता है, उसी प्रकार चित्त-शुद्धि हो जाने पर शुद्धोपयोग रूप समता के द्वारा उन शुभ संस्कारों का भी निरोध हो जाता है। इस क्रम से योगी धीरे-धीरे आरोहण करता हुआ निजात्मा को ध्याने में सफल हो जाता है । ३६. आलोयणादिकिरिया, जं विसकुंभेत्ति सुद्धचरियस्स । भणियमिह समयसारे, तं जाण सुएण अत्थेण ।। न० च० । ३४५ तु०=अध्या० सा० । १५.५० आलोचनादिक्रियाः, यद्विषकुम्भ इति शुद्धचरितस्य । भणितमिह समयसारे, तज्जानीहि श्रुतेणार्थेन ॥ आलोचना, प्रतिक्रमण आदि व्यावहारिक क्रियाओं को समयसार ( ग्रन्थ की गा० ३०६ ) में शुद्ध चारित्रवान् के लिए विषकुम्भ कहा है। उसे राग की अपेक्षा ही विष-कुम्भ कहा है, ऐसा भावार्थ भी शास्त्र से जान लेना चाहिए। ३. ज्ञान-कर्म समन्वय ३७. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ। वि. आ. भा०। ११५९ तु०रा० वा० । १.१.४९ १. व्यावहारिक साधना के उपयुक्त क्रम से भारोहण करता हुआ साधक धीरे-धीरे समता मयी उस उन्नत भूमि को प्राप्त हो जाता है, जहाँ न उसके लिए कुछ त्याज्य रहता है न पाहा । व्यावहारिक क्रियाओं के सर्व विकल्प उसे विधकुम्भवत् प्रतीत होने लगते है। और यही है निश्चय चारित्ररूप साध्य भूमि की साक्षात् प्राप्ति । समन्वय अधि०३ ज्ञान-कर्म समन्वय हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हताऽज्ञानतः क्रिया। पश्यन् पंगुर्दग्धो, धावमानश्चान्धकः॥ क्रिया-विहीन ज्ञान भी नष्ट है और ज्ञान-विहीन क्रिया भी। नगर में आग लगने पर, पंगु तो देखता-देखता जल गया और अन्धा दौड़ता-दौड़ता। ३८. संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ। ___ अंधोय पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ।। वि० आ० भा० । ११६५ तु०रा० वा० । १.१.४९ संयोगसिद्धौ फलं वदन्ति, न खल्वेकचक्रेण रथःप्रयाति । अन्धश्च पंगुश्च वने समेत्य, तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ॥ संयोग सिद्ध हो जाने पर ही फल प्राप्त होते हैं। एक चक्र से कभी रथ नहीं चलता। न दिखने के कारण तो अन्धा और न चलने के कारण पंगु दोनों ही उस समय तक वन से बाहर निकल नहीं पाये, जब तक कि परस्पर मिलकर पंगु अन्धे के कन्धे पर नहीं बैठ गया। पंगु ने मार्ग बताया और अन्धा चला। इस प्रकार दोनों वन से निकलकर नगर में प्रविष्ट हो गये। ( अन्तस्तल विशुद्धात्मा और बहिस्तत्त्व दया आदि धर्म, दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है।) ३९. भावस्य सिद्धयसिद्धिभ्यां, यच्चाकिञ्चित्करी क्रिया। ज्ञानमेव क्रियायुक्त, राजयोगस्तदिष्यताम् ।। अध्या० उप० । ३.१० तु०= पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय । २१६ भाव-जगत् की साधना में यद्यपि क्रिया को अकिचित्कर कहा गया है, परन्तु वहाँ भी सर्वथा क्रिया न होती हो ऐसा नहीं है, क्योंकि कियागुक्त ज्ञान को ही राजयोग नाम में अभिहित किया जाता है। १. अद्धा या रुचि के विना कोरा ज्ञान अधवा संयम के बिना कोरी अद्धा मोक्ष के हेतु नहीं हो सकते हैं (दे० गा० २५)। २. दे० गा० २४३ । For Private & Personal use only . ३० गा० ३६ व १४७। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन अधिकार (जागृति योग) तत्त्वार्थ दर्शन का ही यह कोई अचिन्त्य प्रभाव है कि व्यक्ति निर्भय एवं निष्काम हो जाता है। उसका मिथ्या अहंकार गल जाता है और उसका निर्मल हृदय प्रशम, वैराग्य, अनुकम्पा एवं वात्सल्य आदि पवित्र भावों से छलक उठता है। समन्वय अधि०३ परम्परा-मुक्ति ४. परम्परा-मुक्ति ४०. विगिच कम्मुणो हेर्छ, जसं संचिणु खंतिए । पाढवं सरोरं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं ॥ ४१. भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं । पुव्वं विसुद्ध सद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ।। ४२. चउरंगं दुल्लहं णच्चा, संजमं पडिवज्जिया। तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए॥ उत्तरा० ॥३॥१३, १९, २० तु० = भ० आ०।११४२-४५ विविग्धि कर्मणो हेतुं, यशः संचिनु क्षान्त्या। पार्थिव शरीरं हित्वा, ऊर्जा प्रकामति विशम् ।। भुक्त्वा मानुष्कान्भोगान्, अप्रतिरूपाण्यथायुषम् । पूर्व विशुद्धसद्धर्मा, केवलं बोधि बुद्धवा ।। चतुरंगं दुर्लभं ज्ञात्वा, संयम प्रतिपद्य । तपसाधूतकांशः, सिद्धो भवति शाश्वतः॥ धर्म-विरोधी कर्मों के हेतु ( मिथ्यात्व, अविरति ) आदि को दूर करके धर्म का आचरण करो और संयमरूपी यश को बढ़ाओ। ऐसा करने से इस पार्थिव शरीर को छोड़कर साधक देवलोक को प्राप्त होता है। ( काल पूर्ण होने पर वहां से चलकर मनुष्य गति में किसी उत्तम कुल में जन्म लेता है।) वहाँ वह मनुष्योचित सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर पूर्वभावित धर्म के प्रभाव से सहज विशुद्ध बोधि को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य-जन्म, धर्म-श्रवण, श्रद्धा व संयम इन चार बातों को उत्तरोत्तर दुर्लभ जानकर वह संयम धारण करता है, तप से कर्मों का क्षय करता है, और इस प्रकार शनैः-शनैः शाश्वत गति को प्राप्त करने में सफल हो जाता है। १. और भी दे० गा० २६५ । For Private & Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन अधि० ४ २२ सम्य० को प्रधानता १. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) ४३. भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं य । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। स० सा०। १३ तु०=उत्तरा० । २८.१७ भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च। आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ।। भूतार्थनय से जाने गये जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध-मोक्ष ये नव तत्व ही सम्यक्त्व हैं। ( आत्मनिष्ठ सम्यग्दृष्टि है और पर्याय-निष्ठ मिथ्या-दृष्टि'।) ४४. जं मोणं तं सम्मं जं सम्म तमिह होइ मोणं ति । निच्छय ओ इयरस्स उ सम्म सम्मत्तहेऊ वि ।। साव० पण्ण० । ६१ यन्मौनं तत्सम्यक् यत्सम्यक् तदिह भवति मौनमिति । निश्चयतः इतरस्य तु सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि । परमार्थतः मौन ही सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व ही मौन है। तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षणवाला व्यवहार सम्यक्त्व इसका हेतु है। २. सम्यग्दर्शन की सर्वोपरि प्रधानता ४५. दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झंति चरण रहिआ, दंसणरहिआ ण सिझंति ।। भक्त० परि०। ६६ सम्य० अधि०४ सम्य० की प्रधानता दर्शनभ्रष्टो भ्रष्टः, भ्रष्टदर्शनस्य नास्ति निर्वाणम् । सिद्धयन्ति चरणरहिता, दर्शनरहिता न सिद्ध्यन्ति ॥ सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति ही वास्तव में भ्रष्ट है, क्योंकि दर्शनभ्रष्ट को तीन काल में भी निर्वाण सम्भव नहीं। चारित्रहीन तो कदाचित् सिद्ध हो भी जाते हैं, परन्तु दर्शनहीन कभी भी सिद्ध नहीं होते। १. ( सम्यवत्वविहीन व्यक्ति का शास्त्रज्ञान निरा शाब्दिक होता है। अर्थज्ञान-शून्य होने के कारण वह आराधना को प्राप्त न करके शास्त्रीय जगत् में ही भ्रमण करता है। इसलिए ऐसा ज्ञान मोक्षमार्ग में अकिचित्कर है।) २. ( आत्मा को स्पर्श किये बिना शास्त्रज्ञान बालश्रुत है और अनेक विध व्यवहार-चारित्र केवल बालचरित्र'।) ३. (भाव-शुद्धि के बिना कठोर तपश्चरण करने पर भी परिश्रम ही ___हाथ लगता है, शुद्धि नहीं।) ४. (चित्त-शुद्धि ही वास्तविक सल्लेखना या समाधि मरण है, तृणमय संस्तर या प्रासुक भूमि नहीं।) ५. (विशुद्धात्मा साध्य है और अहिंसा-दया-दान आदि उसके साधन। दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है। सम्यक्त्व-युक्त होने पर ही ये सब मोक्ष के कारण हैं, अन्यथा तो संसार में रुलाने वाले है।) ४६. सम्मत्तादो णाणं णाणादो सब्वभाव उबलद्धी। उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ।। ४७. सेयासेय विदण्हू उद्धददुस्सील सीलवंतो वि। सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ।। द० पा० । १५-१६ तु०=पिण्ड नियुक्ति । ९१ द० पा०1३ १. नव तत्वों में अनुगत एक जीव या आत्मतत्त्व का दर्शन करना ही, इन्हें भूतार्थ नय से जानना है। क्योंकि ये नी तत्त्व वास्तव में उस आत्मा की ही पर्याय विशेष है, अन्य कुछ नहीं। २. नव तत्वों की व्याख्या के लिए दे० अधि०१३ । ३.देगा०८४ । ४. गव तत्वों में अनुगत वह बात्म-तत्त्व मन वाणी से अगोचर तथा इतना निर्विकल्प है कि मीन के अतिरिक्त उसके दर्शन की अन्य कोई व्याख्या ही सम्भव नहीं है। दे० गा० २९१ । ५. व्यवहार निश्चय का साधन हे-देना० ३१ । ३. दे० गा० २०४%B १.देगा .८५ *.दे० गा०२३७%, २. दे० गा० १४२, ५. दे० गा०२४३-२४५; For Private & Personal use only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सूत्र सम्य० अधि०४ सम्यक्त्वात् ज्ञानं, ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः । उपलब्धपदार्थे पुनः, श्रेयाऽश्रेयो विजानाति ॥ श्रेयाश्रेयवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि । शीलफलेनाभ्युदयं ततः पुन: लभते निर्वाणम् ॥ [ इसका कारण यह है कि ] सम्यक्त्व से ज्ञान उदित होता है और ज्ञान से तत्त्वों की यथार्थ उपलब्धि । तत्त्वोपलब्धि हो जाने पर हिताहित का विवेक होता है, जिससे स्वच्छन्द भी पुण्यवन्त हो जाता है। पुण्य के प्रभाव से देवों व मनुष्यों का सुख तथा उससे यथाकाल निर्वाण की प्राप्ति होती है। सम्य० अधि०४ निःशंकित्व ४. सम्यग्दर्शन के लिंग ( ज्ञानयोग) ५०. निस्संकिय निक्कंखिय, निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उववह थिदीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ।। उत्तरा० । २८.३५; मू० आ० । २०१. (५.४) निःशंकित नि:कांक्षित, निविचिकित्स्यममूढदृष्टिश्च । उपवूहास्थितिकरणे वात्सल्यप्रभावनेऽष्टी॥ सम्यग्दर्शन के ये आठ गुण या अंग है--निःशंकित्त्व, निःकांक्षित्त्व, निविचिकित्सत्व, अमूढदृष्टित्त्व, उपवृहणत्त्व (उपगृहनत्व), स्थितिकरणत्त्व, वात्सल्यत्त्व तथा प्रभावनाकरणत्त्व । ( इन सबके लक्षण आगे क्रम से कहे जानेवाले हैं।) ५१. संवेओ णिव्वेओ, जिंदा गरुहा व उवसमो भत्ती। वच्छल्लं अणुकंपां, गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स ।। स० सा० । १७७ में उद्धृत प्रक्षेपक तु०=उत्तरा० । २.२ संवेगो निवेदो, निन्दा गर्दा च उपशमो भक्तिः । वात्सल्यं अनुकम्पा, अष्ट गुणाः सम्यक्त्वयुक्तस्य । संवेग, निवेद (वैराग्य), अपने दोषों के लिए आत्मनिन्दन व गर्हण, कषायों की मन्दता, गुरु-भक्ति, वात्सल्य, व दया। (पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त ) सम्यग्दृष्टि को ये आठ गुण भी स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं। ३. श्रद्धा-सूत्र ४८. जं सक्कइ तं कीरइ, जं च ण सक्कइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहि भणियं, सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।। द० पा० । २२ यं शक्नोति तं क्रियते, यच्च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्धानम्। केवलिजिनः भणितं, श्रद्धावानस्य सम्यक्त्वम् । यदि समर्थ हो तो संयम तप आदि का पालन करो, और यदि समर्थ न हो तो केवल तत्त्वों की श्रद्धा ही करो, क्योंकि श्रद्धावान् को सम्यक्त्व होता है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। ४९. यत्रैवाहितधी: पुंसः, श्रद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा, चित्तं तत्रैव लीयते ॥ स०२०। ९५ [ कारण यह कि ] जिस विषय में व्यक्ति की बुद्धि स्थित होती है, उसमें ही श्रद्धा उत्पन्न होती है ; अन्यत्र नहीं। और जिस विषय में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, उसीमें चित्त लीन होता है ; अन्यत्र नहीं। ५. निःशंकित्व (अभयत्व) ५२. सम्मादिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिन्भया तेण । सत्तभयविप्पमुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका ।। स० सा० । २२८ तु०-ज्ञा० सा०। १७.८ सम्यग्दृष्टयो जीवा, निश्शंकाः भवन्ति निर्भयास्तेन । सप्तभयविप्रमुक्ता, यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ।। सम्यग्दष्टि जीव निश्शंक होते हैं और इसलिए निर्भय। चूंकि उन्हें सात भय नहीं होते, इसलिए वे निश्शंक होते हैं। १. दे० गा० ४०-४२ For Private & Personal use only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक अधि०४ निःकांक्षित्व ५३. सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगभए, परलोगभए। आदाणभए अकम्हाभए,आजीवभए,मरणभए असिलोगभए। समवायांग । ७.१ तु०=मू० आ० । ५३ सप्त भयस्थानानि प्रज्ञप्तानि, स यथा-इहलोकभय परलोकभय । आदानभय अकस्मात्भय, आजीविकाभय मरणभय अयशलोकभय ।। भयस्थान सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा--इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, आजीविका भय, मरण भय, अपयश भव । (ये सातों भय सम्यग्दृष्टि को नहीं होते हैं।) ६. निःकांक्षित्व ( निष्कामता) ५४. स्वभावलाभात् किमपि, प्राप्तव्यं नावशिष्यते । इत्यात्मैश्वर्य-सम्पन्नो, नि:स्पृहो जायते मुनिः ।। ज्ञान० सा० । १२.१ तु०=नि० सा० । ३८ आत्म-स्वभाव का लाभ हो जाने पर कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रह जाता, इसलिए आत्मारूपी ऐश्वर्य से सम्पन्न मुनि निःस्पृह हो जाता है। ५५. तिविहा य होइ कंखा, इह परलोए तथा कुधम्मे य। तिविहं पि जो ण कुज्जा, सणसुद्धीमुपगदो सो॥ मू० आ० । २४९ (५.६७) तु० - उत्तरा० । १९.९३ त्रिविधा च भवति कांक्षा, इह परलोके तथा कुधर्मे च । त्रिविधमपि यः न कुर्यात्, दर्शनशुद्धिमुपगतः सः॥ कामना तीन प्रकार की होती है--इह-लोक विषयक, परलोक विषयक तथा स्वधर्म को छोड़कर कुधर्म या परधर्म के ग्रहण विषयक' । जो इनमें से किसी भी प्रकार की आकांक्षा या कामना नहीं करता, नह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को प्राप्त हो गया है, ऐसा समझो। ( इसके अतिरिक्त उसे ख्याति-लाभ-प्रतिष्ठा की भी कामना नहीं होती।) १. सम्यग्दृष्टि किसी भी हेतु से अपने धर्म से व्युत नहीं होता। दे० गा०६०। २. दे० गा०६४-६६ । सम्य० अघि०४ निर्विचिकित्सत्व ५६. अधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोरं तपो, यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सत्तपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः, कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्वं फलम् ।। आ० अनु० । १८९ तु. भक्त परि० । १३८ समस्त आगम का अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि तू इन दोनों का फल यहाँ सम्पत्ति व प्रतिष्ठा आदि के रूप में प्राप्त करना चाहता है, तो समझ कि विवेकहीन होकर तू उस तपरूपी वृक्ष का छेद कर रहा है। तब उसके रसीले फल को तू कैसे प्राप्त कर सकेगा? ५७. कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो। उत्तरा० । ३२.९ ___तु-ज्ञा० । १७.१२ कामानुगद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य । यत्कायिक मानसिकं च किंचित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ॥ कामानुगद्धि ही दुःख की जननी है, इसीसे इहलोक में या देवलोक में जितने भी शारीरिक व मानसिक दुःख हैं, वीतरागी उन सबका अन्त कर देते है। अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त हो जाने के कारण उन्हें कामनाजन्य दुःख नहीं रहता।। ७. निविचिकित्सत्व ( अस्पृश्यता-निवारण) ५८. जो ण करेदि जगप्प, चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिन्विदिगिच्छो, सम्माद्दिट्ठी मुणेयव्वा ।। स० मा० । २३१ तु-उत्तरा० । ३२.२१-२५ जो न करोति जगप्स, चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणां। स खलु निविचिकित्सः, सम्यग्दृष्टितिव्यः॥ For Private & Personal use only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सम्य० अधि०४ अमूढ़ दृष्टित्व जो जीव वस्तु के मनोज्ञामनोज्ञ धर्मों में अथवा व्यक्ति के कुल, जाति व सम्प्रदाय आदि रूप विविध धर्मों में ग्लानि नहीं करता, उसे विचिकित्साविहीन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। ५९. एक्कु करे में विण्णि करि, मं करि वण्ण विसेसु । इक्कइँ देवइँ जे वसइ, तिहुयणु एहु असेसु ॥ प० प्र० । २.१०७ तु आचारांग। १.२.३ सूत्र १-३ एकं कुरु मा द्वौ कार्षीः मा कार्षीः वर्णविशेषम्। एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतत् अशेषम् ॥ हे आत्मन् ! तू जाति की अपेक्षा सब जीवों को एक जान । इसलिए राग और द्वेष मत कर। अभेद नय से त्रिलोकवर्ती सकल जीव-राशि शुद्धात्मस्वरूप होने के कारण समान हैं। ( उच्च जाति का गर्व मत कर'।) सम्य० अधि०४ उपगृहनत्व ९. उपगूहनत्व ( अनहंकारत्व ) ६१. णो च्छायएणो वि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च ___ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा, ण यासियावाय वियागरेज्जा सू० कृ० । १४.१९ तुका० अ० । ४१९ नो छादयेनापि च लषयेद्, मानं न सेवेत प्रकाशनं च। न चापि प्राज्ञः परिहासं कुर्यात्, न चाशीर्वादं व्यागृणीयात् ॥ सम्यग्दृष्टि पुरुष न तो सूत्र के अर्थ को छिपाता है, और न स्व-पक्ष पोषणार्थ 'उसका अन्यथा कथन करता है। वह अन्य के गुणों को छिपाता नहीं और न ही अपने गुणों का गर्व करके अपनी महत्ता का बखान करता है। स्वयं को प्रज्ञावन्त जानकर वह अन्य का उपहास नहीं करता और न ही अपना गौरव जताने के लिए किसीको आशीर्वाद देता है। ६२. जो ण य कुम्वदि गव्वं, पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु । उवसमभावे भवदि, अप्पाणं मुणदि क्णिमेत्तं ।। का० अ० । ३१३ तु०=सू० कृ० । १.१३-१५ यः न च कुरुते गर्व, पुत्रकलत्रादिसर्वार्थेषु । उपशमभावे भावयति, आत्मानं जानाति तृणमात्रं ॥ जो सम्यग्दृष्टि पुत्र कलत्रादि किसी का भी गर्व नहीं करता और अपने को तृण के समान मानता है, उसे उपशम-भाव होता है। ६३. विरलो अज्जदि पुण्णं, सम्मदिट्ठी वएहिं संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो, णिदण गरहाहि संजुत्तो। का० अ०। ४८ तु० = उत्तरा० । २९.६-७ विरलः अर्जयति पुण्यं, सम्यग्दृष्टिः वतैः संयुक्तः । उपशमभावेनसहितः, निन्दनगम्यिां संयुक्तः ॥ १. सम्यग्दृष्टि को शान तप आदि का भी मद नहीं होता। देगा. २७०। ८. अमूढदृष्टित्व ( स्व-धर्म-निष्ठा) ६०. मायावुइममेयं तु, मुसाभासा णिरत्थिया । संजममाणो वि अहं, वसामि इरियामि य ।। उत्तरा०। १८.२६ तु०= का० अ०। ४१८ मायोदितमेतत् तु, मषाभाषा निथिका। सयच्छन्नप्यहम्, वसामि ईर्यायां च॥ ( अपने-अपने पक्ष का पोषण करने में रत अनेक मत-मतान्तर लोक में प्रचलित हैं) ये सब मायाचारी हैं और इनकी वाणी मिथ्या व निरर्थक है'। उनके कथन को सुनकर भी मैं भ्रम में नहीं पड़ता। संयम में स्थित रहता हूँ तथा यतनापूर्वक चलता हूँ। १.देगा०२७२। २. विशेष दे० गा०३८१-२८४ । ३. विशेष दे० गा०१५१-१५२ । For Private & Personal use only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य० अधि०४ उपवृंहणत्व सम्य० अघि०४ ३१ स्थितिकरणत्व व्रत, संयम आदि से युक्त कोई विरला सम्यग्दृष्टि जीव ही ऐसे पुण्य का उपार्जन करता है कि उपशम भाव में स्थित रहता हुआ घोटकलि डसमानस्य, तस्याभ्यन्तरे कुथितस्य । सदा अपने दोषों के लिए आत्म-निन्दन व आत्म-गर्हण करता है। बाह्यकरणं कि तस्य, करिष्यति वकनिभुतकरणस्य ॥ बगुले की चेष्टा के समान अन्तरंग में जो कषाय से मलिन है, १०. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) ऐसे साधु की बाह्य क्रिया किस काम की? वह तो घोड़े की लीद ६४. नो सक्कियमिच्छई न पूर्य, नो वि य वंदणगं कुओ पसंसं? के समान है, जो ऊपर से चिकनी और भीतर से दुर्गन्धयुक्त होती है। से संजए सव्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥ ६७. गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू । उत्तरा० । १५.५ तु०=चारित्रसार। १५० वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समोस पुज्जो॥ न सत्कृतमिच्छति न पूजां, नोऽपि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम् ? दशवः । ९.३.११ तुस० सा० । २०१-२०२ सः संयतः सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः॥ गुणैः साधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधूगुणान् मुञ्च असाधून् । जो सत्कार तथा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं करता, नमस्कार विज्ञाय आत्मानमात्मना, यो रागद्वेषयोः समः स पूज्यः ।। तथा वन्दना आदि की भावना नहीं करता, उसके लिए प्रशंसा सुनने गुणों से ही ( मनुष्य ) साधु होता है और दुर्गणों से असाधु । अतः का प्रश्न ही कहाँ ? वह संयत है, सुव्रत है, तपस्वी है, आत्म-गवेषक सद्गणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो। जो आत्मा द्वारा है और वही भिक्षु है। आत्मा को जानकर राग-द्वेष दोनों में सम रहता है, वहीं पूज्य है। ( झूठी प्रशंसा पानेवाला दम्भाचारी नहीं।) ६५. तेसि वि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला । जन्नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जए॥ ६८. तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। सू० ०। १.८.१.२४ तु०=रा० वा० ९.१९.१६ अभितुर पारं गमित्तए, समय गोयम ! मा पमायए ।। उत्तरा०।१०.३४ तु०रा० वा०। ६.२४१; पु०सि० उ०।२७ तेषामपि तपो न शुद्ध, निष्क्रान्ता ये महाकुलाः। यन्नवाऽन्ये विजानन्ति, न इलोकं तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं, कि पुनः तिष्ठसि तीरमागतः । प्रवेदयेत् ।। अभित्वर पारं गन्तुम्, समयं गौतम! मा प्रमादये। उनका तप शुद्ध नहीं है जो इक्ष्वाकु आदि बड़े कुलों में उत्पन्न तू इस विशाल संसार-सागर को तर चुका है। (गोखुर में होकर दीक्षित होने के कारण अभिमान करते हैं और लोक-सम्मान डूबने की भांति ) अब किनारा हाथ आ जाने पर भी (झूठी मानके लिए तप करते हैं। अतएव साधु को ऐसा तप करना चाहिए कि प्रतिष्ठा मात्र के लिए ) क्यों अटक रहा है ? शीघ्र पार हो जा। दूसरों को उसका पता ही न चले, जिसमें इहलोक व परलोक की हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। आशंसा न हो। उसे अपनी प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए। ६६. घोडगलिंडसमाणस्स, तस्स अब्भतरम्मि कुधिदस्स । ११. स्थितिकरणत्व (ज्ञानयोग व्यवस्थिति) बाहिरकरणं कि से, काहिदि वगणिहुदकरणस्स ।। ६९. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं । भ००।१३४७ तु०=उत्तरा। २०.४६ तत्थेव धीरोपडि साहरिज्जा, आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ।। दशवै० चलिका। २.१४ तु०स० सा०।२३४ For Private & Personal use only ___ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य अघि०४ प्रभावनाकरणत्व सम्य० अधि०४ वात्सल्यत्व यत्रैव पश्येत् क्वचित् दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचाऽथवा मानसेन । १३. प्रशम भाव ( चित्त-प्रसाद ) तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेत्, आकीर्णः क्षिप्रमिव खलि नम् ॥ ७२. चत्तारि कसाए तिन्नि गारवे पंचइंदियग्गामे । जिस प्रकार जातिवान् घोड़ा लगाम का संकेत पाते ही विपरीत जिणिउं परीसहसहेऽविय हराहि आराहणपडागं । मार्ग को छोड़कर सीधे मार्ग पर चलने लगता है, उसी प्रकार धैर्यवान् ७३. मित्तसुयबंधवाइसु इट्टाणिठेसु इंदियत्थेसु । साधु जब कभी अपने मन वचन काय को असद् मार्ग पर जाता हुआ देखता है, तो तत्काल ही वह उनको वहाँ से खींचकर सन्मार्ग में रागो वा दोसो वा ईसि मणेणं ण कायब्वो॥ मरण समा०।३१४, ४०७ तु०-मू० आ० । (८०११४-११७) प्रतिष्ठित कर देता है। चतुरः कषायान त्रीणि गौरवानि पंचेन्द्रियग्रामान् । जित्वा परीषहानपि च हराराधनापताकाम् ।। १२. वात्सल्यत्व ( प्रेमयोग) मित्रसुतबान्धवादिषु इष्टानिष्टेष्विन्द्रियार्थेषु । ७०. जो धम्मिएस भत्तो, अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए। रागो वा द्वषो वा ईषदपि मनसा न कर्त्तव्यः॥ पिय वयणं जंपतो, वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ।। क्रोधादि चार कषायों को, रस ऋद्धि व सुख इन तीन गारवों को, पाँचों इन्द्रियों को तथा अनुकूल व प्रतिकूल विघ्नों को व संकटों का० अ०।४२१ यःधामिकेषु भक्तः, अनुचरणं करोति परमश्रद्धया। को जीतकर, साथ ही आराधनारूपी पताका को हाथ में लेकर, मित्र प्रियवचनं जल्पन, वात्सल्यं तस्य पुत्र व बन्धु आदि में तथा इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयों में किंचिन्मात्र भी भव्यस्य । राग-द्वेष करना कर्तव्य नहीं है। जो सम्यग्दृष्टि जीव प्रिय वचन बोलता हुआ अत्यन्त श्रद्धा से धर्मी जनों में प्रमोदपूर्ण भक्ति रखता है, तथा उनके अनुसार आचरण १४. आस्तिक्य भाव करता है, उस भव्य जीव के वात्सल्य गुण कहा गया है। ७४. अर्थोऽयमपरोऽनर्थ, इति निर्धारणं हृदि । ७१. सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । आस्तिक्यं परमं चिह्न, सम्यक्त्वस्य जगुजिनाः ।। अध्या० सा० । १२.५७ तु-पं० घ० । उं० । ४५२ माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।। 'यह अर्थ है और यह अनर्थ है', हृदय में इस प्रकार दृढ़ निर्धारण सामा० पाठ। १ करना, सम्यग्दर्शन का आस्तिक्य नामक परम चिह्न है। सब जीवों में मेरी मैत्री हो, गुणीजनों में प्रमोद हो, दुःखी जीवों के प्रति दया हो और धर्म-विमुख विपरीत वृत्तिवालों में माध्यस्थ १५. प्रभावनाकरणत्व भाव । हे प्रभो ! मेरी आत्मा सदा (प्रेम व वात्सल्य के अंगभूत ) ७५ धम्मकहाकहणेण य, बाहिरजोगेहिं चावि णवज्जेहि। इन चारों भावों को धारण करे। धम्मो पहाविदव्वो, जीवेसु दयाणुकंपाए। मू० आ० । २६४ ( ५.८२) ___ Jan Education inst: गुरु विनय का महत्त्व-दे० गा० २१७ ॥ For Private & Personal use only. ३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य० अधि०४ भाव-संशुद्धि अभ्यन्तरशुद्धेः, बाह्यशुद्धिरपि भवति नियमेन । अभ्यन्तरदोषेण हि, करोति नरः बाह्यान् दोषान् ॥ अभ्यन्तर शुद्धि के होने पर बाह्य शुद्धि नियम से होती है। अभ्यन्तर परिणामों के मलिन होने पर मनुष्य शरीर व वचन से अवश्य ही दोष उत्पन्न करता है। (तात्पर्य यह कि निःशंकित या अभयत्व आदि भावों से युक्त चित्त-शुद्धि का हो जाना ही सम्यग्दर्शन का प्रधान चिह्न है।) . सम्य० अधि०४ - भाव-संशुद्धि धर्मकथाकथनेन च, बाह्ययोगैश्चापि अनवद्यैः। धर्मः प्रभावयितव्यः जीवेषु दयानुकम्पया ॥ धर्मोपदेश के द्वारा, अथवा स्व-परोपकारी शुभ क्रियाओं के द्वारा, अथवा जीवों में दया व अनुकम्पा के द्वारा ( उपलक्षण से प्रेम, दान व सेवा आदि के द्वारा) धर्म की प्रभावना करना कर्तव्य है। १६. भाव-संशुद्धि ७६. मदमाणमायलोह-विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं ।। नि० सा०। ११२ तु= उत्तरा० । २९.३६ मदमानमायलोभविजितभावस्तु भावशुद्धिरिति । परिकथितो भव्यानां, लोकालोकप्रशिभिः ॥ लोकालोकदर्शी सर्वज्ञ भगवान् ने, भव्यों के मद मान माया व लोभविवजित निर्मल भाव को भाव-शुद्धि कहा है। ७७. मनः शुद्धिमविभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये। त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम् ॥ योगशास्त्र । ४.४२ तु० = आ० अनु० । २१३ मन की शुद्धि को प्राप्त किये बिना जो अज्ञ जन मोक्ष के लिए तप करते हैं, वे नाव को छोड़कर महासागर को भुजाओं से तैरने की इच्छा करते है। ( अर्थात् बिना चित्त-शुद्धि के मोक्ष-मार्ग में गमन सम्भव नहीं।) (भाव से विरक्त व्यक्ति जल में कमलबत् अलिप्त रहता है।) ७८. अब्भंतरसोधीए, बाहिर सोधी वि होदि णियमेण । अब्भंतरदोसेण हु, कुदि णरो बाहिरे दोसे ।। भ० आ० । १९१६ तु = पिण्ड नियुक्ति । ५३० ____ Jain Education international१.दे गा .१३२। For Private & Personal use only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानाधिकार ५ निश्चय ज्ञान सम्यग्ज्ञान अधिकार (सांख्य योग) आत्मा के अतिरिक्त देह आदि समस्त जागतिक पदार्थों को अनित्य, असत्य, संयोगज, अशरण व दुःख के हेतु जानकर, वैराग्य व समतायुक्त हो उनका ममत्व त्यागकर, आत्मा व धर्म की शरण को प्राप्त होनेवाला ही सम्यग्ज्ञानी है, अपने-अपने पक्ष का पोषण करने में रत ज्ञानाभिमानी तथाकथित शास्त्रज्ञ या पण्डित नहीं। १. सम्यग्ज्ञान-सूत्र (अध्यात्म विवेक) ७९. संसयविमोहविब्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स । गहणं सम्मण्णाणं, सायारमणेयभेयं तु॥ द्र०सं०। ४२ तु०= दे० अगली गाथा ८० संशयविमोहविभ्रमविजितं आत्मपरस्वरूपस्य। ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं, साकारमनेकभेदं च ॥ आत्मा व अनात्मा' के स्वरूप को संशय, बिमोह, विभ्रमरहित जानना सम्यग्ज्ञान है, जो सविकल्प व साकार रूप होने के कारण अनेक भेदोंवाला होता है। ८०. भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो, विभिन्नाः पुद्गलाः अपि । शून्यः संसर्ग इत्येवं, यः पश्यति स पश्यति ॥ अध्या० सा०। ८.२१ तु०= दे० गा०७९ प्रत्येक आत्मा तथा शरीर मन आदि सभी पुद्गल भी परस्पर एकदूसरे से भिन्न है। देह व जीव का अथवा पिता पुत्रादि का संसर्ग कोई वस्तु नहीं है। जो ऐसा देखता है वही वास्तव में देखता है। २. निश्चय ज्ञान ( अध्यात्म शासन) ८१. जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुळं अणण्णमविसेसं । अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।। स० सा०।१५ तु०- अध्या० सा० । १८.२ यः पश्यति आत्मानं, अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषं । अपदेशसूत्रमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥ जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य व अविशेष देखता है, वह शास्त्र-ज्ञान के रूप में अथवा भाव-ज्ञान के रूप में सकल जिन-शासन को देखता है। १. आत्मा चेतन खभावी व अमूर्तिक है, तथा देह, मन, वाणी, राग-देवादि सर्व विकारी भाव भीर कर्म जड़ खभावी पुद्गल (अनात्मा)है। देगा० २५८-३००। For Private & Personal use only ___www.janelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानाधिकार ५ निश्चय ज्ञान ८२. जो एगं जाणइ, सो सव्वं जाणइ । जो सव्वं जाणइ, सो एगं जाणइ । आचा। ३.४.२ तु०-दे० अगली गा०८३ यः एकं जानाति, सः सर्व जानाति । यः सर्व जानाति, स: एक जानाति ॥ जो एक को जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है । ८३. एको भावः सर्वभावस्वभावः, सर्वेभावाः एकभावस्वभावाः । एकोभावस्तत्त्वतो येन बुद्धः, सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः ।। नय चक्र गद्य । ३-६८ में उद्धृत तु० = दे० पिछली गा० ८२ (द्रव्य के परिवर्तनशील कार्य 'पर्याय' कहलाते हैं।) जिस प्रकार 'मृत्तिका' घट, शराब व रामपात्रादि अपनी विविध पर्यायों या कार्यों के रूप ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं, इसी प्रकार जीव, पुद्गल आदि प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी त्रिकालगत पर्यायों का पिण्ड ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं। जिस प्रकार घट, शराब आदि उत्पन्न ध्वंसी विविध कार्य तत्त्वत: उनमें अनुगत एक मृत्तिकारूप ही है, अन्य कुछ नहीं, उसी प्रकार उत्पन्न ध्वंसी समस्त दृष्ट पर्याय या कार्य भूत पदार्थ तत्त्वत: उनमें अनुगत कोई एक मूल द्रव्यरूप ही है, अन्य कुछ नहीं। जिस प्रकार एक मत्तिका को तत्त्वत: जान लेने पर उसकी समस्त पर्याय या घट, शराब आदि कार्य भी जान लिये जाते हैं, उसी प्रकार किसी भी एक मूलभूत दुव्य को तत्त्वतः जान लेने पर उसकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्याय या कार्य भी जान लिये जाते हैं। ज्ञानाधिकार ५ ३९ व्यवहार ज्ञान ३. जगत्-मिथ्यात्व दर्शन ८४. जे पज्जयेसु णिरदा, जीवा परसमयिग त्ति णिद्दिट्ठा । आदसहावम्मि ट्ठिदा, ते सगस मया मुणेदव्वा । प्र० सा०।९४ तु० अध्या० उप० । २.२६ ये पर्यायेषु निरता जीवाः, परसमयिका इति निर्दिष्टाः। आत्मस्वभावे स्थितास्ते, स्वकसमया मन्तव्याः॥ पर्यायों में रत जीव परसमय' अर्थात् मिथ्यादृष्टि कहे गये है और आत्मस्वभाव में स्थित स्व-समय अर्थात् सम्यग्दृष्टि जानने योग्य हैं। ८५. यथा स्वप्नोऽवबुद्धोऽर्थो, विबुद्धेन न दृश्यते । व्यवहारमतः सर्गो, ज्ञानिना न तथेक्ष्यते ।। अध्या० सा० । १८.२८ तु०=गा० २९ ( स० सा० । ११) जिस प्रकार स्वप्न में देखे गये पदार्थ जागृत व्यक्ति को दिखाई नहीं देते हैं, उसी प्रकार व्यवहार बुद्धि से देखे गये जगत् की इच्छा ज्ञानी को नहीं होती। [व्यवहारनय अभूतार्थ है और निश्चय नय भूतार्थ । निश्चय दृष्टि के आश्रय से ही जीव सम्यग्दृष्टि होता है।'] ४. व्यवहार ज्ञान ( शास्त्रज्ञान) ८६. सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरंमि पडिआवि । जीवोऽवि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओवि संसारे ।। भक्त० परि०।८६ तु०=-सूत्रपाहुड। ३-४ सूची यथा ससूत्रा न नश्यति कचवरे पतिताऽपि । जीवोऽपि तथा ससूत्रो, न नश्यति गतोऽपि संसारे। २. जैन दर्शन अनेक सत्तावादी है। १. दे० गा० ३६१ । ३. दे० गा० ३६४। १. उत्पन्न ध्वंसी कार्य-दे० गा० ३६१। २. मिध्यादृष्टि । ३. जगत् के समस्त पदार्थ उत्पन्न ध्वंसी पर्याय स्वरूप होने के कारण खप्नतुल्य तथा व्यावहारिक हैं । परमार्थ तत्त्व तो इनमें अनुगत हैं। देगा० ३६५। ४. देगा० २१ । For Private & Personal use only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानाधिकार ५ निश्चय व्यवहार समन्वय [परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शास्त्रज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं । उसके उपकार को किसी प्रकार भी भुलाया नहीं जा सकता।] जिस प्रकार डोरा पिरोयी सई कचरे में पड़ जाने पर भी नष्ट नहीं होती, उसी प्रकार शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में रहता हुआ भी नष्ट नहीं होता। ८७. सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ दशवै० । ४.११ तु०-सूत्र० पा०।५-६ श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् । उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्यस्तत् समाचरेत् ॥ शास्त्र सुनने से ही श्रेय व अश्रेय का ज्ञान होता है। सुनकर जब ये दोनों जान लिये जाते हैं, तब ही व्यक्ति अधेय को छोड़कर श्रेय का आचरण करता है। ८८. अध्यात्मशास्त्रहमाद्रिमथितागमोदधेः । भूयांसि गुणरत्नानि, प्राप्यन्ते विबुधैर्न किम् ॥ अध्या० सा० । १.२० अध्यात्म-शास्त्र रूपी मन्दराचल से आगमोदधि का मंथन करने पर पण्डित जन अनेक गुण-रत्नों को आदि लेकर क्या कुछ प्राप्त नहीं कर लेते? ज्ञानाधिकार ५ ज्ञानाभिमान-निरसन सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टाः जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि । आराधनाविरहिताः भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥ सम्यक्त्व-रत्न से भ्रष्ट व्यक्ति केवल शब्दों को ही पढ़ता है। इसलिए अनेकविध शास्त्र व वेद-वेदांग आदि पढ़ लेने पर भी वह उनके अर्थज्ञान से शून्य ही रह जाता है । आराधना से रहित वह शास्त्रीय जगत् में ही भ्रमण करता रहता है, ( और आध्यात्मिक जगत् के दर्शन कर नहीं पाता)। ९०. सुत्तं अत्थनिमेणं, न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती। अत्थगई उण णयवाय-गहणलीणा दुरभिगम्मा ।। ९१. तम्हा अहिगयसुत्तेण, अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं । आयरियधीरहत्था, हंदि महाणं विलंबेन्ति ।। सन्मति तर्क । ३.६४-६५ तु०प० प्र० । २.८४, का० अ०। ४६६ सूत्रमर्थनिमेणं न सूत्रमात्रेणार्थप्रतिपत्तिः। अर्थगतिः पुनः नयवादग्रहणलीना दुरभिगम्या । तस्मादधिगतसूत्रेणार्थसम्पादने यतितव्यम् । आचार्याः धीरहस्ताः, हन्त महाज्ञां विडम्बयन्ति ॥ इसमें सन्देह नहीं कि सूत्र ( शास्त्र ) अर्थ का स्थान है, परन्तु मात्र सत्र से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती। अर्थ का ज्ञान विचारणा व तर्कपूर्ण गहन नयवाद पर अवलम्बित होने के कारण दुर्लभ है। अतः सूत्र का ज्ञाता अर्थ प्राप्त करने का प्रयत्न करे, क्योंकि अकुशल एवं धृष्ट आचार्य ( शास्त्र को पक्ष-पोषण का तथा शास्त्रज्ञान को ख्याति व प्रतिष्ठा का माध्यम बनाकर ) सचमुच धर्म-शासन की विडम्बना करते हैं। ५. निश्चय व्यवहार ज्ञान-समन्वय [यद्यपि शास्त्रज्ञान की महिमा का वर्णन कर दिया, तथापि इस विषय में इतना विवेक रखना आवश्यक है-] ८९. सम्मत्तरयणभट्ठा, जाणता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव ।। तु०-अध्या० उप० । २.४ ६. ज्ञानाभिमान-निरसन ९२. जह जह बहुस्सुओ सम्मओ य, सिस्सगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छओ य समये, तह तह सिद्धतपडिणीओ।। सन्मति तर्क। ३.६६ तु० यो० सा० अ०। ७.४४ ____ Jan Education inte.k० पा०।४ For Private & Personal use only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानाधिकार ५ ४३ अध्यात्मज्ञान के लिंग ज्ञानाधिकार ५ स्वानुभव ज्ञान यथा यथा बहुश्रुतः सम्मतश्च, शिष्यगणसंपरिक्तश्च । अविनिश्चितस्य समये, तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः॥ शाब्दिक जगत् में विचरण करनेवाला वह आचार्य ज्यों-ज्यों बहुथत माना जाता है, और शिष्य-समूह से घिरता जाता है, त्यों-त्यों ( पक्षपात से विषाक्त ज्ञानाभिमान के कारण ) वह सर्वजीवहितैषी सिद्धान्त का शत्रु बनता जाता है। ७. स्वानुभव ज्ञान ९३. अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना । शास्त्रयुक्तिशतेनापि, नैव गम्यं कदाचन ॥ अध्या० उप० । २.२१ तु==तत्त्वानुशासन । १६६-१६७ शास्त्रगत सैकड़ों युक्तियों के द्वारा भी ( मन वाणी से अतीत'). वह परब्रह्मस्वरूप अतीन्द्रिय तत्व, विशुद्ध अनुभव के बिना कभी जाना नहीं जा सकता। ९४. भूतं भान्तमभूतमेव रभसा निभिद्य बन्धं सुधी, यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देव: स्वयं शाश्वतः ।। स० सा० । क० । १२ यदि कोई सबुद्धि जीव भूत वर्तमान व भावी कमों के बन्ध को अपने आत्मा से तत्काल भिन्न करके तथा तज्जनित मिथ्यात्व को बलपूर्वक रोककर अन्तरंग में अभ्यास करे तो स्वानुभवगम्य महिमावाला यह आत्मा व्यक्त, निश्चल, शाश्वत, नित्य, निरंजन तथा स्वयं स्तुति करने योग्य परम देव, यह देखो, यहाँ विराजमान ८. अध्यात्मज्ञान के लिंग ९५. णासीले ण विसीले, न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति बुच्चई ॥ उत्तरा० । ११.५ तु०=० आ० । २६७-२६८ (५.१०५) नाशील: न विशीलो, न स्यादतिलोलुपः। अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥ अशील न हो अर्थात् सुशील हो, बार-बार आचार को बदलनेवाला विशील न हो, रसलोलुप तथा कोधी न हो, सत्यपरायण हो। इन गुणों से व्यक्ति शिक्षाशील कहलाता है। ९६. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि । जेण मेत्ती पभावेज्ज, तं गाणं जिणसासणे ।। मू० आ० । २६८ ( ५.८६ ) तु० = दे० अगली गा० ९७ येन रागाद्विरज्यते येन श्रेयसि रज्यते। येन मैत्री प्रभावयेत् तज्ज्ञानं जिनशासने ॥ जिसके द्वारा व्यक्ति राग से विरक्त हो, जिसके द्वारा वह श्रेयमार्ग में रत हो, जिसके द्वारा सर्व प्राणियों में मंत्री वर्ते, वही जिनमत में ज्ञान कहा गया है। ९७. विषमेऽपि समक्षी यः, स ज्ञानी स च पण्डितः । जीवन्मुक्तः स्थिरं ब्रह्म, तथा चोक्तं परैरपि ॥ अध्या० सा० । १५.४२ तु०-दे० पिछली गा०९६ विषम में भी जो सम देखता है, बही ज्ञानी और बही पण्डित है। वहीं ब्रह्म में स्थित जीवन्मुक्त है। (गीताकार ने भी ऐसा ही कहा है।) १.दे० गा०३७१-३७२ । १. गी०।५-१८ For Private & Personal use only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञानाधिकार ५ ९. अध्यात्मज्ञान - चिन्तनिका ९८. दर्शन विशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वन तिचारोभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिर्आवश्यक परिहाणिर्मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थरत्वस्य ॥ Jain Education Intern १.० दे० गा० १७९ अध्यात्मज्ञान- चिन्तनिका त० सू० । ६.२४ तु ज्ञा० घ० । १.८.१९ सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, अहिंसा आदि व्रतों का तथा उनके रक्षक शीलों का निरतिचार पालन, सतत ज्ञान-ध्यान में लीन रहना, धार्मिक कर्मों में उत्साह व हर्ष, यथाशक्ति त्याग व तप करते रहना, साधु-समाधि अर्थात् अन्त समय समतापूर्वक देह का त्याग करना, गुरुजनों की सेवा, अर्हन्त आचार्य उपाध्याय व शास्त्र की भक्ति, वन्दना, सामायिक, स्तुति, दोषों का प्रायश्चित्त आदि-आवश्यक क्रियाओं में कभी प्रमाद न करना, धर्म-मार्ग की जगत् में प्रभावना करते रहना तथा गुणीजनों में वात्सल्य व प्रमोद भाव का होना। ये सोलह प्रसिद्ध भावनाएँ हैं, जिनके निरन्तर भाते रहने से तीर्थंकर होने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। ९९. समण सावएण य, जाओ णिच्वंपि भावणिज्जाओ । दढसंवेगकरीओ, विसेसओ उत्तमट्ठम्मि ॥ मरण समा० । ५७१ तु०पं० वि० । ६.४२ श्रमणेन श्रावकेन च, या नित्यमपि भावनीयाः । दृढसंवेगकारिण्यो, विशेषतः उत्तमार्थे ॥ श्रमण को या श्रावक को संवेग व वैराग्य के दृढीकरणार्थ नित्य ही, विशेषतः सल्लेखना के काल में इन १२ भावनाओं का चितवन करते रहना चाहिए । २. ३० अ० १० । ज्ञानाधिकार ५ ४५ १००. अधुवमसरण मेगत्त-मण्णत्तसंसारलोय मसुइत्तं । आसव संवर णिज्जर, धम्मं बोधि च चितिज्ज || भ० आ० | १७१५ अध्यात्मज्ञान- चिन्तनिका तु० मरण समा० । ५७२-७३ अध्रुवशरणमेकत्वमन्यत्वसंसारलोकमशुचित्वं । आस्रवसंवरनिर्जर, धर्मं बोधि च चिन्त्येत् ॥ अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ, इन १२ भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए । (क) अनित्य व अशरण संसार १०१. अम्भोबुद्बुदसंनिभा तनुरियं, श्रीरिन्द्रजालोपमा । दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः कान्तार्थपुत्रादयः ॥ १०२. सौख्यं वैषयिकं सदैव तरलं, मत्तांगनापाङ्गवत् । तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये, शोकेन किं किं मुदा ॥ तु० == उत्तरा० । १८.१३ पं० वि० । ३.४ यह शरीर जलबुद्बुद के समान अनित्य है तथा लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान चंचल । स्त्री, धन व पुत्रादि आँधी से आहत जल-प्रवाहवत् अति वेग से नाश की ओर दौड़े जा रहे हैं। वैषयिक सुख काम से मत्त स्त्री की भाँति तरल हैं अर्थात् विश्वास के योग्य नहीं हैं। इसलिए समस्त उपद्रवों के स्थानभूत इनके विषय में शोक करने से क्या लाभ है ? और इनकी प्राप्ति होने पर मोद कैसा ? १०३. जम्मजरामरणभए अभिदुए, विविहवा हिसंतत्ते । लोगम्मि नत्थि सरणं, जिणिदवरसासणं मुत्तुं ॥ मरण समा० । ५७८ ०वा० अ० । ११ जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते, विविधव्याधिसंतप्ते | लोके नास्ति शरणं जिनेन्द्रवरशासनं मुक्त्वा ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानाधिकार ५ ४६ अध्यात्मज्ञान- चिन्तनिका जन्म, जरा व मरण के भय से पूर्ण तथा विविध व्याधियों से संतप्त इस लोक में जिनशासन को छोड़कर ( अथवा आत्मा को छोड़कर ) अन्य कोई शरण नहीं है । १०४. संगं परिजाणामि सल्लंपि, य उद्धरामि तिविहेणं । गुत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च ॥ मरण समा० । २६७ संगं परिजानामि शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन । गुप्तयः समितयः, त्राणं शरणं च ॥ मम तु०का० अ० । ३० धन कुटुम्ब आदि रूप संसर्गों को अशरणता को में अच्छी तरह जानता हूँ, तथा माया मिथ्या व निदान ( कामना ) इन तीन मानसिक शल्यों का मन वचन काय से त्याग करता हूँ। तीन गुप्ति व पाँच समिति' ही मेरे रक्षक व शरण हैं। इस मोक्ष मार्ग को न जानने के कारण ही में अनादि काल से इस संसार सागर में भटक रहा हूँ। एक बालाग्र प्रमाण भी क्षेत्र ऐसा नहीं, जहाँ अनन्त बार जन्म-मरण न हुआ हो ।" ( ख ) आत्मा का एकत्व व अनन्यत्व १०५. एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥ आतुर० प्र० । २६ मा०पा० ॥ ५९ एको मे शाश्वतः आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ आत्मा ही मेरी है, जगत् ज्ञान दर्शन युक्त अकेली यह शाश्वत के अन्य सर्व वाह्याभ्यन्तर पदार्थ व भाव संयोगज हैं और इसलिए मेरे स्वरूप से बाह्य हैं। Jain Education Intemna १. दे० गा० १९१-१९२ । २. दे० गा० ६-७ । ज्ञानाधिकार ५ ४७ १०६. संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्ख परंपरा । तम्हा संजोग संबंध, सव्वभावेण वोसिरे ॥ आतुर० प्र० । २७ संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा । तस्मात्संयोगसम्बन्धं सर्वभावेन व्युत्सृजामि || आत्मस्वरूप से बाह्य संयोगमूलक ये सभी बाह्याभ्यन्तर पदार्थ, जीव के द्वारा प्राप्त कर लिये जाने पर क्योंकि उसके लिए दुःख परम्परा के हेतु हो जाते हैं, इसलिए सभी प्रकार के शारीरिक व मानसिक संयोग सम्बन्धों को में मन वचन काय से छोड़ता हूँ । १०७. अन्नं इमं सरीरं, अण्णो जीवुत्ति निच्छयमइओ । दुक्खपरिकेसकर, छिंदममत्तं सरीराओ ॥ मरण समा० । ४०२ तु० मू० आ० । ७०२ ( ९.१२ ) अन्यदिदं शरीरं अन्यो जीव इति निश्चितमतिकः । दुःखपरिक्लेशकरं छिन्द्धि ममत्वं शरीरात् ॥ 'यह जीव अन्य है और शरीर इससे अन्य है, इस प्रकार की निश्चित बुद्धिवाला व्यक्ति, शरीर को दुःख तथा क्लेश का कारण जानकर उस का ममत्व छोड़ देता है । (ग) देह-दोष दर्शन १०८. जावइयं किचि दुहं, सारीरं माणसं च संसारे । पत्ता अणंतखुत्तो, कायस्स ममत्तदोसेणं ।। मरण समा० । ४०३ अध्यात्म ज्ञान-चिन्तनिका तु०ज्ञा० । २.६ । १०-११ यावत्कचिदुक्खं शारीरं मानसं च संसारे । प्राप्तोऽनन्तकृत्वः कायस्य ममत्वदोषेण ॥ इस संसार में शारीरिक व मानसिक जितने भी दुःख हैं, वे सत्र शरीर - ममत्वरूपी दोष के कारण ही प्राप्त होते हैं । ( इसलिए मैं इस ममत्व का त्याग करता हूँ । ) १०९. मंसट्टियसंघाए, मुत्तपुरीस भरिए नवच्छिद्दे । असुइ परिस्सवंते, सुहं सरीरम्मि कि अत्थि || मरण समा० । ६०८ तु०=बा० अ० । ४४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानाधिकार ५ अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका मांसास्थिसंघाते मूत्रपुरीषभृते नवच्छिद्रे । अशुचि परिस्रवति शुभं शरीरे किमस्ति । मांस व अस्थि के पिण्डभूत, तथा मूत्र-पूरीष के भण्डार अशुचि इस शरीर में शुभ है ही क्या, जिसमें कि नव द्वारों से सदा मल झरता रहता है। ( अतः मैं इसके ममत्व का त्याग करता हूँ।) (घ) आस्रव, संवर व निर्जरा भावना १. राग द्वेष व इन्द्रियों के वश होकर यह जीव सदा मन, वचन व काय से कर्म संचय करता रहता है। व्यक्ति की क्रियाएं नहीं बल्कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद व कषाय आदि भाव ही वे द्वार है, जिनके द्वारा कर्मों का आस्रव या आगमन होता है। अनित्य व दुःखमय जानकर में इनसे निवृत्त होता हूँ।" २. समिति गुप्ति आदि के सेवन से इस आस्रव का उसी प्रकार संवर या निरोध हो जाता है जिस प्रकार नाव का छिद्र रुक जाने पर उसमें होनेवाला जल-प्रवेश रुक जाता है। अतः घोड़े की भांति इन्द्रिय व कषायों को बलपूर्वक लगाम लगानी चाहिए। ३. जिस प्रकार तालाब में जल-प्रवेश का द्वार रुक जाने पर सूर्य ताप से उसका जल सूख जाता है, उसी प्रकार समिति, गुरित आदि द्वारा आस्रव का द्वार रुक जाने पर तपस्या के द्वारा पूर्व संचित कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं। अतः मैं यथाशक्ति तप के प्रति उद्यत होता हूँ। (ङ) लोक-स्वरूप चिन्तन ११०. जीवादी पयत्थाणं, समवाओ सो णिरुच्चए लोगो। तिविहो हवेइ लोगो, अहमज्झिमउड्ढभेएण ॥ वा० अ०।३९ ज्ञानाधिकार ५ अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका जीवादिपदार्थानां, समवायः स निरुच्यते लोकः । त्रिविधः भवेत् लोकः, अधोमध्यमोलभेदेन ॥ जीवादि छह द्रव्यों के समुदाय को लोक कहते हैं। यह त्रिधा विभक्त है--अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। (अधोलोक में नारकीयों का वास है, मध्यलोक में मनुष्य व तिर्यंचों का और ऊर्ध्वलोक में देवों का।) १११. असुहेण णिरय तिरिय, सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं । सुद्धण लहइ सिद्धि, एवं लोयं विचितिज्जो ॥ बा० अणुः । ४२ तु०उत्तरा० । ३२.२ अशुभेन निरयतिर्यचं, शुभोपयोगेन दिविज-नर-सौख्यम्। शुद्धेन लभते सिद्धि एवं लोक विचिन्तनीयः ॥ अशुभ उपयोग से नरक व तिर्यंच लोक की प्राप्ति होती है, शुभोपयोग से देवों व मनुष्यों के सुख मिलते हैं, और शुद्धोपयोग से मोक्षलाभ होता है। इस प्रकार लोक-भावना का चिन्तवन करना चाहिए। (च) बोधि-दुर्लभ भावना ११२. माणुस्सं विग्गहं ल , सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पडिवज्जति, तवं खंतिमहिंसयं ॥ उत्तरा०।३.८ तु०रा० वा० । ९.७.९ मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा। यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् ॥ ( चतुर्गति रूप इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणी को मनुष्य तन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है) सौभाग्यवश मनुष्य जन्म पाकर भी श्रुत चारित्र रूप धर्म का धवण दुर्लभ है, जिसको सुनकर प्राणी तप, कपाय-विजय द अहिंसादि गुक्त संयम को प्राप्त कर लेते हैं। १. दे० गा०३१६–३१९ । २. देगा० ३२०-३२३ । ३.दे० गा०३३२-३३५ । १.दे० अधिकार १२ For Private & Personal use only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-चारित्र अधिकार (बुद्धि-योग) मोह-क्षोभविहीन आत्मा का निश्चल परिणाम ही चारित्र शब्द का वाच्य है। इष्टानिष्ट विषयों में राग-द्वेष का न होना, लाभ-अलाभ आदि में समता, कषाय निग्रह, इन्द्रिय-जय, बैराग्य-परायणता तथा तितिक्षा भाव, ये सब उसके लिंग है। ज्ञानाधिकार ५ अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका ११३. आहच्च सवणं लर्बु, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥ उत्तरा० । ३.९ तु०= पं० वि०। ४.६-८ कदाचित् श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा। श्रुत्वा नयायिक मार्ग, बहवः परिभ्रश्यन्ति । कदाचित धर्म-श्रवण का लाभ हो जाय तो भी धर्म में श्रद्धा होना दुर्लभ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रूप इस न्याय-मार्ग को सुनकर भी अनेक व्यक्ति ( श्रद्धायुक्त चारित्र अंगीकार करने के बजाय ज्ञानाभिमानवश स्वच्छन्द व ) पथ-भ्रष्ट होते देखे जाते हैं। ११४. सुइं च लर्बु सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवें रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए । उत्तरा०।३.१० तु० - रा० वा० । ९.७.९ श्रुति च लब्ध्वा श्रद्धां च, वीर्य पुनर्दुर्लभम् । बहवः रोचमानाऽपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ॥ और यदि बड़े भाग्य से सुनकर श्रद्धा हो जाय तो भी चारित्र पालने के लिए वीर्योल्लास का होना दुर्लभ है। क्योंकि अनेक व्यक्ति सद्धर्म का ज्ञान व रुचि होते हुए भी उसका आचरण करने में समर्थ नहीं होते हैं। (छ) धर्म ही सुख ११५. धम्मेण विणा जिणदेसिएण, नन्नत्थ अस्थि किंचि सुहं । ठाणं वा कज्ज वा, सदेवमणुयासुरे लोए। मरण समा०। ६०१ तु० = ज्ञा० । २.१० । ११ धर्मेण विना जिनदेशितेन, नान्यत्रास्ति किंचित्सुखम् । स्थानं वा कार्य वा, सदेवमनुजासुरे लोके ।। जिनोपदिष्ट धर्म के बिना देवलोक में, मनुष्यलोक में या असुरलोक में कहीं भी किचिन्मात्र सुख नहीं है, न तो कोई सुख का स्थान ही है और न कोई सुख का साधन ही। For Private & Personal use only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्राधिकार ६ ५२ महारोग रागद्वेष १. निश्चय-चारित्र (समत्व) ११६. समदा तह मज्झत्थं, सुद्धो भावो य वीयरायत्तं । तह चारित्तं धम्मो, सहाव आराहणा भणिया ॥ न००। ३५६ समता तथा माध्यस्थ्यं, शुद्धो भावश्च वीतरागत्वम् । तथा चारित्रं धर्मः स्वभावाराधना भणिता ॥ समता, माध्यस्थता, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र', धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। ११७. चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥ प्र० सा०।७ तु० = सू० कृ०। ६. १.४ चारित्रं खलु धर्मो, धर्मो यस्तत्साम्यमिति निद्दिष्टम् । मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो हि साम्यम् ॥ परमार्थतः चारित्र ही धर्म (आत्म-स्वभाव) है। धर्म साम्यस्वरूप कहा गया है, और आत्मा का मोह क्षोभ-विहीन परिणाम ही साम्य है, ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। [यह निश्चय-चारित्र का अधिकार है। इसके साधनभूत व्यवहार-बारित्र का कथन संयम अधिकार (८) में किया गया है। २. महारोग रागद्वेष ११८. णवितं कुणइ अमित्तो,सुठु विय विराहिओ समत्थोवि। जं दोवि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥ मरण समा० । १९८ तु०-५० । पृ० ४३ नैव तत्करोति अमित्रः, सुष्ठ्वपि विराद्धः समर्थोऽपि । यद् द्वावपि अनिगृहीतो, कुरुतो रागश्च द्वेषश्च ।। चारित्राधिकार ६ रागद्वेष का प्रतिकार सम्यक् प्रकार से निग्रह न किये गये राग और द्वेष ये दोनों व्यक्ति का जितना अनिष्ट करते हैं, उतना कोई अत्यन्त कुशल शत्रु भी नहीं करता है, भले वह कितना ही क्रुद्ध व समर्थ हो। ११९. व्याप्नोति महती भूमि, वटबीजाद्यथा वटः। तथैकममताबीजात्प्रपंचस्यापि कल्पना ।। अध्या० सा०। ८.६ तु-आ० अनु० । १८२ जिस प्रकार वट-बीज से उत्पन्न वट वृक्ष लम्बी-चौड़ी भूमि को घेर लेता है, उसी प्रकार ममतारूप बीज से उत्पन्न प्रपंच की भी कल्पना कर लेनी चाहिए। १२०. परमाणु मित्तयं पि हु, रागादीणं तु विज्जदे जस्स । - णवि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि ॥ स० सा०।२०१ तु०= मरण समा०। ४०७ परमाणुमात्रमपि खलु, रागादीनां तु विद्यते यस्य । नापि स जानात्यात्मानं, सर्वागमधरोऽपि ॥ जिस व्यक्ति के हृदय में परमाणु मात्र भी राग व द्वेष का वास है, वह सर्व शास्त्रों का ज्ञाता भी क्यों न हो, आत्मा को नहीं जानता है। ३. रागद्वेष का प्रतिकार १२१. रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्, तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किंचित् । सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटतो, ज्ञानज्योतिर्वलति सहजं येन पूर्णाचलाच्चिः ।। स० सा० । क० २१७ तु०=मरण समा० । ३० ___तात्त्विक दृष्टि से देखने पर राग और द्वेप स्वतंत्र सत्ताधारी कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अज्ञानरूपण परिणमन हो जाना ही उनका स्वरूप है। अतः सम्यग्दृष्टि तत्त्वदृष्टि के द्वारा इन्हें नष्ट कर दे, १. इष्टानिष्टता काल्पनिक है, वस्तुभूत नहीं-दे० गा० १२९ । १. रागादि का परिहार ही चारित्र है-दे० गा० २२ । २. वस्तु का खभाव धर्म है-दे० गा० २४२ । For Private & Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ चारित्राधिकार ६ कषाय-निग्रह जिससे पूर्ण प्रकाशस्वरूप तथा अचल दीप्तिवाली सहज ज्ञान-ज्योति जागृत हो जाये। १. (चारों कषाय, तीन गौरव, पाँच इन्द्रिय तथा अनुकुल व प्रतिकल विघ्नों को जीतकर और आराधनारूपी पताका को हाथ में लेकर, मित्र, पुत्र, बन्धु व इष्टानिष्ट विषयों में किंचिन्मात्र भी राग व द्वेष न करे।) २. ( समस्त दुःखों की खान जानकर इस शरीर के प्रति ममत्वभाव का त्याग कर दे।) चारित्राधिकार ६ समता-सूत्र क्रोधं क्षमया मानं मार्दवेन, आर्जवेन मायां च। संतोषेण च लोभं, निर्जय चतुरोऽपि कषायान् । क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से तथा लोभ को संतोष से', इस प्रकार इन चारों कषायों को जीत ले। ४. कषाय-निग्रह १२२. उवसमदयादमाउहकरेण, रक्खा कसायचोरेहि । सक्का काउं आउहकरेण, रक्खा वा चोराणं ॥ भ० आ०।१८३६ तु०= आचारांग ३.२.९ (११४) उपशमदयादमायुधकरणेन, रक्षा कषायचौरैः। शक्या कर्तु आयुधकरणेन, रक्षा इव चौरेभ्यः॥ जिस प्रकार सशस्त्र पुरुष चोरों से अपनी रक्षा करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रहरूप तीन शस्त्रों को धारण करनेवाला कषायरूपी चोरों से अपनी रक्षा करता है। १२३. कोहस्स व माणस्स व, मायालोभेसु वा न एएसि । वच्चइ वसं खणंपि ह, दुग्गइगइवड्ढणकराणं ।। मरण समा०।१९० क्रोधस्य च मानस्य च, माया लोभयोश्च नेतेषां । व्रजति वशं क्षणमपि दुर्गतिगतिवर्द्धनकराणाम् ॥ दुर्गति की वृद्धि करनेवाले क्रोध मान माया व लोभ इन चारों के वश, एक क्षण के लिए भी न हो। १२४. कोहं खमाइ माणं मद्दवया, अज्जवेण मायं च । संतोसेण व लोहं निज्जिण चत्तारि वि कसाए। मरण समा०।१८९ तु० भ० आ०।२६० ५. इन्द्रिय-जय १२५. जहा कुम्मे सुअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ सू० कृ० । १.८.१६ तु० भ० आ०।१८३७ यथा कूर्मः स्वांगानि स्वस्मिन् देहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत् ।। जिस प्रकार कछुआ विपत्ति के समय अपने अंगों को अपने शरीर के भीतर समेट लेता है, उसी प्रकार पण्डित जन विषयों की ओर जाती हुई अपनी पापप्रवृत इन्द्रियों को अध्यात्मज्ञान के द्वारा समेट लेते हैं। १२६. यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि । इ० उ०।३७ आत्मा व अनात्मा के भेद-ज्ञान के द्वारा ज्यों-ज्यों आत्मा का स्वरूप अनुभव में आता जाता है, त्यों-त्यों सहज प्राप्त रमणीय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते जाते हैं। ६. समता-सूत्र ( स्थितप्रज्ञता) १२७. लाहालाहे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो जिंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ।। उत्तरा०। १९.९१ तु० = अ० ग० श्रा०। ८.३.१ १. क्षमा, मार्दव, आर्जन व सन्तोष-देगा. २६७-२७८ ॥ १. दे. गा० ७२-७३। २. दे० गा० १०१। For Private & Personal use only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्राधिकार ५६ लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा । समः निन्दाप्रशंसयोः, तथा मानापमानयोः ॥ लाभ व अलाभ में, सुख व दुःख में, जीवन व मरण में, निन्दा प्रशंसा में तथा मान व अपमान में भिक्षु सदा समता रखे। (यही साधु का सामायिक नामक चारित्र है । ) वराम्य-सूत्र उत्तरा० । ३२.२१ १२८. जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ तु० = मू० आ० । ५२२ (५.१२१ ) य इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः, न तेषु भावं निसृजेत् कदापि । न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात्, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥ समाधि का इच्छुक तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग न करे और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष भी न करें । अध्या० सा० । ९.४ १२९. एकस्य विषयो यः स्यात्स्वाभिप्रायेण पुष्टिकृत् । अन्यस्य द्वेष्यतामेति, स एव मतिभेदतः ॥ तु० यो० सा० अ० । ५.३६ तत्त्वतः कोई भी विषय मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं होता, क्योंकि जो विषय किसी एक व्यक्ति को उसकी अपनी रुचि के अनुसार इष्ट होता है, वही दूसरे व्यक्ति को उसके मतिभेद के कारण द्वेष्य या अनिष्ट होता है । ७. वैराग्य-सूत्र ( संन्यास- योग ) १३०. धम्मे य धम्मफलम्हि दंसणे य हरिसो य हुति संवेगो । वैराग्यं ॥ संसारदेह भोगेसु, विरत्तभावो य द्र० सं० । ३५ की टीका में उद्धत धर्मे च धर्मफले दर्शने च हर्षः च भवति संवेगो । संसारदेहभोगेषु, विरक्तभाव: च वैराग्यम् ॥ १. दे० गा० २५३-२५४ । वैराग्य-सूत्र चारित्राधिकार ६ धर्म में, धर्म के फल में और सम्यग्दर्शन में जो हर्ष होता है, वह तो संवेग है, और संसार देह भोगों से विरक्त होना वैराग्य या निवेद है। ५७ १३१. यस्य सस्पन्दमाभाति, निःस्पन्देन समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियाsभोगं स शमं याति नेतरः ॥ स० श० । ६७ जिसको चलता-फिरता भी यह जगत् स्तब्ध के समान दीखता है, प्रज्ञा-रहित, क्रिया- रहित तथा सुखादि के अनुभव से रहित दीखता है, उसे वैराग्य हो जाता है, अन्य को नहीं । १३२. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥। उत्तरा० । ३२.९९, भावे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया । न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥ जो व्यक्ति भाव से विरक्त है, और दुःखों की परम्परा के द्वारा जिसके चित्त में मोह व शोक उत्पन्न नहीं होता है, वह इस संसार में रहते हुए भी, उसी प्रकार अलिप्त रहता है, जिस प्रकार जल के मध्य कमलिनी का पत्ता । १३३. सेतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई ।। स० [सा० । १९७ तु० = अध्या० सा० । ५.२५ सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति || कोई वैराग्य-परायण तो विषयों का सेवन करता हुआ भी उनका सेवन नहीं करता है, और आसक्त व्यक्ति सेवन न करता हुआ भी सेवन कर रहा है। जैसे किसी के द्वारा नियोजित व्यक्ति चेष्टा करता Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्राधिकार ६ परोषह-जय हआ भी उस चेष्टा का स्वामी नहीं होता है। ( ज्ञान हो जाने पर न कुछ त्याग करना शेष रहता है, न ग्रहण' । ) १३४. उवभोगमिदियेहि, दव्वाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।। स० सा० । १९३ उपभोगमिन्द्रियः द्रव्याणामचेतनानामितरेषां । यत्करोति सम्यग्दृष्टिः तत्सर्व निर्जरानिमित्तं ॥ सम्यग्दृष्टि की हो यह कोई अकथनीय महिमा है, कि जो जो भी चेतन या अचेतन द्रव्य वह अपनी इन्द्रियों के द्वारा भोगता है, वह वह उसके लिए बन्धनकारी न होकर निर्जरा का निमित्त हो जाता है। ८. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) १३५. सहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छेलणापहोअस्स, दुल्लहा सु गई तारिसगस्स ।। दशव० । ४.२६ तु०= मो० पा०। ६२ सुखस्वादकस्य श्रमणस्य, साताकुलस्य निकामशायिनः । उत्क्षालनाप्रधाविनः, दुर्लभा सुगतिस्तादृशस्य ॥ जो श्रमण केवल अपने शरीर के सुखों का ही स्वादिया है, और उन सुखों के लिए सदा आकुल-व्याकुल रहता है, खूब खा पीकर सो जाता है और सदा हाथ-पाँव आदि धोने में ही लगा रहता है, उसे सुति दुर्लभ है। १३६. एवं सेहे वि अपुठे, भिक्खायरियाअकोविए। सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए । सू००।३.१.३ तु० =अनगार धर्मामृत । ६.८३ एवं शिष्योऽप्यस्पृष्टो, भिक्षाचर्याऽको विदः । शूरं मन्यत आत्मानं, यावत् रूक्षं न सेवते ॥ चारित्राधिकार ६ परोषह-जय नवदीक्षित साधु उसी समय तक शूरवीर है, जब तक संयम अंगीकार करके वह भिक्षाचर्या, रूखा-सूखा नीरस आहार व पीड़ाओं का स्पर्श नहीं कर लेता। १३७. सो वि परीसहविजओ, छुहाइ-पीडाण-अइ-रउद्दाणं। सवणाणं च मुणीणं, उवसमभावेण जं सहणं ।। का० अ०। ९८ तु० - उत्तरा० । १५.४ स अपि परीषहविजयः, क्षुधादिपीडानाम् अतिरौद्राणाम् । श्रमणानां च मुनीना, उपसमभावेन यत् सहनम् ॥ अत्यन्त दारुण क्षुधा आदि की वेदना को जो ज्ञानी मुनि शान्त भाव से सहन करता है, उसे परीषहजय कहते हैं। १३८. तहागहं भिक्खु मणंत संजय,अणोलिसं विन्नु चरंतमेसणं । तुदंति वायाहि आभद्दयं णरा, सरेहि संगामगयं व कुंजरं । आचा० । २५.२ तु० - मू० आ० । ९९७ (८.१०२) तथागतं भिक्षुमनन्तसंयतं, अनीदशं विज्ञः चरंतमेषणाम् । तदन्ति वाग्भिः अभिद्रवन्तो नराः, शरैः संग्रामगतमिव कुंजरम् ।। जीवदया व विरागपरायण ज्ञानी भिक्षु को चर्या के समय जब ये लोग विविध प्रकार से, मर्मभेदी वाग्वाणों के द्वारा अथवा मुक्का व लाठी आदि के प्रहारों के द्वारा पीड़ा देते हैं, तो वह उसे उसी प्रकार सहन कर जाय, जिस प्रकार संग्राम में हाथी। . गा०२८०। ____ Jan Education international . For Private & Personal use only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार-चारित्र अधिकार (साधना अधिकार ) [ कर्म-योग] इस समता रूप परमार्थ चारित्र की प्राप्ति के लिए साधना अपेक्षित है। प्रयत्नपूर्वक अशुभ क्रियाओं से बचना और शुभ के प्रति जागरूक रहना ही वह साधना है, जिसे शास्त्रों में व्यवहार-चारित्र कहा गया है। साधक ही नहीं, पूर्णकाम ज्ञानी भी कदाचित् किसी कारणवश उसका आचरण करता है। क्रियात्मक होते हुए भी लक्ष्य सत्य होने के कारण पहले को, और अहंकारशून्य होने के कारण दूसरे को, वह बन्धनकारी नहीं होता है। साधनाधिकार ७ चारित्र का स्थान १. व्यवहार-चारित्र निर्देश १३९. असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणयादु जिण भणियं ।। द्र०सं०। ४५ तु० - उत्तरा०।३१.२ अशुभात् विनिवृत्तिः, शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रम् । व्रतसमितिगुप्तिरूपं, व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ॥ अशुभ कार्यों से निवृत्ति तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति, यह व्यवहार नय से चारित्र का लक्षण है। वह पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति, ऐसे तेरह प्रकार का है। २. मोक्षमार्ग में चारित्र (कर्म) का स्थान १४०. थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो, कि तस्स सुदेण बहुएण ।। मू० आ०। ८९७ (१०.६) तु० = दे० आगे की गा० १४१ स्तोके शिक्षिते जयति, बहुश्रुतं यश्चारित्रसम्पूर्णः। यः पुनश्चारित्रहीनः, किं तस्य श्रुतेन बहुकेन ॥ चारित्र से परिपूर्ण साधु थोड़ा पढ़ा हुआ भी क्यों न हो, बहुश्रुत को भी जीत लेता है। परन्तु जो चारित्रहीन है, वह बहत शास्त्रों का जाननेवाला भी क्यों न हो, उसके शास्त्रज्ञान से क्या लाभ ? १४१. सुबहुं पि सुयमहीयं, किं काही चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोड़ी वि ॥ वि० आ० भा० । ११५२ तु० = मू० आ० । १०.४५ सुबह्वपि श्रुतमधोतं, किं करिष्यति चरणविप्रहीनस्य । अन्धस्य यथा प्रदीप्ता, दोपशतसहस्रकोटिरपि। भले ही बहुत सारे शास्त्र पढ़े हों, परन्तु चारित्रहीन के लिए वे सब किस काम के ? हजारों करोड़ भी जगे हुए दीपक अन्धे के लिए किस काम के? For Private & Personal use only Jan Education International Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनाधिकार ७ कर्मयोग-रहस्य ३. चारित्र (कर्म) में सम्यक्त्व व ज्ञान का स्थान १४२. जदि पढदि बहुसुदाणि य, जदि काहिदि बहुविहं य चारित्तं। तं बाल सुदं चरणं, हवेइ अप्पस्स विवरीयं । मो० पा०।१०० तु. = दे० अगली गा० १४३ यदि पठति बहुश्रुतानि च, यदि करिष्यति बहुविधं च चारित्रम् । तत् बालश्रुतं चरणं, भवति आत्मनः विपरीतम् ।। ___ आत्मा से विपरीत अर्थात् आत्मा को स्पर्श किये बिना बहुत सारे शास्त्रों का पढ़ना बालथुत है और बहुत प्रकार के चारित्र का करना बाल-चरण है। १४३. चरणकरणप्पहाणा, ससमय-परसमयमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं, णिच्छयसुद्धं ण याणंति ॥ सन्मति तक। ३.६७ तु० = दे० पिछली गा० १४२ चरणकरणप्रधानाः, स्वसमय-परसमयमुक्तव्यापाराः। चरण-करणस्य सारं, निश्चयशद्धं न जानन्ति । जो स्व व पर सिद्धान्त का चिन्तन छोड़ बैठे हैं, वे व्रत व नियम करते हुए भी परमार्थतः उनके फल को नहीं जानते हैं। ४. कर्मयोग-रहस्य १४४. एयं सकम्म विरियं, बालाणं तु पवेइयं । इत्तो अकम्म विरियं, पंडियाणं सुणेह मे ॥ मू०१०। ८.१.१ तु० = स० सा० । क० । २०५ एतत्सकर्मवीर्य, बालानां तु प्रवेदितम् । अतोऽकर्मवीयं पण्डितानां श्रणुत मे॥ अब तक जो कहा गया है। वह अज्ञानी जनों का सकर्म वीर्य है। अब ज्ञानी जनों का अकर्म-वीर्य कहता हूँ। तो सुनो । अर्थात् अज्ञानी जनों की क्रियाएँ सकर्म होती है और ज्ञानी जनों की अकर्म'। १. इसका सम्बन्ध सूत्रकृतांग ग्रन्थ से है, जहाँ से यह गाथा लेकर लिखी गयी है। Jain Education Interna २. शानी अकर्म के द्वारा ही कर्म खपाता है।--दे० गा० २७८ । साधनाधिकार ७ कर्मयोग-रहस्य १४५. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं ।" तभावादेसओ वा वि, बालं पण्डियमेव वा ।। सू० कृ०॥ १.८.३ . तु० = भ० आ०। ८०३ प्रमादं कर्म आहुः, अप्रमादं तथाऽपरम् । तभावादेशतो वाऽपि, बालं पण्डितमेव वा॥ (इसका कारण यह है) कि प्रमाद' को ही कर्म कहा गया है और अप्रमाद को अकर्म । प्रमाद व अप्रमाद की अपेक्षा ही व्यक्ति को अज्ञानी व ज्ञानी कहा जाता है। १४६. जह सलिलेण ण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ, कसायविसएहिं सप्पुरिसो।। भा० पा०।१५४ तु० = आचारांग । ४.४.७ (१४०) यथा सलिलेन न लिप्यते, कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या। तथा भावेन न लिप्यते, कषायविषयः सत्पुरुषः ।। जिस प्रकार कमलिनी का पत्ता स्वभाव से ही जल के साथ लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष कषायों व इन्द्रिय-विषयों में संलग्न होकर भी उनमें लिप्त नहीं होता। १४७. त्यक्तं येन फलं स कर्मकुरुते नेति प्रतीमो वयं, किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो, ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुस्ते कर्मेति जानाति कः ।। स० सा० । क०१५३ तु०- आचारांग ४.२.१ (१३०) जिसने कर्म-फल का त्याग कर दिया है, वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति हमें नहीं होती। परन्तु इतना विशेष है कि ऐसे ज्ञानी को भी कदाचित् किसी कारणवश कोई कर्म करना अवश्य पड़ता है। उसके १. दे० गा० १५१-१५८ For Private & Personal use only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनाधिकार ७ ૬૪ कर्मयोग - रहस्य आ पड़ने पर भी जो अकम्प परमज्ञान में स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं, यह कौन जानता है ? अर्थात् वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता है। (निष्काम योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता' ।) १४८. न ह्यप्रमत्तसाधूनां क्रियाप्यावश्यकादिका । नियता ध्यानशुद्धत्वाद्यदन्यैरप्यदः स्मृतम् ॥ अध्या० सा० । १५.७ तु० स० सा० क० | १११ ध्यान द्वारा चित्त शुद्ध या स्थिर हो जाने के कारण अप्रमत्त साधु को पडावश्यक आदि शास्त्रोक्त क्रिया करने की कोई आवश्यकता नहीं है। गीताकार ने भी ऐसा कहा है । परन्तु -- १४९. कर्माप्याचरतो ज्ञातुर्मुक्तिभावो न हीयते । तत्र संकल्पजो बन्धो गीयते यत्परैरपि ॥ अध्या० सा० । १५.३२ तु० दे० पीछे गा० १४७ ( यद्यपि ज्ञानी को कर्म करने की आवश्यकता नहीं, परन्तु ) यदि वह शास्त्रोक्त कर्मों का आचरण करे तो भी उसके मुक्तिभाव में कोई हानि नहीं होती है। क्योंकि संकल्प ही बन्ध का कारण है, क्रिया नहीं । गीताकार ने भी यही कहा है' । १५०. कर्म नैष्कर्म्य वैषम्य - मुदासीनो विभावयन । ज्ञानी न लिप्यते भोगैः पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ अध्या० सा० । १५.३५ तु० = यो० सा० अ० । ९.५९ कर्म व अकर्म के भेद में उदासीन हो जाने के कारण अर्थात् कर्म व अकर्म में कोई भेद न देखने वाला ज्ञानी भोगों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार जल से कमल-पत्र गीला नहीं होता । Jain Education Internationa १. दे० गा० २७८ २. गीता २.२२ ३. गीता ३.९ साधनाधिकार ७ ५. अप्रमाद सूत्र १५१. कहं चरे कहं चिट्ठे, कहमा से कहं सए । कहं भुंजतो भासतो पावकम्मं न बंधइ ॥ १५२. जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुंजतो भासतो पावकम्मं न बंधइ ॥ दश० । ४.७-८ अप्रमाद-सूत्र तु० - भ० आ० १०१२ - १०१३ कथं चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासीत् कथं शयीत् । कथं भुंजानो भाषमाणः पापकर्म न बध्नाति ॥ यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत् यतं शयीत् । यतं भुंजानो भाषमाणः पापकर्म न बध्नाति ॥ ('अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति' यह साधनागत व्यवहार चारित्र का लक्षण कहा गया है। इसके विषय में ही शिष्य प्रश्न करता है ) -- कैसे चलें, कैसे बैठें, कैसे खड़े हों, कैसे सोवें, कैसे खावें और कैसे बोलें कि पापकर्म न बँधे । (गुरु उत्तर देते हैं) - यत्न से चलो, यत्न से खड़े हो, यत्न से बैठो, यत्न से सोओ, यत्न से खाओ और यत्न से बोलो। ऐसा करने से पापकर्म नहीं बंधता । म० आ० १२०१ १५३. उमिणिपत्तं व जहा, उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं । तह समिदीहिं ण लिप्पइ, साधु काएसु इरियंतो ॥ तु० पीछे गा० १५२ पद्मिनी पत्रं व यथा, उदकेन न लिप्यति स्नेहगुण युक्तं । तथा सम्यग्दृष्टि न लिप्यति साधुः कायेषु ईयंन् ॥ समिति पूर्वक शरीर से सब कुछ करता हुआ भी साधु, कर्मों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार स्निग्ध गुण से युक्त होने के कारण कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। [प्रश्न- आत्मज्ञानी सम्यग्दृष्टि को यह सब यत्नाचार आदि करने की क्या आवश्यकता है ? ] ५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनाधिकार ७ अप्रमाद-सूत्र १५४. उक्कोस्स चरित्तोऽवि य, परिवडइ मिच्छभावणं कुणइ। किं पुण सम्मद्दिट्ठी, सराग धम्ममि वट्टतो।। मरण समा० । १५२ तु० = रा० वा० । १०.१.३ उत्कृष्टचारित्रोऽपि च परिपतति मिथ्यात्वभावनां करोति । किं पुनः सम्यग्दृष्टिः सरागधर्मे वर्तमानः॥ लगभग चरमदशा को प्राप्त उत्कृष्ट चारित्रवान भी, कभी-कभी मिथ्यात्व भाव का चिन्तवन करके नीचे गिर जाता है, तब फिर सराग धर्म की साधना में वर्त्तने वाले सम्यग्दृष्टि की तो बात ही क्या, (क्योंकि भले ही दृष्टि प्राप्त हो गयी हो, परन्तु आत्म-स्थिरता न होने के कारण वह अभी एक शक्तिहीन बालक ही है।) १५५. वित्तेण ताणं ण लभे पमत्ते, इमम्मिलोए अदुआ परत्था। दीवप्पण? व अणंतमोहे नेयाउयं दद्रुमदठ्ठमेव ॥ उत्तरा०। ४.५ वित्तेन त्राणं न लभेत् प्रमत: अस्मिन् लोके अदो वा परत्र । दीपप्रणष्टे इव अनन्तमोहः नैयायिकं दृष्ट्वा अदृष्ट्वा एव । प्रमादी पुरुष इस लोक में या परलोक में धन-ऐश्वर्य आदि से संरक्षण नहीं पाता। जिसका अभ्यन्तर दीपक बुझ गया है, ऐसा अनन्त मोहवाला प्रमत्त प्राणी न्यायमार्ग को देखकर भी देख नहीं पाता है। ( अर्थात् शास्त्रों से जानकर भी जीवन में उसका अनुभव कर नहीं पाता है।) १५६. सव्वओ पमत्तस्स भयं । सवओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ॥ आचा० । ३.४.३ तु०म० आ०।८०३ सर्वत: प्रमत्तस्य भयं । सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयम् ॥ रत्नत्रय के प्रति सुप्त ऐसे प्रमादी के लिए सर्वत्र भय ही भय है, और अप्रमत्त के लिए कहीं भी भय नहीं है । इसका यह अर्थ भी नहीं करना चाहिए कि विना अन्तरंग लक्ष्य के केवल वाह्य क्रियाओं से सब काम चल जायेगा। साधनाधिकार ७ शल्योद्धार १५७. जो सुत्तो ववहारे, सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे, सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥ मो० पा० । ३१ तु० = मगवती सूत्र । १२.२.४४३ यः सुप्तो व्यवहारे, स: योगी जागति स्वकायें। यः जाति व्यवहारे, स: सुप्तो आत्मनः कायें ॥ जो व्यवहार में सोता है वह योगी निज कार्य में जागता है। और जो व्यवहार में जागता है, वह निज कार्य में सोता है। १५८. सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिय आसुपन्ने। घोरा मुहत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्तो।। उत्तरा०। ४.६ तु०=मो० पा० । ३२-३३ सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः। घोरा मुहूर्ता अबलं शरीरं, भारण्डपक्षीव चरेदप्रमत्तः॥ कर्तव्याकर्तव्य का शीघ्र ही निर्णय कर लेनेवाले तथा धर्म के प्रति सदा जागृत रहनेवाले पण्डित जन, आत्महित के प्रति सुप्त संसारी जीवों का कभी विश्वास नहीं करते । काल को भयंकर और शरीर को निर्बल जानकर वे सदा भेरण्ड' पक्षी की भाँति सावधान रहते हैं। ६. शल्योद्धार (हृदय में सदा शल्य को भांति चुमते रहने के कारण मायाचारिता, मिथ्यादर्शन, और निदान-ये तीन शल्य कहलाते हैं)। १५९. णिसल्लस्सेव पुणो, महब्वदाई हवंति सव्वाई। बदमुवहम्मदि तोहिं दु, णिदाणमिच्छत्तमायाहि ।। भ० आ० । १२१४ तु= महा० प्रत्या० । २४ १. भेरण्ड पक्षी के एक शरीर में दो जीव, दो ग्रीवा तथा तीन पर होते है। जब एक जीब सोता है तो दूसरा जागता है। इस प्रकार बहुत सावधानी से ये अपना जीवन निर्वाह करते हैं। इसी प्रकार साधु अन्तरंग शान के लक्ष्य में सदा जागृत रहे और कर्म के प्रति सदा अप्रमत्त होकर वरते, इस प्रकार युगपत दोनों का निर्वाह करे। For Private & Personal use only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ साधनाधिकार ७ शल्योद्धार निःशल्यस्येव पुनः, महाव्रतानि भवन्ति सर्वाणि । व्रतमुपहन्यते तिसृभिस्तु, निदान-मिथ्यात्व-मायाभिः॥ शल्यों के अभाव में ही 'व्रत' व्रत संज्ञा को प्राप्त होते हैं, क्योंकि शल्यों से रहित यति के सम्पूर्ण महाव्रतों का संरक्षण होता है। जिन्होंने शल्यों का आश्रय लिया, उन दम्भाचारियों के व्रत माया मिथ्या व निदान से नष्ट हो जाते हैं। १६०. जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणदिओ होइ। तह चेव उद्वियंमि, उ निसल्लो निव्वओ होइ।। मरण समा०। ४९ तु० स० सि०। ७.१८ यथा कष्टकेन विद्धः, सर्वेष्वंगेषु वेदनादितो भवति । तथैव उद्धृते निश्शल्यो, निवृत्तो (निर्वातः) भवति ॥ जिस प्रकार शरीर में कहीं काँटा चुभ जाने पर सारे शरीर में वेदना व पीड़ा होती रहती है, उसी प्रकार उसके निकल जाने पर वह निःशल्य होकर पीड़ा से मुक्त हो जाता है । १६१. अगणिअ जो मुक्खसुह, कुणइणिआणं असारसुहहेउं । सो कायमणिकएणं, वेरुल्लियमणि पणासेइ । भक्त परि० । १३८ तु०म० आ० । १२२३ अगणयित्वा यो मोक्षसुखं, करोति निदानमसारसुख हेतोः। स काचमणिकृते, बैडूर्यमणि प्रणाशयति ॥ मोक्ष के अद्वितीय सुख को न गिनकर जो असार ऐन्द्रिय सुख के लिए निदान करता है, वह मूर्ख काँच के लिए वैडूर्यमणि को नष्ट करता है। आत्मसंयम अधिकार (विकर्म-योग) कर्म-योग की इस साधना के लिए शास्त्रविहित अनेकविध विकर्म अपेक्षित हैं, जिनमें अहिंसादि पाँच व्रत या यम प्रधान हैं। चलने बोलने खाने आदि में योगी की जो यत्नाचारी प्रवृत्ति होती है, उसे शास्त्र में पंच समिति कहा गया है, और मन वचन काय का गोपन या नियंत्रण तीन गुप्तियाँ कहलाती हैं। गृहस्थ भी यथाशक्ति इनका पालन करता है और इनकी रक्षार्थ अन्य भी अनेक कर्म करता है। यथा : इच्छाओं को सीमित करने के लिए व्यापार-क्षेत्र को परिमित करना, दिन में तीन तीन बार सामायिक या समता का अभ्यास करना, इत्यादि । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० संयमाधिकार ८ अहिंसा-सूत्र १. संयम-सूत्र १६२. वदसमिदिकसायाणं, दंडाणं इंदियाणं पंचण्डं । धारणपालणणिग्गह, चायजओ संजमो भणिओ ॥ पं० सं०।१२७ तु०मरण समा० । १९५ व्रतसमितिकषायाणां, दण्डानां इन्द्रियाणां पंचानाम् । धारण-पालन-निग्रह-त्याग-जयः संयमः भणितः॥ पंच व्रतों का धारण, पाँच समितियों का पालन, चार कषायों का निग्रह, मन वचन व काय इन तीन दण्डों का त्याग और पाँच इन्द्रियों का जीतना, यह सब संयम कहा गया है। २. अनगार (साधु ) व्रत-सूत्र १६३. हिंसाविरदिसच्चं, अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च। संगविमुत्ती य तहा, महव्वया पंच पण्णत्ता ।। मू० आ०1४. (१.६) तु आतुर० प्रत्या०।२-३ हिंसाविरतिः सत्यं अदत्तपरिवर्जनं च ब्रह्म च । संगविमुक्तिश्च तथा महावतानि पंच प्रज्ञप्तानि । हिंसा का त्याग, सत्य बोलना, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग, ये पाँच महाव्रत कहे गये हैं। संयमाधिकार ८ अहिंसा-सूत्र १६५. जो मण्णदि हिंसामि य, हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीओ।। स० सा०।२४७ य: मन्यते हिनस्मि हिंस्ये च परैः सत्वैः। ___स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः॥ जो ऐसा मानता है कि मैं जीवों को मारता हूँ अथवा दूसरों के द्वारा उनकी हिंसा कराता हूँ, वह मूढ़ अज्ञानी है । ज्ञानी इससे विपरीत होता है। १६६. रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये। तेसि चेदुप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहिं णिद्दिट्टा ॥ क.पा०1१।गा० ४२ तु० = उत्तरा० । १९.२६ रागादीनामनुत्पादः अहिंसकत्वमिति देशितं समये। तेषां चैवोत्पत्तिः हिसेति जिनेन निर्दिष्टा ॥ रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में 'अहिंसा' कहा गया है । और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?] १६७. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। प्र० सा० । २१७ तु० = अध्या० सा० । १८.१०४ म्रियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा। प्रयत्नस्य नास्ति बंधो हिंसामात्रेण समितस्य ।। जीव मरे या जीये, इससे हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है। यत्नाचार-विहीन प्रमत्त पुरुष निश्चित रूप से हिसक है। और जो प्रयत्न ३. अहिंसा-सूत्र १६४. जले जीवाः स्थले जीवाः, आकाशे जीवमीलनि। ___जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ।। जैनागमों में स्याद्वाद, भाग १ पृ०३० पर उद्धृत। तु०रा० वा० । ७. १३-१२ में उद्धृत जल में जीव है, स्थल पर जीव हैं, आकाश में भी सर्वत्र जीव ही जीव भरे पड़े हैं। इस प्रकार जीवों से ठसाठस भरे इस लोक में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ? (आगे तीन गाथाओं में इसी शंका का ___dan Education समाधान किया गया है।) १. तत्त्वतः मृत्यु व जन्म कुछ है ही नहीं। For Private & Personal use only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तेय सूत्र संयमाधिकार ८ वान व अप्रमत्त हैं, समिति-परायण है, उनको किसी जीव की हिंसा मात्र से बन्ध नहीं होता ।" ४. सत्य-सूत्र १६८. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृत व्रतमुच्यते । तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ योगशास्त्र । १.२१ ७२ तु० = शा० । ९.३ प्रिय, हितकारी व सत्य वचन बोलना सत्य व्रत कहलाता है । यहाँ इतना विवेक रखना आवश्यक है कि तथ्य वचन भी सत्य नहीं माना जाता, यदि वह अप्रिय हो या अहितकर हो । [ यथा एक नेत्र वाले को काना कहना, अथवा किसी बधिक को यह बताना कि इस जंगल में हिरण बहुत रहते हैं । ] १६९. पत्थं हिदयाणिट्ठे पि, भण्णमाणस्स सगणवासिस्स । कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स ॥ भ० आ०। ३५७ तु० उत्तरा० । १९.२७ पथ्यं हृदयानिष्टमपि, भण्यमाणस्य स्वगण वसतः । कटुकमिवौषधं तु, मधुरविपाकं भवति तस्य ॥ हे मुनियो ! तुम अपने संघवालों के साथ हितकर वचन बोलो। यदि कदाचित् वे हृदय को अप्रिय भी लगें, तो भी कोई हर्ज नहीं । क्योंकि कटुक औषधि भी परिणाम में मधुर व कल्याणकर ही होती है । ५. अस्तेय ( अचौर्य) - सूत्र १७०. चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहंसि अजाइया ॥ दशवे० । ६.१४ १. प्रयत्नवान् व्यक्ति स्वयं तो किसी की हिंसा के भाव करता ही नहीं। फिर भी चलतेफिरते, उठते-बैठते उससे यदि कदाचित कोई छोटा-मोटा जीव आहत हो जाये, तो उसकी हिंसा का दोष उसे नहीं लगता है। तु० ० ० २९१ (५.११२) संयमाधिकार ८ ७३ चित्तवद् अचित्तं वा अल्पं वा यदि वा बहुं । दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ॥ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दाँत कुरेदने की सोंक भी क्यों न हो, महाव्रती साधु गृहस्थ की आज्ञा के बिना ग्रहण न करे । अस्तेय-सूत्र नि० सा० । ५८ १७१. गामे वा णयरे वा, रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुंचदि गणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥ तु० - आचारांग । २४.४२ (१०४६) ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमार्थम् । यो मुञ्चति ग्रहणभावं तृतीयं व्रतं भवति तस्यैव ॥ ग्राम में, नगर में या वन में परायी वस्तु को देखकर जो मन में उसके ग्रहण करने का भाव नहीं लाता है, उसको तीसरा (अस्तेय या अचौर्य) महाव्रत होता है । १७२. वज्जिज्जा तेनाहडतक्करजोगं विरुद्ध रज्जं च । कूडतुल- कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥ सावय पण्णति । २६८ तु०त० सू० । ७.२७ वर्जयेत् स्तेनाहुतं, तस्करप्रयोगं विरुद्ध राज्यं च । कूटतुला कूटमाने, तत्प्रतिरूपं च व्यवहारम् ॥ [ महाव्रती साधु को तो इन बातों से कोई सम्बन्ध नहीं होता, रन्तु अस्तेय अणुव्रत के धारी श्रावक के लिए ये पांच बातें अस्तेय त के अतिचार या दोषरूप बतायी गयी हैं--] चोरी का माल लेना, स्वयं व्यापार में छिपने-छिपाने रूप जैसे कर प्रयोग करना, राज्याज्ञा का उल्लंघन करना ( घूसखोरी लैक मार्केट, स्मग्लिंग, टैक्स व रेलवे टिकट की चोरी आदि), नापपौल की गड़बड़ व मिलावट आदि सब चोरी के तुल्य हैं। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ब्रह्मचर्य-सूत्र संयमाधिकार ८ ६. ब्रह्मचर्य - सूत्र १७३. जीवो बंभा जीवम्मि चेव, चरिया विज्ज जा जदिणो । बंभचेरं, विमुक्कपरदेतित्तिस्स ॥ तं जाण भ० आ०।८७८ जीवो ब्रह्मा जीवो चैव, चर्या भवेत् या यतिनः । तं जानीहि ब्रह्मचर्यं विमुक्त पर देहतिक्तेः (व्यापारस्य ) ॥ जीवात्मा ही ब्रह्म है। देह के ममत्व का त्याग करके उस ब्रह्म में चरण करना ही महाव्रती साधु का परमार्थ ब्रह्मचर्य है। १७४. जउ कुंभे जोइउवगूढे, आसुभितत्ते णासमुवयाइ । एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥ सू० कृ० । ४.१.२७ तु० भ० आ० । १०९२ जतुकुम्भोज्योतिरुपगूढ़, आश्वभितप्तो नाशमुपयाति । एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति ॥ जिस प्रकार आग पर रखा हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तपकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्त्रियों के सहवास से साधू भी शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है । १७५. एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासायरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥ उत्तरा० । ३२.१८ तु० भ० आ० १११५ एताश्च संगान् समतिक्रम्य, सुखोत्तराश्चैव भवन्ति शेषाः । यथा महासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गंगासमाना ॥ जिस प्रकार महासागर को तिर जाने वाले के लिए गंगा नदी का तिरना अति सुलभ है, उसी प्रकार स्त्री-संग के त्यागी महात्मा के लिए अन्य सर्व त्याग सरल हो जाते हैं । संयमाधिकार ८ ७. परिग्रह - त्याग - सूत्र उत्तरा० । ३२.१०१ १७६. न कामभोगा समयं उर्वेति न यावि भोगा विगई उवेंति । जेतप्पओसीय परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥ तु० स० सि० । ७.१७ न कामभोगाः समतामुपयन्ति न चापि भोगाः विकृतिमुपयन्ति । यः तत्प्रद्वेषी च परिग्रही च स तेषु मोहात् विकृतिमुपैति ॥ काम भोग अपने आप न किसी में समता उत्पन्न करते हैं और न रागद्वेष रूप विषमता । मनुष्य स्वयं उनके प्रति रागद्वेष करके उनका स्वामी व भोगी बन जाता है, और मोहवश विकार-ग्रस्त हो जाता है । १७७. मूर्च्छाछन्नधियां सर्वं जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ॥ ज्ञान० सार । २५.८ तु० स० सि० । ७.१७ मोह के वशीभूत मूर्च्छित बुद्धिवाले के लिए यह जगत् ही परिग्रह है और मूर्च्छाविहीन के लिए सारा जगत् भी अपरिग्रह है। [ मूर्च्छाविहीन होने के कारण, श्वेताम्बराम्नाय में, साधु वस्त्र- पात्र आदि धारण करके भी परिग्रह के दोष से लिप्त नहीं होते हैं ।] ( इतना होने पर भी बाह्य-त्याग की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती।) ७५ १७८. सामिसं कुललं दिस्स, बज्झमाणं णिरामिसं । आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामि णिरामिसा ॥ तु० = म० आ० । २६४ उत्तरा० । १४.४६ परिग्रह त्याग सूत्र १. दे० गा० ४२७ सामिषं कुललं दृष्ट्वा, बाध्यमानं निरामिषम् । आमिषं सर्वमुज्झित्वा विहरिष्यामि निरामिषा ॥ एक पक्षी के मुंह में मांस का टुकड़ा देखकर दूसरे अनेक पक्षी उस पर टूट पड़ते हैं, किन्तु मांस का टुकड़ा छोड़ देने पर वह सुखी हो जाता है। इसी प्रकार दीक्षार्थी साधु भी समस्त परिग्रह को छोड़कर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमाधिकार ८ ७६ सागार-व्रत-सूत्र निरामिष हो जाता है । ( परिग्रह के कारण से उत्पन्न होने वाले अनेक विघ्न व संकट, परिग्रह का त्याग कर देने से सहज टल जाते हैं ।) ८. सागार (श्रावक ) व्रत-सूत्र १७९. पंचे अणुब्वयाई, गुणव्वयाई चहुंति तिन्नेव । सिक्खावयाइं चउरो, सावगधम्मो दुवालसविधं ॥ सावय पण्णति । ६ तु० = चा० पा० । २२ पंचैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि च भवति त्रीण्येव । शिक्षाव्रताति चत्वारि श्रावकधर्मो द्वादशविधा ॥ [ अनगार ( साधुओं) के पाँच महाव्रतों का निर्देश कर दिया गया] सागार या गृहस्थ श्रावकों का धर्म १२ प्रकार का है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । १८०. पंच उ अणुव्वयाई, थूलगपाणवह विरमणाईणि । तत्थ पढमं इमं खलु पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ सावय पण्णति । १०६ पंचत्वणुव्रतानि स्थूलप्राणिवध विरमणादीनि । तत्र प्रथमं इदं खलु प्रज्ञप्तं वीतरागः ॥ तु० = चा० पा० । २३ प्रथम पंचाणुव्रत का स्वरूप वीतराग भगवान् ने इस प्रकार कहा है--स्थूल प्राणिवध आदि से विरत हो जाना पाँच अणुव्रत हैं । १८१. दिसिविदिसिमाण पढमं, अणत्थदण्डस्स वज्जणं विदियं । भोगोवभोग परिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥ चा० पा० । २४ तु० उपा० दश० । १, सूत्र ४६-४८ दिग्विदिग्माणं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीम् । भोगोपभोगपरिमाणं इदमेव गुणवतानि त्रीणि ॥ दिव्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं । ( आगे ३ गाथाओं में इन तीनों का क्रमशः कथन किया गया है।) संयमाधिकार ८ सागार व्रत-सूत्र १८२. उड्ढमहो तिरियं पि य दिसासु, परिमाणकरणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलु, सावगधम्मम्मि वीरेण ॥ तु० = वसु० श्रा० । २१४ सावय पण्णति । २८० ऊर्ध्वमध स्तिर्यगपि च दिक्षु परिमाण करणमिह प्रथमम् । भणितं गुणव्रतं खलु श्रावकधर्मे वीरेण ॥ अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिए व्रती श्रावक ऊपर नीचे व तिर्यक् सभी दिशाओं का परिमाण कर लेता है, कि इतने क्षेत्र के बाहर किसी प्रकार का भी व्यवसाय न करूँगा । यही उसका दिव्रत नामक प्रथम गुणव्रत है । (सीमा से बाहर वाले क्षेत्र की अपेक्षा वह महाव्रती हो जाता है ।) १८३. उवभोगपरिभोगे बीयं परिमाणकरणमो णेयं । अणियमिवाविदोसा, न भवंति कायम्मि गुणभावो ॥ तु० वसु० श्रा० २१७ परिमाणकरणं विज्ञेयम् । भवन्ति कृते गुणभावः ॥ सावय पण्णति । २८४ ७७ उपभोग परिभोगयोः द्वितीयं अनियमितव्याप्तिदोषाः न काम-वासना को घटाने के लिए ताम्बूल, गन्ध, पुष्प व श्रृंगार आदि की वस्तुओं का परिमाण करना द्वितीय भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इसके प्रभाव से परिमाण बाह्य अनन्त वस्तुओं के प्रति आसक्तिभाव सर्वथा छूट जाता है। यही इसका गुणाकार करनेवाला गुणभाव है। १८४. अट्ठेण तं ण बंधइ, जमणट्ठेणं तु थोवबहुभावा । अट्ठे कालाइया, नियामगा न उ अणट्ठाए । अर्थेन तन्न नाति अर्थ कालादयो यदर्थेन नियामकाः सावय पण्णत्त । २९० स्तोकबहुभावात् । वनयें ॥ न Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमाधिकार ८ सामायिक-सूत्र संयमाधिकार ८ सागार-व्रत-सूत्र जीव को सप्रयोजन कर्म करने से उतना बन्ध नहीं होता जितना कि निष्प्रयोजन से होता है। क्योंकि सप्रयोजन कार्य में जिस प्रकार देश काल भाव आदि नियामक होते हैं, उस प्रकार निष्प्रयोजन में नहीं होते। श्रावक ऐसे अनर्थदण्ड का त्याग करता है। १८५. सामाइयं च पढम, विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुज्जं, चउत्थं सल्लेहणा अंते ॥ चा०पा० । २५ तु० = उपा० दश० । १ सूत्र ४९-५४ सामायिकं च प्रथम द्वितीयं च तथैव प्रोषधो भणितः । तृतीयं चातिथिपूजा चतुर्थ सल्लेखना अंते ॥ सामायिक', प्रोषधोपवास, अतिथि पूजा', और सल्लेखना (समाधि मरण) • ये चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। (क्योंकि इनसे श्रावक को अभ्यास आदि के द्वारा साधु-व्रत की शिक्षा मिलती है ।) १८६. आहारपोसहो खलु, सरीरसक्कारपोसहो चेव । बंभवावारेसु य, तइयं सिक्खावयं नाम । सावय पण्णत्ति । ३२१ तु० = वसु० श्रा० । २८० आहारप्रोषधः खलु, शरीरसत्कार प्रौषधश्चैव । ब्रह्माव्यापारयोश्च तृतीयं शिक्षावतं नाम ॥ (अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में उपवास धारण करके सारा दिन धर्मध्यान पूर्वक मन्दिर आदि में बिताना प्रोषध व्रत कहलाता है।) वह चार प्रकार का है-आहार का त्याग, शरीर-संस्कार व स्नान आदि का त्याग, ब्रह्मचर्य, तथा व्यापार-धन्धे का त्याग। ९. सामायिक-सूत्र १८७. जो समो सव्वभूएस, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इई केवलिभासियं ।। वि० आ० भा० । २६८० (३१६३) तु० = मू० आ० । ५२१ (७. २५) यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च। तस्य सामायिकं भवतीति केवलिभाषितम् ॥ जो मुनि बस व स्थावर सभी भूतों अर्थात् देहधारियों में समता भाव युक्त होता है, उसको सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। १८८. सावज्जजोगंपरिक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं । गिहत्थधम्मापरमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था॥ वि० आ० मा० । २६८१ (३१६४) सावधयोगपरिरक्षणार्थ सामायिक केवलिकं प्रशस्तम् । गृहस्थधर्मान् परमिति ज्ञात्वा, कुर्याद् बुध आत्महितं परार्थम् ॥ सावध योग से अर्थात् पापकार्यों से अपनी रक्षा करने के लिए पूर्णकालिक सामायिक या समता ही प्रशस्त है ( परन्तु वह प्रायः साधुओं को ही सम्भव है)। गृहस्थों के लिए भी वह परम धर्म है, ऐसा जानकर स्व-पर के हितार्थ बुधजन सामायिक अवश्य करें। १८९. विना समत्वं प्रसरन्ममत्वं, सामायिक मायिकमेव मन्ये । आये समानां सति सद्गुणानां, शुद्धं हि तच्छुद्धनया विदन्ति । अध्या० उप० । ४.८ तु० = नि० सार । १४७ १. यदि पूर्णकालिक सम्भव न हो सो शक्ति अनुसार दो-चार बड़ी मात्र के लिए ही करें (वि०मा० भा । २६८३) (३१६६) १. आवश्यकता के अनुसार कार्य करना मप्रयोजन है और बिना आवश्यकता के कुछ भी करना निष्प्रयोजन है। यथा-बिना आवश्यकता के विजली, पंखा व नल खुला छोड़ देना, किसी को पापाचार की सलाह देना, इत्यादि। + सामायिक व्रत दे० आगे सामायिक सूत्र; अतिथि पूजा व्रत = दे० गा० २६५ सल्लेखना व्रत = दे० अधि० १० For Private & Personal use only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमाधिकार ८ • समिति-सूत्र हदय में ममत्व भाव का प्रसार रखकर, समता के बिना की गयी सामायिक वास्तव में मायिक अर्थात् दम्भ है। समतायुक्त साधु-जनों के समान सद्गुणों का लाभ हो जाने पर ही सामायिक शुद्ध कही जाती है। १९० सामाइयं उ कए, समणो इव सावहो हवाइ जम्हा । एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा। वि० आ० भा० ।२६९० (३१७३) मू० आ० ।५३१ (७. ३९) सामायिके तु कृते श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् । एतेन कारणेन बहुशः सामायिकं कुर्यात् ॥ सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए सामायिक दिन में अनेक बार' करनी चाहिए। १०. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) १९१. इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती य अठ्ठमा ।। १९२. एयाओ पंचसमिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो ॥ उत्तरा० । २४.२, २६ तु० - मू० आ।१०+३३०-३३११ ईर्याभाषणाऽऽदाने उच्चारे समितिः इति । मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च अष्टमी ॥ एताः पंचसमितयः चरणस्य च प्रवर्तने । गुप्तयः निवर्तने प्रोक्ताः अशुभार्थेषु सर्वशः। (चलने बोलने खाने आदि में यत्नाचार पूर्वक बरतना समिति कहलाती है।) वह पांच प्रकार की है-ई, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उपचार प्रतिष्ठापन। मन वचन व काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ है। पंच समितियां तो चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्ति परक है और गुप्तियाँ समस्त अशुभ व्यापारों के प्रति निवृत्तिपरक है। संयमाधिकार ८ समिति-सूत्र १९३. फासुयमग्गेण दिवा, जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण । जंतूण परिहरंति, इरियासमिदी हवे गमणं ।। मू० आ० । ११. (१.१३) तु०-उत्तरा० । २४.७ प्रासुकमार्गेण दिवा युगन्तरप्रेक्षिणा सकार्येण । जन्तून परिहरता ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ॥ जिसमें जीव-जन्तुओं का आना-जाना प्रारम्भ हो गया है, ऐसे प्रासक मार्ग से, दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में, चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए चलना, ईर्या समिति कहलाता है। ( कोई क्षुद्र जीव पाँव के नीचे आकर मर न जाये ऐसा प्रयत्न रखना ईर्या समिति है)। १९४. पेसुण्णहासकक्कस-परणिदाप्पप्पसंसाविकहादी । वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी वे कहणं ।। मू० आ० । १२ (१.१४) तु०=उत्तरा० । २४.१०+ ____ दशव०। ७.३.५६ व ९.३.९ इन सबका संग्रह पैशून्यहास्यकर्कश-परनिन्दाऽऽत्मप्रशंसाविकथादीन् । वर्जयित्वा स्वपरहितं भाषासमितिः भवेत् कथनम् ॥ (किसीको मेरे वचन से कोई पीड़ा न पहुंचे, इस उद्देश्य से साधु) पैशन्य, उपहास, कर्कश, पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, राग-द्वेष-वर्धक चर्चाएं, आदि स्व-पर अनिष्टकारी जितने भी वचन हो सकते हैं, उन सबका त्याग करके, प्रयत्नपूर्वक स्व-पर हितकारी ही वचन बोलता है। यही उसकी भाषा समिति है। १९५. उद्देसियं कीयगडं पूइकम्मं च आहडं । अज्झोयरपामिच्च मीसजायं विवज्जए। तु०-मू: आ.(८.४०) औद्देशिक क्रीतकृतं पूतिकर्म च आहृतम् । अध्यकपूरकं प्रामित्यं मिश्रजातं विवर्जयेत् ॥ १. प्रभात, मध्याद व सन्ध्या इन तीनो मन्धिकालों में सामायिक करने का व्यवहार है। २. दे० गा० १५१-१५२ ३. मू० आ०। (१.१२ + ५. १५२-१५३) www.janelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमाधिकार ८ समिति-मूत्र (दातार पर किसी प्रकार का भार न पड़े इस उद्देश्य से) साधु जन निम्न प्रकार के आहार अथवा वसतिका आदि का ग्रहण नहीं करते हैं जो गृहस्थ ने साधु के उद्देश्य से तैयार किये हों, अथवा उसके उद्देश्य से ही मोल या उधार लिये गये हों, अथवा निर्दोष आहारादि में कुछ भाग उपरोक्त दोष युक्त मिला दिया गया हो, अथवा साधु के निमित्त उसके समक्ष लेकर खड़ा हो, अथवा अपने लिए बनाये गये में इस उद्देश्य से कुछ और अधिक मिला दिया गया हो कि साधु आयगे तो उन्हें भी देना पड़ेगा, अथवा स्वयं व साधु दोनों को लक्ष्य में रखकर बनाया हो, इत्यादि । यही साधु की एषणा समिति कहलाती है। [साघु-जन शरीर के लिए नहीं, बल्कि संयम-रक्षा के लिए भोजन करते हैं। भ्रमर की भांति वे इस प्रकार भिक्षा-चर्या करते हैं कि किसी पर किसी प्रकार का भी भार न पड़े। तथा भिक्षा में रूखा-सूखा सरस या नीरस, ठण्डा या गर्म जैसा भी मिल जाये, उसीमें सन्तुष्ट रहते हैं।'] १९६. चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई। आइये निक्खिवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया ॥ उत्तरा०।२४.१४ तु०= मू० आ० । १४ (१.१६) चक्षुषा प्रतिलेख्य, प्रमार्जयेत् यतो यतिः । आददाति निक्षिपेद् वा, द्विधाऽपि समितः सदा ॥ साधु के पास अन्य तो कोई परिग्रह होता ही नहीं। संयम व शौच के उपकरणभूत रजोहरण, कमण्डलु, पुस्तक आदि मात्र होते हैं। उन्हें उठाते-धरते समय वह स्थान को भली प्रकार झाड़ लेता है, ताकि उनके नीचे दबकर कोई क्षुद्र जीव मर न जाय। उसकी यह यतना ही आदान निक्षेपण समिति कहलाती है। १९७. एगते अच्चित्ते दूरे, गूढे विसालमविरोहे । उच्चारादिच्चाओ, पदिठावणिया हवे समिदी॥ मू० आ०।१५ (१.१७) तु०- उत्तरा०।२४.१८ संयमाधिकार ८ गुप्ति -सूत्र एकान्ते अचित्ते दूरे गूढे विशाले अविरोधे । उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठापनिका भवेत्समितिः॥ [पास-पड़ोस के किसी भी व्यक्ति को अथवा भूमि में रहने वाले क्षुद्र जीवों को कोई कष्ट न हो तथा गाँव में गन्दगी न फैले, इस उद्देश्य से ] साधु अपने मल-मूत्रादि का क्षेपण किसी ऐसे स्थान में करता है, जो एकान्त में हो, जिस पर या जिसमें क्षुद्र जीव न घूम-फिर या रह रहे हों, जो दूसरों की दृष्टि से ओझल हो, विशाल हो और जहाँ कोई मना न करता हो । इस प्रकार की यतना ही उसकी प्रतिष्ठापना समिति कहलाती है। ११. गुप्ति (आत्म-गोपन)-सूत्र १९८. जा रायादिणियत्ती, मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्ती वा, मोणं वा होदि वचिगुत्ती॥ भू० आ० । ३३२ (५.१५४) तु०-उत्तरा० । २४.२०-२३ या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहिं तां मनोगुप्ति । अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वचोगुप्तिः॥ मन का राग-द्वेष से निवृत्त होकर (समताभाव में स्थित हो जाना) मनोगुप्ति है। असत्य व अनिष्टकारी वचनों की निवृत्ति अथवा मौन' वचन-गुप्ति है। १९९. कायकिरियाणियत्ती, काओसग्गे सरीरगुत्ती। हिंसादिणियत्ती वा, सरीरगुत्ती हवदि एसा ॥ मू० आ० । ३३३ (५.१५५) तु० = उत्तरा० । २४.२४-२५ कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः। हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिर्भवति एषा॥ समस्त कायिकी क्रियाओं को निवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग निश्चय काय-गुप्ति है और हिंसा-असत्य आदि पाप-क्रियाओं को निवृत्ति व्यवहार काय-गुप्ति है। १. दे. गा०२५२-२५३ १. मीन के लिए दे०मा० २००-२०१ For Private & Personal use only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमाधिकार ८ युक्ताहार विहार १२. मनो मौन २००. सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगीनां मौनमुत्तमम् ॥ ज्ञान० सा० । १३.७ तु० = स० श०।१७ वचन को रोक लेना बहुत सुलभ है। ऐसा मौन तो एकेन्द्रियादिकों को (वृक्षादिकों को) भी होता है । देहादि अनात्मभूत पदार्थों में मन की प्रवृत्ति का न होना ही योगियों का उत्तम मौन है। २०१. जं मया दिस्सदे रूवं, तंण जाणादि सव्वहा । जाणगं दिस्सदे णं तं, तम्हा जंपेमि केण हैं । मो० पा०।२९ तु० == ज्ञा० सा० । १३.८ यत् मया दृश्यते रूपं, तत् न जानाति सर्वथा। ज्ञायकं दृश्यते न तत् , तस्मात् जल्पामि केन अहम् ॥ जिस रूप को (देह को) मैं अपने समक्ष देखता हूँ, वह जड़ होने के कारण कुछ भी जानता नहीं है। और इसमें जो ज्ञायक आत्मा है, वह दिखाई नहीं देता। तब मैं किसके साथ बोलू ? १३. युक्ताहार विहार २०२. इहलोगणिरवेक्खो, अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहारविहारो, रहिदकसाओ हवे समणो ।। प्र० सा० । २२६ तु० = दशवै०। ९.३.५ इहलोकनिरपेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके। युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ॥ जो योगी इस लोक के सुख व स्थाति प्रतिष्ठा आदि से निरपेक्ष है, और परलोक विषयक सुख-दुख आदि की कामना से रहित (अप्रतिवद्ध) है, रागद्वेषादि कषायों से रहित है और युक्ताहार विहारी है, वह श्रमण है। १. विशेष दे० गा० २५१-२५३ तप व ध्यान अधिकार (राज योग) जीवन की विविध कमजोरियों व भयों को जीतने के लिए तप अत्यन्त आवश्यक है। अनशन आदि शारीरिक ता बाह्य हैं और प्रायश्चित स्वाध्याय ध्यान आदि मानसिक तप आभ्यन्तर। __ मंत्र के जप व तत्त्व-चिन्तन आदि के अभ्यास से योगी धीरे-धीरे निरालम्ब दशा को प्राप्त हो जाता है। तब उसके लिए न कुछ करने को शेष रहता है, न बोलने को और न विचारने को। For Private & Personal use only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप व ध्यान अधि०९ तपोग्नि-सूत्र १. तपोग्नि-सूत्र २०३. विसयकसायविणिग्गहभावं, काऊण झाणसज्झाए । जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ।। बा० अणु०। ७७ तु०- अध्या० सा० । १८.१५६ विषयकषायविनिग्रहभावं, कृत्वा ध्यानस्वाध्यायै। यः भावयति आत्मानं, तस्य तपः भवति नियमेन ॥ पाँचों इन्द्रियों को विषयों से रोककर और चारों कषायों का निग्रह करके, ध्यान व स्वाध्याय के द्वारा जो निजात्मा की भावना करता है, उसको नियम से तप होता है। २०४. अज्झवसाणविसुद्धीए, वज्जिदा जं तवं विगळंपि। कुव्वंति बहिल्लेस्सा, ण होइ सा केवली सुद्धी ॥ भ० आ० । २५७ तु० = अध्या० सा० । १८.१५७ अध्यवसानविशुद्धया, वजिता ये तपः उत्कृष्टमपि। कुर्वन्ति बहिर्लेश्याः, न भवति सा केवला शुद्धिः॥ परिणामों की शुद्धि से रहित तथा पूजा और सत्कार आदि में अनुरक्त जो (साधु) उत्कृष्ट भी तप करते हैं, उनके निर्दोष शुद्धि नहीं पायी जाती। २०५. नाणमयवायसहिओ, सोलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी। संसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी व तणरासि ।। मरण समाधि । ६२८ तु० - म० आ०।१४७२ ज्ञानमयवातसहितं, शोलोज्ज्वलं तपो मतोऽग्निः । संसारकरणबीजं, दहति दवाग्निरिव तृणराशिम् ॥ ज्ञानमयी वायु से राहित शील द्वारा प्रज्वलित की गयी तप रूपी अग्नि संसार के कारण व बीजभूत कर्म-राशि को इस प्रकार भस्म कर देती है, जिस प्रकार वायु के वेग से प्रचण्ड दावाग्नि तृणराशि को भस्म कर देती है। तप व ध्यान अधि०९ अनशनादि तप २०६. जं अन्नाणी कम्म, खवेहि बहुआहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमित्तेण ॥ महा० प्रत्या०। १०१ प्र० सा०।२३८ यं अज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः। तज्ज्ञानी विभिगुप्तः, क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ॥ [परन्तु अज्ञानी व ज्ञानी के तप में आकाश-पाताल का अन्तर है] अज्ञानी जितने कर्म अनेक कोटि वर्षों में खपाता है, उतने कर्म ज्ञानी मन वचन काय के गोपन द्वारा एक उच्छ्वास मात्र में खपा देता है। २०७. तस्माद्वीर्य समुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः । ____ बाह्य वाक्कायसम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम् ।। मोक्ष पंचाशत । ४८ तु०- उत्तरा०।३०.७ ___ आत्म-बल का उद्रेक हो जाने के कारण योगी की समस्त इच्छाएँ निरुद्ध हो जाती हैं। उसे ही परमार्थतः तप जानना चाहिए। वह दो प्रकार का होता है-बाह्य व आभ्यन्तर । कायिक व वाचसिक तप बाह्य है और मानसिक आभ्यन्तर। २. अनशन आदि तप २०८. सो नाम अणसणतवो, जेण मणो अमंगलं न चितेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ।। मरण समा०।१३४ तु० = का० अ०४४०-४४१ तन्नाम अनशनतपो, येन मनोऽमंगलं न चिन्तयति। येन नेन्द्रियहानियेन च योगा न हीयन्ते ॥ सच्चा अनशन तप वह है, जिसमें मन किसी प्रकार के अमंगल का चिन्तवन न करे, जिसमें इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो और जिसमें योग या साधना में किसी प्रकार की हानि न हो। १. बाह्य तप छह प्रकार का है- अनशन, उनोदर, वृत्ति परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त देश सेवित्व तथा काय-क्लेश । इनका कथन आगे क्रम से किया गया है। २. आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है-प्रायश्चित, विनय, वयवृत्या (सेवा), कायोत्सर्ग, खाध्याय व ध्यान । इनका भी कथन आगे क्रम से किया जायेगा। For Private & Personal use only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप व ध्यान अधि०९ ८९ प्रायश्चित्त तप तप व ध्यान अधि०९ ८८ विविक्त देश-सेवित्व २०९. छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहि, अबहुसुयस्स जो सोही। तत्तो बहुतरगुणिया, हविज्ज जिमियस्स नाणिस्स ॥ मरण समा०। १३१ षष्ठाष्टमदशमद्वादशेरबहुश्रुतस्य या शुद्धिः । ततो बहुतरगुणिता, भवेत् जिमितस्य ज्ञानिनः॥ [यद्यपि आत्मबल की वृद्धि के अर्थ योगी जन अनशन तप अवश्य करते हैं, परन्तु इसमें भोजन-त्याग का अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि] दो-तीन-चार व छह छह दिन के अनशन से भी अज्ञानी को जितनी शुद्धि होती है, उससे अनेक गुणा शुद्धि तो नित्याहारी ज्ञानी को सहज ही होती है। ---(एक दो आदि ग्रासों के क्रम से आहार को धीरे धीरे घटाना ऊनोबरी नामक द्वितीय तप है।) --(अमुक विधि से अमुक प्रकार का आहार भिक्षा में मिलेगा तो लेंगे अन्यथा नहीं लेंगे, योगी जो आत्म-विश्वास की अभिवृद्धि के लिए इस प्रकार के अटपटे अभिग्रह धारण करता है, वह वृत्ति-परिसंख्यान नामक तृतीय तप है।) --(दूध, दही, घी, तेल, शक्कर व नमक इन छह रसों में से एक-दो को अथवा छहों को छोड़ कर नीरस आहार ग्रहण करना रस-परित्याग नामक चतुर्थ तप है।) ३. विविक्त देश-सेवित्व २१०. लोइयजणसंगादो, होइ मइमुहरकुडिलदुब्भावो। लोइयसंगं तम्हा, जोइ वि तिविहेण मुंचाओ। र० सा०।४२ लौकिकजनसंसर्गात, भवति मतिमुखर-कुटिलदुर्भावः । लौकिकसंसर्ग तस्मात्, योगी अपि त्रिविधेन मुंचेत् ॥ लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाला वतक्कड़, कुटिल परिणाम और दुष्ट भावों से प्रायः अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। इसलिए, मुमुक्षु जनों को मन वचन काय से लौकिक संगति का त्याग कर देना चाहिए। २११, एगंतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ।। उत्तरा०।३०.२८ तु० = का० अ०। ४४९ एकान्तेऽनपाते, स्त्रीपशुविजिते। शयनासनसेवनया, विविक्तशयनासनम् ॥ जहाँ किसी का आना-जाना न हो, विशेषतः स्त्री व पशु के संसर्ग से वजित हो, ऐसे शून्य व निर्जन स्थान में रहना अथवा सोना-बैठना आदि विविक्त शय्यासन नाम का पंचम तप है। ४. कायक्लेश तप (हठ-योग) २१२. ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जति, कायकिलेसं तमाहियं ।। उत्तरा० । ३०.२७ तु० = मू० आ० । ३५६ (५.१७९) स्थानानि वीरासनादानि, जीवस्य तु सुखावहानि । उग्राणि यथा धारयन्ते, कायक्लेशः स आख्यातः ॥ [ आत्मबल की वृद्धि के तथा शरीर पर से ममत्व भाव का त्याग करने के अर्थ ] योगीजन वीरासन, कुक्कुट आसन, शवासन आदि विविध प्रकार के उत्कट व उग्र आसनों को धारण करके धूप शीत या वर्षा में निर्भय व निश्चल बैठे या खड़े रहते हैं। यही कायक्लेश नामक छठा बाह्य तप है। (अब क्रम से प्रायश्चित आदि आभ्यन्तर या मानसिक तपों का कथन किया जाता है।) ५. प्रायश्चित्त तप २१३. कोहादिसगब्भावक्खयपहुदीभावणाए णिग्गहण । पायच्छित्तं भणिदं, णियगुणचिता य णिच्छयदो॥ नि० सा०।११४ For Private & Personal use only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education तप व ध्यान अधि० ९ ९० क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिन्ता च [ मन वचन काय के द्वारा व्यक्ति को नित्य ही जो छोटे बड़े दोष लगते रहते हैं, उनके शोधनार्थं प्रायश्चित्त महा औषधि है ।] क्रोधादि रूप स्वकीय दोषों के क्षय की भावना तथा ज्ञान दर्शन आदि निज पारमार्थिक गुणों का चिन्तन करते रहना निश्चय प्रायश्चित्त तप कहलाता है । निर्ग्रहणम् । निश्चयतः ॥ २१४. आलोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जे भिक्खू वहई सम्मं, पायच्छित्तं तमाहियं ॥ तु० मू० आ० । ३६१-३६२* उत्तरा० । ३०.३१ आलोचनार्हादिकं प्रायश्चित्तं तु दशविधम् । यद् भिक्षुर्वहति सम्यक्, प्रायश्चित्तं तदाख्यातम् ॥ प्रायश्चित्त तप प्रकाशनात्संवरणाच्च अपने दोषों के शोधनार्थ जो भिक्षु गुरु के समक्ष दोषों की निष्कपट आलोचना करता है, और गुरुप्रदत्त दण्ड को सविनय अंगीकार करता है, अथवा प्रायश्चित्त के शास्त्रोक्त दश भेदों का सम्यक्रीत्या पालन करता है, उसको प्रायश्चित्त नामक तप होता है। २१५. कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि, तनू भवन्त्यात्मविगर्हणेन । तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ॥ १. मू० आ०। (५.१८४ - १८५ ) घ० १३ । गा० १० तु० = उत्तरा० । २९.५-७, १६ अपनी निन्दा व गर्दा करने से तथा गुरु के समक्ष दोषों का प्रकाशन करने मात्र से किये गये अति दारुण कर्म भी कृश हो जाते हैं। तप व ध्यान अधि० ९ ६. विनय तप २१६. अब्भुट्ठाणं उत्तरा० १३०-३२ अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्ति भावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ।। ९१ तु०भ० आ०। ११९ अभ्युत्थान मंजलिकरणं, तथैवासनदानम् । गुरुभक्तिभावसुश्रूषा, विनय एष व्याख्यातः ॥ गुरुजनों के आने पर खड़े हो जाना, हाथ जोड़ना, उन्हें बैठने के लिए उच्चासन देना, उनकी भक्ति तथा भावसहित सेवा सुश्रूषा करना, ये सब विनय नामक आभ्यन्तर तप के लिंग हैं। भ० आ० । १२९ विनय तप २१७. विणओ मोक्खद्दारं, विणयादो संजमो तवो णाणं । विणएणाराहिज्जइ, आयरिओ सव्वसंघो य ॥ तु० दश वै० । ९.२.१-२ विनयो मोक्षद्वारं, विनयात् संयमः तपः ज्ञानम् । विनयेनाराध्यते, आचार्य: सर्वसंघश्च ॥ विनय मोक्ष का द्वार है, क्योंकि इससे संयम, तप व ज्ञान की सिद्धि होती है और आचार्य व संघ की सेवा होती है। २१८. दंसणणाणे विणओ, चरित तव ओवचारिओ विणओ । पंचविहो खलु विणओ, पंचमगइणायगो भणिओ ॥ मू० आ० । ३६४ (५.१८७ ) दर्शनज्ञाने विनयश्चारित्रतप औपचारिको विनयः । पंचविधः खल विनयः, पंचमगतिनायको भणितः ॥ विनय पांच प्रकार की होती है-दर्शन- विनय, ज्ञान-विनय चारित्र-विनय, तप- विनय और उपचार - विनय । [ तहाँ दर्शन आदि पारमार्थिक गुणों के प्रति बहुमान का होना प्रधान, निश्चय या मौलिक विनय है। गुरुजनों, गुणीजनों व वृद्धजनों के प्रति यथायोग्य विनय का होना उसकी साधनभूत उपचार या व्यवहार - विनय है ।] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप व ध्यान अधि० ९ ९२ ७. वैयावृत्त्य तप ( सेवा योग ) २१९. सेज्जागासणिसेज्जा - उवधीपडिलेहणा उवग्गहिदे । आहारो सहवायण, विकिंचणुव्वत्तणादीसु ॥ २२०. उद्घाण तेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे । वेज्जावच्चं उत्तं, संगहणारक्खणोवेदं ॥ भ० आ०३०५-३०६ तु० उत्तरा० । ३०.३३ वैयावृत्त्य तप शय्यावकाशनिषद्योपधि- प्रति लेखनोपग्रहः । आहारौषध बाचना किचनोद्वर्तनादिषु ॥ अध्वानस्तेन श्वापद-राज-नदी रोधकाशिवे दुर्भिक्षे । वैय्यावृत्त्ययुक्तं संग्रहणारक्षणोपेतम् । ( इन दो गाथाओं में गुरु-सेवा के विविध लिंगों का कथन है।) वृद्ध व ग्लान गुरु या अन्य साधुओं के लिए सोने व बैठने का स्थान ठीक करना, उनके उपकरणों का शोधन करना, निर्दोष आहार व औषध आदि देकर उनका उपकार करना, उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें शास्त्र पढ़कर सुनाना, अशक्त हों तो उनका मैला उठाना, उन्हें करवट दिलाना, सहारा देकर बैठाना आदि । थके हुए साधु के हाथ-पाँव आदि दबाना, नदी से रुके हुए अथवा रोग से पीड़ित साधुओं के उपद्रव यथासम्भव मंत्र-विद्या व औषध आदि के द्वारा दूर करना, दुर्भिक्ष पीड़ित को सुभिक्ष देश में ले जाना आदि सभी कार्य वैयावृत्त्य कहलाते हैं। २२१. गुणपरिणाम सड्ढा, वच्छल्लं भत्तीपत्तलंभो य । संघाण तव पूया, अव्वोच्छित्ती समाधी य ॥ म० आ । ३०९ गुणपरिणामः श्रद्धा, वात्सल्यं भक्तिः पात्रलम्भश्च । सन्धानं तपः पूजा, अव्युच्छित्तिः समाधिश्च ॥ वृत्तप में अनेक सद्गुणों का वास है अथवा इससे अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है। यथा--गुणग्राह्यता, श्रद्धा, भक्ति, तप व ध्यान अधि० ९ ९३ ध्यान-समाधि सूत्र वात्सल्य, सपात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्वादि गुणों का पुनः संधान, तप, पूजा, तीर्थ की अव्युच्छित्ति, समाधि आदि । ८. स्वाध्याय तप २२२. पूयादिसु णिरवेक्खो, जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममलसोहण, सुयलाहो सहयरो तस्स ॥ का० अ० । ४६२ पूजादिषु निरपेक्षः, जिनशास्त्रं यः पठति भक्तया । कर्म मलशोधनार्थं, श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ॥ पूजा-प्रतिष्ठा आदि की चाह से निरपेक्ष, जो योगी बहुमान व भक्ति भाव से अथवा केवल कर्म मल का शोधन करने की भावना से शास्त्रों का पठन व मनन आदि करता है, उसके लिए श्रुत या ज्ञान का लाभ अत्यन्त सुलभ हो जाता है। २२३. बारसविहम्मि वि तवे, अभितर बाहिरे कुसलदिट्ठे । नवि अत्थि नवि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ मरण समा० । १२९ भ० आ० । १०७ द्वादशविधेऽपि तपसि साभ्यन्तरबाह्ये कुशलदृष्टे । नैवास्ति नापि च भविष्यति, स्वाध्यायसमं तपः कर्म ॥ उपरोक्त बारह प्रकार के वाह्याभ्यन्तर तपों में स्वाध्याय के समान तपोकर्म न तो है और न कभी होगा। ९. ध्यान-समाधि सूत्र २२४. सुचिए समे विचित्ते, देसे णिज्जंतुए अणुणाए । उज्जुअआयददेहो, अचलं बंधेत्तु पलिअंक ॥ भ० आ० | २०८९ तु० = अध्या० सा० । १५.८१-८२ शुचिके समे विचित्ते, देशे निर्जन्तुकेऽनुज्ञाते । ऋजुकायत बेहोऽचलं, बद्धवा पल्यंकम् ॥ पवित्र, सम, निर्जन्तुक तथा स्वामी अथवा देवता आदि से जिसके लिए अनुज्ञा ले ली गयी हो, ऐसे स्थान में, शरीर व कमर को सीधा रखते हुए निश्चल पर्यकासन बाँध कर ध्यान किया जाता है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप व प्यान अधि०९ ९ ४ ध्यान-समाधि सूत्र २२५. अलक्ष्यं लक्ष्यसम्बन्धात्, स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं, तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा ॥ योग शास्त्र । १०.५ तु० ज्ञा०।३३.४ लक्ष्य के सम्बन्ध से अलक्ष्य का तथा स्थल के सम्बन्ध से सक्ष्म का चिन्तवन किया जाता है। तत्वविद् व्यक्ति सालम्ब ध्यान से शीघ्र ही निरालम्ब तत्त्व को प्राप्त कर लेता है। २२६. अनन्यशरणीभूय, स तस्मिल्लीयते तथा । ध्यातृध्यानोभयाभावे, ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ॥ योग शास्त्र । १०.३ तु० = ज्ञानार्णव। ३१.३७ क्योंकि ध्याता का मन अन्य सब लक्ष्यों की शरण छोड़कर परम तत्त्व में ऐसा लीन हो जाता है, कि ध्याता व ध्यान का भी कोई भेद नहीं रह जाता। वह ध्येय के साथ एकता को प्राप्त हो जाता है। २२७. चितंतो ससरूवं जिबिंबं, अहव अक्खरं परमं । झायदि कम्मविवायं, तस्स वयं होदि सामाइयं ।। ___ का० अ०। ३७२ चिन्तयन स्वस्वरूपं जिनबिम्बं, अथवा अक्षरं परमम् । ध्यायति कर्मविपाक, तस्य व्रतं भवति सामायिकं ॥ जो व्यक्ति स्वस्वरूपका व जिनबिम्ब का चिन्तवन, अथवा परम अक्षर ॐकार का जप व ध्यान करता है, अथवा कर्मों के विपाक का ध्यान करता है, उसको 'सामयिक'' नामक बत होता है। २२८. किंचिवि दिठिमुपावत्तइत्तु, ज्झये णिरुद्धदिट्ठीओ। अप्पाणम्मि सदि, संधित्ता संसारमोक्खळं ।। म. आ०।१७०६ तु०-यो० शा०१२.३१-३२ किंचिन् दृष्टिमुपावर्त्य, ध्येये निरुद्धदृष्टिः । आत्मनि स्मृति संघाय, संसार-मोक्षार्थम् ॥ तप व ध्यान अधि०९ ध्यान-समाधि सूत्र जिसकी दृष्टि बाह्य ध्येयों में अटकी हुई है, वह उस विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को आत्मा में लगावे।। २२९. एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाद् ध्यानं भजेन्निरालम्बम् । ___समरसभावं यातः, परमानन्दं ततोऽनुभवेत् ।। योग शास्त्र । १२.५ तु० = ज्ञा०।३०.५ इस प्रकार क्रमशः ध्यान का अभ्यास करते-करते योगी निरालम्ब को भजने लगता है। और समरस भाव को प्राप्त होकर वह किसी अद्वितीय परमानन्द का अनुभव करने लगता है। २३०. जं किंचिवि चितंतो, गिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लद्धूणय एयत्तं, तदाहु तं णिच्छयं झाणं ॥ द्र०सं०। ५५ यत्किंचिदपि चिन्तयन्, निरीहवृत्तिः भवति यदा साधुः । लब्ध्वा च एकत्वं, तदा आहुः तत् तस्य निश्चयं ध्यानम् ॥ [अभ्यासवश ऊपर उठ जाने पर] साधु जब ध्येय के प्रति एकाग्रचित्त होकर निरीहवृत्ति से किसी भी विषय का चिन्तवन करता है तब वही उसके लिए निश्चय से ध्यान बन जाता है। २३१. मा चिट्ठह मा पह मा चिन्तह, किं विजेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्हि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ।। द्र०सं०। ५६ तु० = यो० शा० । १२.१९ मा चेष्टत मा जल्पत मा चिन्तयत, किमपि येन भवति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः, इदं एव परं ध्यानं भवति ॥ [इस प्रकार करने से ध्याता एक ऐसी तूष्णी अवस्था को प्राप्त हो जाता है, कि वह न तो शरीर से कुछ चेष्टा करता है, न वाणी से कुछ बोलता है और न मन से कुछ चिन्तवन ही करता है। उसके मन वचन व काय स्थिर हो जाते हैं, और उसकी आत्मा आत्मा में ही रत हो जाती है। यही चरम अवस्था का वह परम ध्यान है [जिसे शुक्लध्यान या समाधि कहते हैं।] १. सामायिक व्रत के अन्तर्गत भी ध्यान किये जाने का विधान है। For Private & Personal use only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरलेखना-मरण-अधिकार (सातत्य योग) जीना ही नहीं, मरना भी एक कला है। 'अन्त मति सो गति' उक्ति प्रसिद्ध है। जब मृत्यु निश्चित ही है तो क्यो न इस तरह मरा जाय कि मृत्यु की ही मृत्यु हो जाय । इससे पहले कि मृत्यु आँखें दिखाये, योगी स्वयं ही कषाय व आहारादि को क्षीण करके देह का समतापूर्वक त्याग कर देते हैं। परन्तु ऐसा करने के लिए समस्त जीवन की साधना अपेक्षित है। सल्लेखना अधिकार १० आदर्श मरण १: आदर्श मरण २३२. धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्स मरियव्वं । तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं ।। मरण समा०।३२१ धीरेणापि मर्त्तव्यं, कापुरुषेणाप्यवश्य मर्तव्यं । तस्मादवश्यमरणे वरं खलु धीरत्वेन मर्तुम् ॥ क्या धीर और क्या कापुरुष, सबको ही अवश्य मरना है। इसलिए धीर-मरण ही क्यों न मरा जाये। २३३. इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो। खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं ।। मरण समा० । २८० तु० - मू० आ० । ७७ (२.६४) एक पण्डितमरणं, प्रतिपद्यते सुपुरुषः असंभ्रान्तः । क्षिप्रं सः मरणानां, करोत्यन्तमनन्तानाम् ॥ सम्यग्दृष्टि पुरुष एकमात्र पण्डित-मरण का ही प्रतिपादन करते है, क्योंकि वह शीघ्र ही अनन्त मरणों का अन्त कर देता है। २३४, चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मण्णमाणो। ___लाभंतरे जीविय बहइत्ता, पच्छा परिण्णाय मलावधंसी।। उत्तरा०। ४.७ तु० भ० आ०।७१-७४ चरेत् पदानि परिशंकमानः, यत्किंचित्पाशं इह मन्यमानः । लाभान्तरे जीवितं बृहयिता, पश्चात् परिज्ञाय मलावध्वंसी। योगी को चाहिए कि वह चारित्र में दोष लगने के प्रति सतत् शंकित रहे, और लोक के थोड़े से भी परिचय को बन्धन मानकर स्वतंत्र विचरे। जब तक रत्नत्रय के लाभ की किचिन्मात्र भी सम्भावना हो तब तक जीने को बुद्धि रखे अर्थात् शरीर की सावधानी से रक्षा करे, और जब ऐसी आशा न रह जाय, तब इस शरीर को ज्ञान व विवेकपूर्वक त्याग दे। For Private & Personal use 19 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना अधिकार १० सातत्य योग सल्लेखना अधिकार १० ९८ देह-त्याग २३५. तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं, अणुवठिदे भये पुरदो। सो मरणं पच्छितो, होदि दु सामण्णणिविण्णो । भ० आ० । ७६ तस्य न कल्पते भक्तप्रतिज्ञा-मनुपस्थिते भये पुरतः । सो मरणं प्रेक्षमाणः, भवति हि श्रामण्यान्निविण्णः ॥ परन्तु यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति संयममार्ग में कोई भय न होने पर भी मरने की इच्छा करता है, तो उसे वास्तव में संयम से विरक्त हुआ ही समझो। २. देह-त्याग २३६. संलेहणा य दुविहा, अभिंतरिया य बाहिरा चेव । __ अभितरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥ मरण समा०।१७६ तु० भ० आग२०६ सल्लेखना च द्विविधा, अभ्यन्तरा च बाह्या चैव । अभ्यन्तरा कषाये, बाह्या भवति च शरीरे ॥ सल्लेखना अर्थात् पण्डितमरण दो प्रकार का होता है-आभ्यन्तर व बाह्य । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को कुश करना बाह्य। २३७. णवि कारणं तणमओ, संथारो णवि य फासुया भूमी। अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स ॥ महा प्रत्या० । ९६ तु० - भ० आ० । १६७२ नैव कारणं तृणमयः संस्तारकः, नैव च प्रासुका भूमिः । आत्मैव संस्तारको भवति, विशुद्धं मनो यस्य । न तो तृणमय संस्तर ही सल्लेखना-मरण का कारण है और न ही प्रासुक भूमि। जिसका मन शुद्ध है ऐसा आत्मा ही वास्तव में संस्तारक है । २३८. कसाए पयणूए किच्चा, अप्पाहारे तितिक्खए। अह भिक्खू गिलाइज्जा, आहारस्सेव अंतियं । आचारांग । ८.८.३ तुम. आ० । २४७ कषायानु प्रतनून् कृत्वा, अल्पाहारान् तितिक्षते। अथ भिक्षुग्ायेत्, आहारस्येव अन्तिकम् ॥ सल्लेखनाधारी क्षपक को चाहिए कि वह कषायों को पतला करे और आहार को धीरे-धीरे घटाता जाय। क्षमाशील रहे तथा कष्ट को सहन करे। क्रमशः आहार घटाने से जब शरीर अति कृश हो जाय तो उसका सर्वथा त्याग करके अनशन धारण कर ले। ३. अन्त मति सो गति २३९. जो जाए परिणिमित्ता, लेस्साए संजुदो कुणइ कालं । तल्लेस्सो उववज्जइ, तल्लेस्से चैव सो सग्गे ।। म. आ०।१९२२ तु० = संस्तारक प्रकीर्णक । ५२ यो यया परिनिमित्तात्, लेश्यया संयुक्तः करोति कालम् । तल्लेश्यः उपजायते, तल्लेश्ये चैव सः स्वर्गे॥ जो व्यक्ति जिस लेश्या या परिणाम से युक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, वह अगले भव में उस लेश्या के साथ उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उत्पन्न होता है। ४. सातत्य योग २४०. जह रायकुलपसूओ, जोग्गं णिच्चमवि कुणई परियम्म। तो जिदकरणो जुद्धे, कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ।। २४१. इह सामण्ण साधू वि कुणदि, णिच्चमवि जोग परियम्म । तो जिदकरणो मरण मागसमत्थो भविस्संति ।। यथा राजकुलप्रसूतो योग्यं नित्यमपि करोति परिकर्म । ततः जितकरणो युद्धे कर्मसमर्थो भविष्यति हि ॥ ____Jain Education internationa" " ९ . For Private & Personal use only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सल्लेखना अधिकार १० सातत्य योग एवं धामण्यं साघुरपि करोति नित्यमपि योगपरिकर्म । ततः जितकरणः मरणे ध्याने समर्थो भविष्यतीति । जिस प्रकार कोई राजपुत्र शस्त्र-विद्या की साधनभूत सामग्री का नित्य अभ्यास करते रहने से शस्त्र-विद्या में निपुण होकर, युद्ध के समय शत्रु को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। उसी प्रकार साधु भी जीवन पर्यन्त नित्य ही संयम व तप आदि का अभ्यास करते रहने से समता-मार्ग में निपुण होकर, मरण के समय ध्याननिष्ठ होने के योग्य हो जाता है। :११: धर्म अधिकार ( मोक्ष संन्यास योग) 'धर्म' शब्द स्वभाववाची है, अतः आत्मा का पूर्वोक्त समता स्वभाव ही उसका धर्म है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, ये दश इसके लिंग हैं। गृहस्थ के लिए पूर्वोक्त द्वादश व्रत तथा दया दान पूजा आदि, और साधु के लिए व्रत समिति गप्ति आदि समता स्वभाव को प्राप्त करने के साधन हैं। For Private & Personal use only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधिकार ११ १०२ धर्मसूत्र १. धर्मसूत्र २४२. (क) धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाण रक्खणं धम्मो।। का० अ०।४७८ तु०-उत्तरा० । ९.२०-२१ । १३.२३-३३ धर्मः वस्तुस्वभावः, क्षमादिभावः च दशविधः धर्मः । रत्नत्रयं च धर्मः, जीवानां रक्षणं धर्मः॥ वस्तु का स्वभाव धर्म है। (प्रकृत में समता आत्मा का स्वभाव होने से वह उसका धर्म है।) उत्तम क्षमा आदि दश', सम्यग्दर्शनादि तीन' तथा जीवों की रक्षा (उपलक्षण से अहिंसा आदि पाँच तथा अन्य भी पूर्वोक्त संयम के अंग) ये सब धर्म है अर्थात् उस समतामयी स्वभाव के विविध अंग या लिंग है। २४२. (ख) उत्तमखममद्दवज्जव, सच्चसउच्चं च संजमं चेव । तवतागमकिंचण्हं, बम्हा इदि दसविहो धम्मो॥ तु० = समवायांग । १०.१ उत्तमक्षमामार्दवार्जव-सत्यशौचं च संयमः चैव । तपस्त्यागं आकिंचन्य, ब्रह्म इति दशविधः धर्मः ॥ उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिचन्य और ब्रह्मचर्य इस प्रकार धर्म दशविध कहा गया है। २४३. अन्तस्तत्त्व विशुद्धात्मा, बहिस्तत्त्वं दयांगिषु । द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद्वितीयमाश्रयेत् ।। पं० वि। ६.६० अन्तस्तत्व रूप समतास्वभावी विशुद्धात्मा तो साध्य है और प्राणियों की दया आदि बहिस्तत्त्व उसके साधन हैं। दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है। इसलिए अपरम भावी को धर्म के इन विविध अंगों का आश्रय अवश्य लेना चाहिए। १. दे० गा० ११७२ . दे० गा० २६७-२८५३ , ३० गा० २० ४. विशेष दे० गा०३२-४२ धर्माधिकार ११ धर्मसूत्र २४४. सद्धं णगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं । खंति णिउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ उत्तरा०।९.२० तु०- बो० पा०।२७ श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपः संवरमर्गलम् । क्षान्ति निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तयं दुष्प्रर्षिकम् ॥ श्रद्धा या सम्यक्त्व रूपी नगर में क्षमादि दश धर्म रूप किला बनाकर, उसमें तप व संयम रूपी अर्गला लगायें और तीन गप्ति रूप शस्त्रों द्वारा दुर्जय कर्म-शत्रुओं को जीतें। २४५. दाणं पूजा सील, उववासं बहुविहं पि खवणं पि । __सम्मजुदं मोक्खसुहं, सम्मविणा दीहसंसारं ।। र० सा०।१० तु० = पिण्ड नियुक्ति । ९१ दानं पूजा शील, उपवासः बहुविधमपि क्षपणमपि । सम्यक्त्वयुक्तं मोक्षसुखं, सम्यक्त्वेन विना दीर्घसंसारे ॥ दान, पूजा, ब्रहाचर्य, उपवास, अनेक प्रकार के व्रत और मुनि लिंग आदि सब एक सम्यग्दर्शन होने पर तो मोक्ष-सुख के कारण हैं और सम्यक्त्व के बिना दीर्घ-संसार के कारण हैं।' २४६. यद्यत्स्वानिष्टं, तत्तद्वाकचित्तकर्मभिः कार्यम् । स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिंगम् ।। ज्ञानार्णव । २. १०.२१ धर्म का यह सर्व प्रधान लिंग है कि जो जो कार्य अपने को अनिष्ट हो, वह दूसरों के प्रति मन से या वचन से या शरीर से स्वप्न में भी न कर। २४७. दुविहं संजमचरणं, सायारं तह हवे णिराया। सायारं सग्गथे, परिग्गहा-रहिय खलु णिरायारं ।। चा०पा०।२० तु०-औपपा० सुत्त । १.५७ बा०अ०। ७० १.३० गा० ३२४-३२५ For Private & Personal use only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधिकार ११ अनगारसूत्र द्विविधं संयमचरणं, सागारं तथा भवेत् निरागारम् । सागारं सग्रन्थे, परिग्रहादहिते खलु निरागारम् ॥ संयमचरण या धर्म दो प्रकार का है-सागार व अनगार। सागार धर्म परिग्रह-युक्त गृहस्थों को होता है और अनगार धर्म परिग्रह-रहित साधुओं को। २. सागार (श्रावक) सूत्र २४८. नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पब्वइत्तए। अहं ण देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिसामि।। उपा०६०। १.१२ - सागार धर्मामृत । १.१६ नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुण्डो यावत् प्रवजितुम् । अहं खल देवानु प्रियाणामन्ति के पंचाणुवतिक सप्तशिक्षाप्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपत्स्ये। जो व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रवजित होकर अपने को अनगार धर्म के लिए समर्थ नहीं समझता है, वह पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ऐसे द्वादश व्रतों' वाले गृहस्थधर्म को अंगीकार करता है। ३. अनगरासूत्र (संन्यास योग) २४९.समणोत्ति संजदोत्ति य, रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागोत्ति। णामाणि सुविहिदाण अणगार भदंत दंतोत्ति ॥ मू० आ०। ८८६ (८.१२१) श्रमण इति संयत इति च, ऋषिमुनिः साधु इति वीतराग इति । नामानि सुविहितानां, अनगारो भदन्तः दान्तो यतिः ॥ श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति, ये सब नाम एकार्थवाची है। धर्माधिकार ११ अनगारसूत्र २५०. सोह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सुरूवहि-मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर सरिसां, परम-पय-विमग्गया साहू ॥ घ०१ गा०३३ तु० = प्र० व्या० । २.५-१२ सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणिः । क्षिति-उरगाम्बर सदा, परमपद-विमार्गणा साधुः ।। सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४, मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुंज, १२. क्षितिवत् तितिक्षु, १३. सर्पवत् अनिश्चित स्थानवासी, तथा १४. आकाशवत् निरालम्ब । २५१. ण बलाउसाउअळं, ण सरीरस्सुवचयटुं तेजळें । णाणळं संजमळं, भाणटुं चेव भुंजेज्जो ॥ मू० आ० । ४८१ (६.६२) तु०=उत्तरा० । ३५.१७ न बलायुः स्वादार्थ, न शरीरस्योपचयार्थ तेजोऽर्थ । ज्ञानार्थ संयमार्थ, ध्यानार्थ चैव भुजीत ॥ साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं। ५५२. जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेड अप्पयं ।। दशवैः । १.२ तु०-रा० बा०।९.६.१६ यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमरः आपिबति रसम् । न च पुष्पं बलामयति, स च प्रीणाति आत्मानम् ॥ १. दे० गा०१७९-१९० For Private & Personal use only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ धर्माधिकार ११ पूजा-भक्ति सूत्र जैसे भ्रमर फूलों से रस ग्रहण करके अपना निर्वाह करता है, किन्तु फल को किसी प्रकार की भी क्षति पहुँचने नहीं देता, उसी प्रकार साधु भिक्षा-वृत्ति से इस प्रकार अपना निर्वाह करता है जिससे गृहस्थों पर किसी प्रकार का भी भार न पड़े। २५३. अवि सुइयं वा सुकं वा, सीयपिंड पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलद्धे दविए । आचार । ९.४, गा० १३ तु० -- मू० आ31 ८१४ (८.४९) +र० सा०।११३ अपि सूपिकं वा शुष्कं वा, शीतपिण्डे पुराणकुष्माष । अथ बुक्कसं पुलाकं वा, लब्धे पिण्डं अलब्धः द्रविकः ॥ भिक्षा में प्राप्त भोजन में चाहे घी चूता हो, अथवा रूखा सूखा व ठण्डा हो, वह पुराने उड़दों का हो, अथवा धान्य जौ आदि का बना हो, साधु सबको समान भाव से ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त भिक्षा में आहार मिले या न मिले, वे दोनों में समान रहते हैं। २५४. वासीचन्दणसमाणकप्पे, समतिणमणिमुत्तालोठ्ठ कंचणे । समे य माणावमाणणाए, समियरते समिदरागदोसे ॥ प्र० व्या०। २.५.११ तु०प्र० सा० । २४१६२०८ वासीचन्दनसमानकल्पः, समतृणमणिमुक्तालोष्ठकांचनः । समश्च मानापमानयोः शमितरजस्कः शमितरागद्वेषः । कोई कुल्हाड़ी से उनके शरीर को चीर दे अथवा चन्दन से लिप्त कर दे, दोनों के प्रति वे समभाव रखते हैं। इसी प्रकार तृण व मणि म, लोहे व सोने में तथा मान व अपमान में सदा सम रहते हैं। ४. पूजा-भक्ति सूत्र २५५. सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्ति कुणइ सावगो समणो। ___ तस्स दुणिन्बुदि भत्ती, होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥ नि० सा०।१३४ तु०- अध्या० सा० । १५.५१ धर्माधिकार ११ १०७ पूजा-भक्ति सूत्र सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु, यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः । तस्य तु निवृत्तिभक्तिर्भवतीति जिनः प्रज्ञप्तम् ॥ जो श्रावक (गृहस्थ) अथवा श्रमण (साधु) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, अर्थात् हृदय में इन गुणों के प्रति अत्यन्त बहुमान धारण करता है, उस ही परमार्थतः निर्वाण या मोक्ष की भक्ति होती है। २५६. एया वि सा समत्था, जिणभत्ती दुग्गई णिवारेण । पुण्णाणि य पूरेदु, आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।। भ० आ० । ७४६ एकापि सा समर्था, जिनभक्तिः दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यान्यपि पूरयितु', आसिद्धिः परम्परासुखानाम् ॥ अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से बह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है। २५७. आह गुरु पूयाए, कामवहो होइ जइ वि हु जिणाणं । तह वि तह कायव्वा, परिणामविसुद्धिहेऊओ॥ सावय पण्णत्ति । ३४६ तु० = स्वयंभू स्तोत्र । ५८ आह गुरु पूजायां, कायवधः भवत्येव यद्यपि जिनानाम् । तथापि सा कर्तव्या, परिणामविशुद्धि हेतुत्वात् ॥ यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है। २५८. आत्तॊ जिज्ञासुरर्थार्थी, ज्ञानी चेतिचतुर्विधाः । उपासकास्त्रयस्तत्र, धन्या वस्तुविशेषतः ।। For Private & Personal use only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधिकार ११ १०८ गुरु-उपासना २५९. ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो, नित्यभक्तिविशिष्यते । अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः ।। अध्या० सा०।१५.७७-७८ आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी व ज्ञानी इन चार प्रकार के भक्तों में से प्रथम तीन वस्तु की विशेषता के कारण धन्य है। परन्तु जिसके मोह व क्षोभ आदि समस्त विक्षेप शान्त हो गये हैं, जो सम्यग्दृष्टि तथा अन्तरात्मा का भर्ता है, जिसका संसार अति निकट रह गया है, ऐसा ज्ञानी तो अपनी तत्त्वनिष्ठारूप नित्य-भक्ति के कारण ही विशेषता को प्राप्त है। धर्माधिकार ११ दान-सूत्र यह कदाचित् सम्भव है कि अग्नि जलाना छोड़ दे, अथवा कुपित दृष्टिविष सर्प भी डंक न मारे, अथवा हलाहल विष खा लेने पर भी वह व्यक्ति को न मारे, परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं कि गुरु-निन्दक को मोक्ष प्राप्त हो जाय। ५. गुरु-उपासना २६०. जे केइ वि उवएसा, इह परलोए सुहावहा संति । विणएण गुरुजणाणं सवे पाउणइ ते पुरिसा ।। वसु० श्रा० । ३३३ तु० = उत्तरा० । १.४६ ये केचिदपि उपदेशाः, इह-परलोके सुखावहाः सन्ति । विनयेन गुरुजनेभ्यः, सर्वान् प्राप्नुवन्ति ते पुरुषाः ॥ इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं। २६१. सिया हु से पावय नो हडिज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे । सिया विसं हलाहलं न मारे, न यावि मुक्खो गुरुहीलगाए ॥ दसवै०। ९.१.७ तु०=द० पा०।२४ स्यात् खलु स पावको न बहेत, आशीविषो वा कुपितो न भक्षेत् । स्यात् विषं हलाहलं न मारयेत्, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ॥ ६. दया-सूत्र २६२. तिसिदं वा भुक्खिदं वा, दुहिदं दळूण जो हि दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया, तस्सेसा होदि अणुकंपा।। प्र० सा० । २६.९ । प्रक्षेपक तृषितं वा बुभुक्षितं वा, दुःखितं वा दृष्ट्वा यो हि दुःखितमनाः । प्रतिपद्यते तं कृपया, तस्येषा भवति अनुकम्पा ।। भूखे, प्यासे अथवा किसी दुखी प्राणी को देखकर जिसका मन दुखी हो गया है, ऐसा जो मनुष्य उसकी कृपा-बुद्धि से रक्षा व सेवा. करता है, उसको अनुकम्पा होती है। २६३. जह ते न पियं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । सव्वायरमुव उत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।। भक्त० परि०।९० तु पं० वि०। ६.३८ यथा ते न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वेवमेव सर्वजीवानाम् । सर्वादरेणोपयुक्तं, आत्मौपम्येन कुरु दयाम् ॥ जिस प्रकार तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को नहीं है, ऐसा जानकर अत्यन्त आदरभाव से सब जीवों को अपने समान समझकर उनपर दया करो। ७. दान-सूत्र २६४. ता अँजिज्जउ लच्छी, दिज्जउ दाणं दयापहाणेण । जा जलतरंगचवला, दोतिण्णिदिणाणि चिठेइ ।। का० अ०।१२ For Private & Personal use only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधिकार ११ यज्ञ-सूत्र तावत् भुज्यतां लक्ष्मीः, दीयतां दानं वयाप्रधानेन । या जलतरंगचपला, द्वित्रिदिनानि तिष्ठति ॥ यह लक्ष्मी जल की तरंगों की भांति अति चंचल है। दो तीन दिन मात्र ठहरने वाली है। इसलिए जब तक यह आपके पास है, तब तक इसे आवश्यकतानुसार भोगो और साथ-साथ दयाभाव सहित दान में भी खर्च करो। २६५. जो मुणिभुत्तवसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिळें । संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥ र० सा०।२२ यो मुनिः भुक्तावशेषं भुजति सो भुंजते जिनोपदिष्टम् । संसारसारसौख्यं, क्रमशः निर्वाणवरसौख्यम् ॥ जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है। ८. यज्ञ-सूत्र २६६. तवो जोई जीवो जोइठाण, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्ममेहा संजमजोग सन्ती, होम हुणामी इसिणं पसत्थं ।। उत्तरा० । १२.४४ तु०म० पु०। ६७.२०२-२०३ तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिस्थानं, योगाः वः शरीरं करीषांगम् । कर्मधाः संयमयोगाः शान्तिः, होमेन जुहोम्यूषीणां प्रशस्तेन ॥ तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग सवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्ति धर्माधिकार ११ १११ उत्तम क्षमा पाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से में अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है। ९. उत्तम क्षमा (अक्रोध) २६७. तध रोसेण सयं, पुव्वमेव डज्झदि हु कलकलेणेव । अण्णस्स पुणो दुक्खं, करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्जा । भ० आ०।१३६३ तु०- योग शास्त्र । ४.१० तथा रोषेण स्वयं, पूर्वमेव दह्यते हि कलकलेनैव । अन्यस्य पुनः दुक्खं, कुर्यात् रुष्टो च न कुर्यात् ॥ तप्त लौहपिण्ड के समान क्रोधी मनुष्य पहले स्वयं सन्तप्त होता है। तदनन्तर वह दूसरे पुरुष को रुष्ट कर सकेगा या नहीं, यह कोई निश्चित नहीं। नियमपूर्वक किसीको दुखी करना उसके हाथ में नहीं है। २६८. कोहेण जोण तप्पदि, सुरणर तिरिएहि कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा णिम्मला होदि ॥ का० अ०।३९४ तु०- उत्तरा०।२९. सूत्र ३६ क्रोधेन यः न तप्यते, सुरनरतियंग्भिः क्रियमाणे अपि । उपसर्गेऽपि रौद्रे, तस्य क्षमा निर्मला भवति ॥ देव मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोध से संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है । २६९. खामेमि सव्वजीवे, सब्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभएस. वेरं मझ न केणइ ॥ आवश्यक सूत्र । ४.२२.१, तु० = मू० आ० । (२.८) क्षमयामि सर्वात् जीवान्, सर्वे जीवाः क्षमन्ताम् माम् । मैत्री मे सर्वभतेष, वरं मम न केनचित् ॥ में समस्त जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव भी मुझे क्षमा कर। सबके प्रति मेरा मैत्रीभाव है। आजसे मेरा किसी के साथ कोई वर-विरोध नहीं है । ( इत्याकारक हृदय की जागृति उत्तम क्षमा है।) For Private & Personal use only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधिकार ११ ११२ उत्तम मार्दव १०. उत्तम मार्दव (अमानित्व) २७०. कुलरूवजादिबूद्धिसु, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि । जो ण वि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्म हवे तस्स ॥ बा० अ०। ७२ तु० - उत्तरा० । २९ सूत्र ४९ कुलरूपजातिबुद्धिषु, तपश्रुतशीलेषु गर्व किंचित् । य: नैव करोति श्रमणः, मार्दवधर्म भवेत् तस्य ॥ आठ प्रकार के मद लोक में प्रसिद्ध हैं-कूल रूप व जाति का मद, ज्ञान तप व चारित्र का मद, धन व बल का मद । जो श्रमण आठों ही प्रकार का किचित् भी मद नहीं करता है, उसके उत्तम मार्दव धर्म होता है। २७१. जो अवमाणकरणं दोसं. परिहरइ णिच्चमाउत्तो। सो णाम होदि माणी, ण गुणचत्तेण माणेण ॥ भ० आ० । १४२९ योऽपमानकरणं दोष, परिहरति नित्यमायुक्तः । सो नाम भवति मानो, न गुणत्यक्तेन मानेन । जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का त्याग करके निर्दोष प्रवृत्ति करता है, वही सच्चा मानी है। परन्तु गुणरहित होकर भी मान करने से कोई मानी नहीं कहा जा सकता। २७२. असई उच्चागोए असई णीयागोए, णो हीण णो अइरित्ते । णो पीहए इह संखाए, को गोयावाई को माणावाई ॥ आचारः २.३ सूत्र १, तु० = भ० आ० । १०२७-२८ धर्माधिकार ११ उत्तम आर्जव सोऽसकृदुच्चोत्रे असकृन्नीचर्गोत्रे, नो हीनः नोऽप्यतिरिक्तः । न स्पृहयेत् इति संख्याय, को गोत्रवादी को मानवादी॥ यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में उत्पन्न हो चुका है, और अनेक बार नीच गोत्र में जन्म ल चुका है। परन्तु वस्तुतः न तो आज तक यह कभी हीन हुआ है और न कभी कुछ वृद्धि को ही प्राप्त हुआ है। अतः हे थमण! तू उच्च जाति आदि को प्राप्त करने की इच्छा न कर। क्योंकि इस तथ्य को जानकर भी कौन पुरुष उच्च गोत्र की इच्छा अथवा उसका मान करेगा? ११. उत्तम आर्जव (सरलता) २७३. जो चितेइ ण वंक, ण कुणदि वंक ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोस, अज्जवधम्मो हवे तस्स ।। का० अ०।३९६ तु० - उत्तरा०।२९ सूत्र ४८ यः चिन्तयति न वक्र, न करोति वकं न जल्पति वक्रम् । न च गोपयति निजदोषम, आर्जवधर्मः भवेत्तस्य । जो मुनि मन से कुटिल विचार नहीं करता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, न ही गुरु के समक्ष अपने दोष छिपाता है, तथा शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है। २७४. जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ ॥ महा० प्रत्या०।२२ तु० = बा० अणु०।७३ यथा बालो जल्पन, कार्यमकायं च ऋजुकं भणति । तत्तथाऽलोचयेन्मायामद - विप्रमुक्त एव । जिस प्रकार बालक बोलता हुआ कार्य व अकार्य को सरलता से कह देता है, उसी प्रकार सरलता से अपने दोषों की आलोचना करनेवाला साधु माया व मद से मुक्त होता है। For Private & Personal use only. १. सम्यग्दृष्टि किसी भी प्रकार का गर्व नहीं करता। वह अपने को रण के समान मानता है।--दे० गा०६२ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधिकार ११ ११५ उत्तम त्याग धर्माधिकार ११ उत्तम शोच १२. उत्तम शौच (सन्तोष) २७५. किं माहणा! जोइ समारभन्ता, उदएण सोहि बहिया विमग्गहा ? जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुइट्ठ कुसला वयंति ॥ उत्तरा०।१२.३८ तु० - पं० वि० । १.९५ कि ब्राह्मणा ज्योतिः समारभमाणाः, ___ उदकेन शुद्धि बाह्यां विमार्गयथ । यां मार्गयथ बाह्यं विशुद्धि, न तत् स्विष्टं कुशला वदन्ति ॥ हे ब्राह्मणो! तुम लोग यज्ञ में अग्नि का आरम्भ तथा जल द्वारा बाह्य शुद्धि की गवेषणा क्यों करते हो? कुशल पुरुप केवल इस बाह्य शुद्धि को अच्छा नहीं समझत। २७६. सम-संतोस-जलेण य, जो धोवदि तिण्णलोहमलपुंजं । भोयणगिद्धिविहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥ का० अ०।३९७ तु०= उत्तरा० । १२.४५-४६ समसन्तोषजलेन, यः धोवति तीव्रलोभमलपुजम् । भोजनगृद्धिविहीनः, तस्य शौचं भवेत् विमलम् ॥ जो मुनि समताभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के पुंज को धोता है, तथा भोजन में गृद्ध नहीं होता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है। २७७. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठियं ।। उत्तरा०। ८.१७ तु० =ज्ञानार्णव । १७.२-३ यथा लाभः तथा लोभः, लोभाल्लोभः प्रवर्धते । द्विमाषकृतं कार्य, कोट्या अपि न निष्ठितम् ॥ ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बड़ता है। देखो! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की इच्छा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों माशा से भी पूरा न हो सका। २७८. न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खति धीरा। मोहाविणो लोभभयावईया, ____ संतोसिणो ण पकरेंति पावं ।। सू० कृ० । १.१२.१५ तु०=पं० का० । ता० ३० टी०। १७३ न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बालाः, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः। मेधाविनः लोभभयादतीताः, संतोषिणो नो प्रकुर्वन्ति पापम् ॥ अज्ञानी जन कितना भी प्रयत्न करें, वे कर्म को कर्म से नहीं खपा सकते। धीर पुरुष ही अकर्म से कर्म को खपाते हैं। कामना और भय से अतीत होकर यथालाभ सन्तुष्ट रहनेवाला योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता। * सत्य, संयम, तप व ब्रह्मचर्य धर्म के लिए दे० अधि० ८-९ १३. उत्तम त्याग २७९. सव्वे भावे जम्हा, पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं, णाणं णियमा मुणेदव्वं ॥ स० सा० । ३४ तु०-वि० आ० भा० । २६३४ ज्ञानं सर्वान्भावान्, प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा । तस्मात् प्रत्याख्यानं, ज्ञानं नियमात् मन्तव्यम् ॥ अपने से अतिरिक्त सभी पदार्थों को 'ये मुझसे पर हैं' ऐसा जानकर, ज्ञान ही प्रत्याख्यान करता है, इसलिए ज्ञान या आत्मा ही स्वयं स्वभाव से प्रत्याख्यान या त्याग स्वरूप है, ऐसा जानना चाहिए। २८०. विषयान् साधकः पूर्वमनिष्टत्वधिया त्यजेत् । न त्यजेन च गृह्णीयात्, सिद्धो विन्द्यात् स तत्त्वतः ॥ अव्या० उप०।२.९ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधिकार ११ ११६ उत्तम आकिंचन्य यद्यपि अपरम भाव वाली अपनी पूर्व भूमिका में साधक विषयों को अनिष्ट जानकर उनका त्याग अवश्य करता है और उसे ऐसा करना भी चाहिए', परन्तु परमार्थ भूमि के हस्तगत हो जाने के कारण ज्ञानी तो तत्त्वतः सिद्ध व मुक्त ही है। इसलिए वह न तो कुछ त्याग करता है, न ग्रहण। २८१. णिव्वेगतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवेच्चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहि ।। बा० अ०७८ तु०-दे० गा० २८२ निर्वेगत्रिकं भावयति, मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु । यः तस्य भवेत् त्यागः, इति कथितं जिनवरेन्द्रः ॥ जो जीव पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व छोड़कर' संसार देह और भोगों से उदासीन' हो जाता है, उसको त्यागधर्म होता है । २८२. जे य कते पिय भोए, लद्धे विपिट्ठीकुव्वइ । साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति बुच्चइ । दशव०। २.३ तु० दे० गा० २८१ यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धानपि पृष्ठीकरोति । स्वाधीनान्स्त्यजति भोगान्, स खलु त्यागीत्युच्यते ॥ अपने को प्रिय लगनेवाले भोग प्राप्त हो जाने पर भी जो उनके प्रति हर प्रकार पीठ दिखाकर चलता है, और स्वतंत्र रूप से उनका त्याग कर देता है, (अर्थात् उन पदार्थों की आवश्यकता ही उसे अपने जीवन में प्रतीत नहीं होती है) वही सच्चा त्यागी है। १४. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) २८३. होऊण य णिस्संगो, णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं । णिदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स किंचण्हं ।। बा० अ०।७१ १. दे० गा० ३१ २. दे० गा०२८३-२८५ ३. देगा .१३०-१३४ धर्माधिकार ११ ११७ उत्तम आकिंचन्य भत्वा च निःसंगो, निजभावं निःगृह्णातु सुख-दुःखम् । निर्द्वन्देन तु वर्तते, अनगारस्तस्य किचन न हि ॥ जो मुनि सभी प्रकार के परिग्रह या मूर्छा से रहित होकर और सुख व दुःख दायक कर्म-जनित निज भावों को रोककर निश्चिन्तता पूर्वक आचरण करता है, उसके आकिंचन्य धर्म होता है । २८४. अहमिकको खलु सुद्धो, दसणणाणमइओ सदाऽरूवी। ण वि अस्थि मज्ज्ञ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तं वि ।। स० सा०।३८ तु० आचारांग। ८.६ सूत्र १ अहमेकः खलु शुद्धो, दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी। नवास्ति मम् किचिदप्यन्यत् परमाणुमात्रमपि ।। तत्त्वतः मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमयी हूँ और सदा अरूपी हूँ। मेरे सिवाय अन्य कुछ परमाणु मात्र भी यहाँ मेरा नहीं है। १- [ दर्शन ज्ञान युक्त यह शाश्वत आत्मा ही मेरा है। इसके अतिरिक्त अन्य सर्व बाह्याभ्यन्तर पदार्थ संयोगज होने के कारण स्वरूपतः मुझसे भिन्न है।'] २- [ जीव अन्य है और शरीर अन्य है, इस प्रकार निश्चित मति वाला ज्ञानी, शरीर को दुःख का कारण जानकर देह का ममत्व छोड़ देता है।'] ३- [जिस प्रकार वटबीज से उत्पन्न वृक्ष लम्बी चौड़ी भूमि को घेर लेता है, उसी प्रकार ममतारूपी बीज से उत्पन्न प्रपंच की भी कल्पना कर लेगी चाहिए।'] २८५. सहं वसामो जीवामो, जेसि मो णत्थि किंचण । मिहिलाए डज्झमाणीए, ण मे डज्झइ किंचण ॥ उत्तरा० । ९.१४ तु०= बा० अ०। ७९ सुखं वसामो जीवामः, येषां नो नास्ति किचन । मिथिलायां दह्यमानायां, न मे दह्यते किंचन ॥ में सुखपूर्वक रहता हूँ और सुखपूर्वक जीता हूँ। मिथिला नगरी में मेरा कुछ भी नहीं है। इसलिए इन महलों के जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता है। (राजा जनक का गह भाव ही आकिंचन्य धर्म है।) १. दे० गा० १७६-१७७ ३. दे० गा० १०८ २. दे० गा० १०५ ४. दे० गा० ११९ For Private & Personal use only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड (दर्शन विभाग) For Private & Personal use only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१२: द्रव्याधिकार (विश्व-दर्शन योग ) जैन दर्शन अनेक-द्रव्यवादी है। विजाति की अपेक्षा द्रव्य छह है-जीव, पुद्गल-परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश व कालाणु। सजातीय की अपेक्षा जीव व परमाणु संख्या में अनन्त अनन्त है, कालाणु असंख्यात है, और शेष तीन (धर्म, अधर्म और आकाश) एक एक हैं। अनन्त व विभु आकाश के मध्यवर्ती जितने भाग में ये सब अवस्थित है, उसे 'लोक' कहते हैं और उसके बाहर शेष अनन्त आकाश 'अलोक' कहलाता है। गामने के चित्र के अनुसार आकाश का लोकवर्ती यह क्षेत्र पुरुषाकार है, जिसके अधोभाग में नारकीयों का, मध्य भाग में मनुष्यों का व तिर्यचों का, ऊर्ध्व भाग में देवों का तथा सबसे ऊपर सिद्धों या मुक्त जीवों का आवास है। (दे० गा० ११०) For Private & Personal use only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-दर्शन दिलोकी द्रव्याधिकार १२ १२३ लोक सूत्र १. लोक सूत्र २८६. आदिणिहणेण हीणो, पगदिसरूवेण एस संजादो। जीवाजीवसमिद्धो, सव्वण्हावलोइओ लोओ। ति०प० । १.१३३ तु० - भगवती सूत्र । २.१.९१ आदिनिधनेन होनः, प्रकृतिस्वरूपेण एष संजातः । जीवाजीवसमृद्धः, सर्वज्ञावलोकितः लोकः ।। सर्वज्ञ भगवान से अवलोकित यह लोक अनाद्यनन्त, स्वतः सिद्ध और जीव व अजीव द्रव्यों से ब्याप्त है। (यह तीन भागों में विभाजित है-अघो, मध्य व ऊर्व। अपोलोक में नारकीयों का, मध्य में मनुष्य व तिर्यचों का तथा ऊर्ध्वलोक में देवों का वास अवलोक लोकाकाश मध्यलोक अलोकाकाश अधोलोक २८७. धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ उत्तरा०।२८.७ तु० = नि० सा०।९ धर्मः अधर्मः आकाशः, काल: पुद्गलाः जन्तवः। एष लोक इति प्रज्ञप्तो, जिनवरशिभिः॥ धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है। २८८. जीवा पुग्गलकाया, आयासं अस्थिकाइया सेसा । अमया अत्थित्तमया, कारणभूदा हि लोगस्स ।। ५० का० । २२ जीवाः पुद्गलकायाः, आकाशमस्तिकायौ शेषौ । अमया अस्तित्वमयाः, कारणभूता हि लोकस्य । इन छह द्रव्यों में से जीव, पुदगल, आकाश, धर्म व अधर्म इन पांच को सिद्धान्त में 'अस्तिकाय' संज्ञा प्रदान की गयी है। काल द्रव्य चौदह राजु उत्तंग नम लोक पुरुष संठान । तामैं जीव अनादित भरमत है बिन ज्ञान। १. दे० गा० ११० For Private & Personal use only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्याधिकार १२ , १२४ जीव द्रव्य अस्तित्व स्वरूप तो है, पर अणु-परिमाण होने से कायवान नहीं है। ये सब अस्तित्वमयी है, अर्थात् स्वतः सिद्ध हैं। इसलिए इस लोक के मूल उपादान कारण है। २. जीव द्रव्य (आत्मा) (जैन दर्शन में 'जीव' शब्द केवल प्राणधारी जीवात्मा के अर्थ में ही प्रयुक्त नहीं हुआ है, बल्कि उस अमूर्तीक शुद्ध चेतन तत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जो कि कीट, पतंग आदि अथवा पृथिवी कायिका दि से लेकर मनुष्य पर्यन्त के सभी शरीरों में अहं प्रत्यय के रूप में प्रतीति गोचर होता है। __शरीर व कर्मों की उपाधि से युक्त होकर वही अशुद्ध या संसारी हो जाता है और इनके नष्ट हो जाने पर वही मुक्त संज्ञा को प्राप्त होता है। इन उपाधियों को दष्टि से ओझल कर देने पर वही बन्ध मोक्ष की कल्पना से अतीत त्रिकाल शुद्ध नित्य निरंजन परमात्मा कहलाता है। इतनी विशेषता है कि यहाँ यह तत्त्व एक व विभु न होकर प्रत्येक देह में पृथक्-पृथक् अवस्थित होने के कारण संख्या में अनन्त है।) २८९. कत्ता भोत्ता अमुत्तो, सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दसणणाणउव ओगो,जीवो णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहि ।। भा० पा० । १४८ तु० - अध्या० सा० । १८.३८-३९, सन्मति । १.५१ कर्ता, भोक्ता अमूर्तः, शरीरमात्रः अनादिनिधनः च । दर्शनज्ञानोपयोगः, जीवः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रः ।। जीव या आत्मा आकाशवत् अमूर्तीक है और (देह में रहता हुआ) देह-प्रमाण है। यह अनादि निधन अर्थात् स्वतः सिद्ध है । ज्ञान व दर्शन रूप उपयोग ही उसका प्रधान लक्षण है। (देहधारी) वह अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है तथा उनके मुख-दुःख आदि फलों का भोक्ता भी है। २९०. अरसमरूवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहण, जीवाणद्दिसंठाणं ।। स० सा० । ४९ तु० = आचारांग। ५.६ सूत्र ६ द्रव्याधिकार १२ १२५ जीव द्रव्य अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीहि अलिंगग्रहणं, जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥ [जीव द्रवप इतना निर्विकल्प है कि नेति का आश्रय लिये बिना उसका कथन किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। वह अरस है, अरूप है, अगन्ध है, अव्यक्त है, अशब्द है तथा अनुमान ज्ञान का विषय न होने से मन-वाणी के अगोचर है। वह न तिकोन है, न चौकोर आदि अन्य किसी संस्थान वाला। (वह अबद्ध है, अस्पृष्ट है, अनन्य व अविशेष है।) चेतना मात्र ही उसका निज स्वरूप है। २९१. सव्वे सरा नियति, तक्का तत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने । आचारांग। ५. ६ सूत्र ६ तु० = आराधनासार। ८१ सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते । मतिस्तत्र न ग्राहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः॥ (शास्त्र केवल मनुष्यादिक व्यवहारिक जीवों का ही विस्तार करने वाले है। इन सर्व विकल्पों से अतीत) मुक्तात्मा का स्वरूप बतलाने में सभी शब्द निवृत्त हो जाते हैं, तर्क वहाँ तक पहुँच नहीं पाता, और बुद्धि की उसमें गति नहीं। वह मात्र चिज्ज्योति स्वरूप है। २९२. आदा णाणपमाणं, णाण णयप्पमाणमुद्दिढें । यं लोयालोय, तम्हा णाण तु सव्वगयं ॥ प्र० सा०।२३ तु० = आचारांग। ५. ५ सूत्र ७ आत्मा ज्ञानप्रमाणं, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् । ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥ आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, और ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है। इसलिए जान सर्वगत है। १. दे० गा०८१ २. दे० गा० २१ १. दे० गा० ३४२-२४४ For Private & Personal use only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्याधिकार १२ १२६ पुद्गल द्रव्य २९३. जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं। तं देही देहत्थो, सदेहमित्तं पभासयदि ॥ पं० का०। ३३ तु० = राय पएस० सुत्त । १८७ यथा पद्मरागरत्नं, क्षिप्त क्षीरे प्रभासयति क्षीरम् । तथा देही देहस्थः, स्वदेहमात्रं प्रभासयति ॥ ( ज्ञानस्वरूप की दृष्टि से यद्यपि आत्मा भी सर्वगत कहा जा सकता है, परन्तु ) जिस प्रकार पद्मरागमणि दूध के वर्तन में डाल देने पर उसमें स्थित ही सारे दूध को प्रकाशित करती है, उसके बाह्य क्षेत्र को नहीं; उसी प्रकार यह देहस्थ जीवात्मा भी इस शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता हुआ देह प्रमाण ही प्रतिभासित होता है, उससे अधिक नहीं। (देह में रहते हुए भी यह इससे पृथक् एक स्वतंत्र पदार्थ है।) ३. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) ( पुद्गल जैन-दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ वही है, जो कि सांख्य-दर्शन में तन्मात्रा व पंचमहाभूत का। यह दो प्रकार का होता हैपरमाणु व स्कन्ध। परमाणुओं के पारस्परिक संघात से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। और उनके विभाग से वे पुनः परमाणु का रूप धर लेते हैं। इस प्रकार नित्य पूरण व गलन करते रहने के कारण 'पुद्गल' नाम अन्वर्थक है। रूप रस गन्ध स्पर्श युक्त होने के कारण यह इन्द्रियग्राह्य है और इसलिए रूपी है। शब्द, अन्धकार, आतप, उद्योत, पृथिवी आदि चतुर्भूत, यह स्थूल शारीर, मन, वाणी, रागद्वेषादि अभ्यन्तर भाव ये सब पुद्गल के ही कार्य माने गये है।) २९४. भेदसंघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलना त्मिका क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गल शब्दोऽन्वर्थः ।। रा० वा०। ५.१.२६ तु० = उत्तरा । ३६.११ व्याधिकार १२ पुद्गल द्रव्य परस्पर में मिलकर स्कन्धों या भूतों को उत्पन्न करते है। और पुनः गलकर परमाणु बन जाते हैं। इस प्रकार नित्य ही पूरण गलनरूप स्वाभाविक क्रिया करते रहने से इस भौतिक द्रव्य की 'पुद्गल' संज्ञा अन्वर्थक है। २९५. खन्धा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य। परमाणुणो य बोद्धव्वा, रूविणो य चउविहा॥ उत्तरा०।३६.१० तु० = पं०का०७४ स्कन्धाश्य स्कन्धदेशाइच, तत्प्रदेशास्तथैव च। परमाणवश्च बोद्धव्याः, रूपिणश्च चतुर्विधः॥ रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल चार प्रकार का है--स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश व परमाणु। २९६. खंध सयलसमत्थं, तस्स दु अद्धं भणंति देसो ति। अद्धंद्धं च पदेसो. परमाणु चेव अविभागी॥ पं०का०1७५ स्कन्धः सकलसमस्तस्तस्य, त्वधं भणन्ति देश इति । अद्धिं च प्रदेशः, यरमाणुश्चैवाविभागी॥ पृथिवी आदि स्थूल पदार्थ स्कन्ध कहलाते हैं। उसके आधे को देश तथा उसके भी आधे भाग को प्रदेश कहते हैं। जिसका पुनः भेद होना किसी प्रकार भी सम्भव न हो वह परमाणु कहलाता है। (अति स्थूल, स्थूल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म के भेद से स्कन्ध अनेक प्रकार २९७. सईधयार - उज्जोय, पभा - छायातवेहिया। वण्णगंधरसफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं। नव तत्त्व प्रकरण । ११ तु० त०मू०। ५.२३-२४ शब्दान्धकारोद्योत-प्रभाच्छायातपाधिकाः। वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शाः, पुद्गलानां तु लक्षणम् । १. परमाणु के पारस्परिक संघात से स्कन्ध बनने की प्रक्रिया के लिए दे० गा० ३४९-३५१ १.दे.गा०७९-८० २. दे.गा.३४९-३५२ Jan Education international For Private & Personal use only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्याधिकार १२ १२८ पुद्गल द्रव्य द्रव्याधिकार १२ १२९ धर्म तथा अधर्म द्रव्य शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप आदि सब पुद्गल देहधारी संसारी जीव भी, इन सबमें पुद्गल शब्द प्रवृत्त होता है। के कार्य है, और वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श ये चार उसके प्रधान लक्षण हैं। (मन, वाणी व ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म भी पुद्गल माने गये हैं।) २९८. ओरालियो य देहो, देहो वे उव्विओ य तेजइओ। ४. आकाश द्रव्य आहारय कम्मइओ, पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।। ३०१. चेयण रहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं । प्र०सा०।१७१ तु० स्थानांग। ५.३९५ औदारिकश्च देहो, देहो वैक्रियकश्च तेजसः । लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिजें। न०च० । ९८ तु०= उत्तरा०।२८.९ आहारकः कार्माणः, पुद्गलद्रव्यात्मिकाः सर्वे ॥ चेतनरहितममर्तमवगाहनलक्षणं च सर्वगतम् । मनुष्यादि के स्थूल शरीर 'औदारिक' कहलाते हैं और देवों व लोकालोकद्विभेदं, तन्नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम् ॥ नारकियों के 'वैक्रियिक'। इन स्थूल शरीरों में स्थित इनमें कान्ति आकाश द्रव्य अचेतन है, अमूर्तीक है, सर्वगत अर्थात् विभु है। व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली तेजस शक्ति 'तैजस शरीर' है। योगी सर्व द्रव्यों को अवगाह या अवकाश देना इसका लक्षण है। वह दो जनों का ऋद्धि-सम्पन्न अदृष्ट गरीर 'आहारक' कहलाता है। और भागों में विभक्त है--लोकाकाश और अलोकाकाश। रागद्वेषादि तथा इनके कारण से संचित कर्मपुंज 'कार्मण शरीर' माना ३०२. घम्माघम्मौ कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये। गया है। ये पाँचों शरीर पुद्गल द्रव्य के कार्य हैं। ___ आयासे सो लोगो, ततो परदो अलोगुत्तो। २९९. जीवस्स णत्थि रागो, णविदोसोणेव विज्जदे मोहो। द्र०सं० २० तु०उत्तरा०। ३६.२ जेण दु एंद सव्वे, पुग्गल दव्वस्स परिणामा। धर्माधमा कालः, पुद्गलजीवाः च सन्ति यावतिके। स०सा०। ५१५५५ तु० = अध्या० उप० २.२८-३० आकाशे स: लोकः, ततः परतः अलोकः उक्तः ॥ जीवस्य नास्ति रागो, नापि द्वेषो नैव विद्यते मोहः। (यद्यपि आकाश विभु है, परन्तु षद्रव्यमयी यह अखिल सृष्टि येन ऐत सर्वे, पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः॥ उसके मध्यवर्ती मात्र अति तुच्छ क्षेत्र में स्थित है) धर्म अधर्म काल परमार्थतः न तो राग जीव का परिणाम है और न द्वेष और मोह, पुद्गल व जीव ये पाँच द्रव्य उस आकाश के जितने भाग में अवस्थित क्योंकि ये सब पुद्गल-द्रव्य के परिणाम है। है, वह 'लोक' है और शेष अनन्त आकाश 'अलोक' कहलाता है। ३००. मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः । ५. धर्म तथा अधर्म द्रव्य अकर्म - कर्मनोकर्म, जातिभेदेषु वर्गणा ।। [धर्म तथा अधर्म ये शब्द यद्यपि सर्वत्र पुण्य व पाप के अर्थ में प्रसिद्ध हैं, और गो०जी० । जी०प्र० टीका। ५९४ में उद्धृत जैन-दर्शन भी इनको इस अर्थ में स्वीकार करता है । परन्तु द्रव्य के प्रकरण में यहाँ ( अधिक कहाँ तक कहा जाय ) लोक में जितने भी मूतिमान पदार्थ इन शब्दों को इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं समझना चाहिए। हैं, वे अकर्म रूप हों या कर्म रूप, नोकर्म अर्थात् विविध प्रकार के शरीरों आकाशवत् अखण्ड व अमूर्तीक ये दो सत्ताधारी पदार्थ है, जो जीवों व पुद्गलों की गति एवं स्थिति में उदासीन रूप से सहकारी होते है। व स्कन्धों रूप हों या विभिन्न जाति की सूक्ष्म वर्गणा रूप, यहाँ तक कि १. सर्वार्थसिद्धि । ५.३, ५.१९ २. स० सा० । ४५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधिकार १२ धर्म तथा अधर्म द्रव्य ये यद्यपि व्यापक हैं, परन्तु आकाशवत् विभु न होकर लोकाकाश प्रमाण मध्यम परिमाण वाले हैं। दोनों एक दूसरे में ओतप्रोत होकर स्थित हैं, फिर भी अपने अपने स्वरूप से परस्पर भिन्न है। अखण्ड आकाश में लोक व अलोक का विभाग भी वास्तव में इन्हीं के कारण है । ] ३०३. उदयं जह मच्छाणं, गमणाणुग्गहरं हवदि लोए । तह जीवपुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाहि ॥ १३० पं०का०।८५ तु० उत्तरा०। २८.९ उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं भवति लोके । तथा जीवपुद्गलानां धर्मं द्रव्यं विजानीहि ॥ जिस प्रकार मछली के लिए जल उदासीन रूप से सहकारी है, उसी प्रकार जीव तथा पुद्गल दोनों द्रव्यों को धर्म द्रव्य गमन में उदासीन रूप से सहकारी है। ३०४. जह हवदि धम्मदव्वं, तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं, कारणभूदं तु पुढ़वीव ॥ तु० - उत्तरा० । २८.९ द्रव्यमधर्माख्यं । पृथिवीव ॥ पं० का ० । ८६ यथा भवति धर्मद्रव्यं तथा तज्जानीहि स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु धर्म द्रव्य की ही भाँति अधर्म द्रव्य को भी जानना चाहिए। क्रियायुक्त जीव व पुद्गल के ठहरने में यह उनके लिए उदासीन रूप से सहकारी होता है, जिस प्रकार स्वयं ठहरने में समर्थ होते हुए भी हम पृथिवी का आधार लिये बिना इस आकाश में कहीं ठहर नहीं सकते । ३०५. ण य गच्छदि धम्मत्थो, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्य । हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ॥ पं० का० 1८८ १. जल मछली को जबरदस्ती नहीं चलाता, मछली स्वयं अपनी शक्ति से चलती है, परन्तु जल न हो तो इच्छा व सामर्थ्य होते हुए भी चल नहीं सकती, इसी प्रकार जीव व चल नहीं सकते, यही पुद्गल अपनी सामर्थ्य से ही चलते हैं, परन्तु धर्म द्रव्य न हो तो वे इसका उदासीन कारणपना है। Jan Education Inten२. छह में से वे दो द्रव्य ही क्रियाशील है, अन्य चार नहीं । द्रव्याधिकार १२ न च गच्छति धर्मास्तिको, गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य । भवति गतेः स प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च ॥ धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलता है और न जीव पुद्गलों को जबरदस्ती चलाता है । वह इनकी गति के लिए प्रवर्तक या निमित्त मात्र है । ( इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को निमित्त मात्र ही समझना चाहिए ।) पं०का०२८७ १३१ काल द्रव्य ३०६. जादो अलोग लोगो, जेसि सन्भावदो य गमणठिदी । दो विय मया विभत्ता, अविभत्ता लोयमेत्ता य ॥ जातमलोकलोकं, ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती । द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च ॥ वास्तव में देखा जाये तो इन दो द्रव्यों के कारण ही एक अखण्ड आकाश में पूर्वोक्त लोक व अलोक विभाग उत्पन्न हो गये हैं । ये दोनों ही लोकाकाश परिमाण हैं, और एक क्षेत्रावगाही हैं। परन्तु अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा दोनों की सत्ता जुदी-जुदी है। एक का स्वरूप या लक्षण गति हेतुत्व है और दूसरे का स्थिति हेतुत्व । पं० का० । २३ ६. काल द्रव्य ३०७. सन्भावसभावाणं, जीवाणं तह य पोग्गलाणं य । परियट्टणसंभूदो, कालो नियमेण पण्णत्तो ॥ तु० = उत्तरा० । २८.१० सद्भावस्वभावानां जीवानां तथा च पुद्गलानां च । परिवर्तनसम्भूतः कालो नियमेन प्रज्ञप्तः ॥ १. आकाश के जितने क्षेत्र को घेर कर ये स्थित है, उतने मात्र क्षेत्र में ही जीव व पुबगल गति व स्थिति कर सकते हैं, उससे बाहर नहीं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थाधिकार १३२ तत्त्व निर्देश सत्तास्वभावी' जीव व पुद्गलों की वर्तना व परिवर्तना में जो धर्म-द्रव्य की भांति ही उदासीन निमित्त है, उसे ही निश्चय से काल द्रव्य कहा गया है। ३०८. लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का । रयणाणं रासीमिव, ते कालाणू असंखदध्वाणि ।। द्र० सं०।२२ लोकाकाशप्रदेशो, एककस्मिन् ये स्थिताः हि एककाः। रत्नानां राशिः इव, ते कालाणवः असंख्यद्रव्याणि ॥ जैन दर्शन काल-द्रव्य को अणु-परिमाण मानता है। संख्या में ये लोक के प्रदेशों प्रमाण असंख्यात हैं। रत्नों की राशि की भांति लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक, इस प्रकार उसके असंख्यात प्रदेशों पर असंख्यात कालाणु स्थित हैं। तत्त्वार्थ अधिकार जैन दर्शन की तात्त्विक व्यवस्था मोक्षमार्गपरक है। तत्त्व नौ हैं। प्रथम दो--जीव व अजीव मूल-द्रव्य वाची हैं। आस्रव, पुण्य, पाप, व बन्ध ये चार संसार व उसके कारणभूत राग द्वेष आदि का निर्देश करके ममक्ष को जागृत करने के लिए हैं। संवर व निर्जरा ये दो तत्त्व साधना का विवेचन करते हैं, और अन्तिम मोक्ष तत्त्व उस साधना के फल का परिचय देता है। तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव कारण-परमात्मा है, जो मुक्त हो जाने पर उसमें अभिव्यक्त हो जाता है, और वह स्वयं कार्य-परमात्मा बन जाता है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई व्यापक एक परमात्मा जैन दर्शन को स्वीकार नहीं है। १. उत्पाद व्यय धन्य अर्थात् नित्य परिणमन करते रहना, यह सत्ता का सभाव है। दे० गा० ३६५ २. कालाणु क्रियाशील न होने के कारण त्रिकाल वहाँ के-वहाँ अवस्थित है। For Private & Personal use only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ तत्त्वाधिकार १३ १३४ तत्त्व-निर्देश १. तत्त्व-निर्देश ३०९. तच्चं तह परमठें, दव्वसहावं तहेव परमपरं। धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा ॥ न०च०।४ तत्त्वं तथा परर्मार्थः, द्रव्यस्वभावस्तथैव परमपरम् । ध्येयः शुद्ध परम, एकार्थों भवन्त्यभिधानानि ॥ तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध, परम ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। ३१०. जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, संते ए तहिया नव ।। उत्तरा०।२८.१४ तु०-५०का०।१०८ जीवाजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापाऽऽलवस्तथा। संवरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव॥ तत्त्व नौ है-जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव संवर, निर्जरा व मोक्ष । (आगे क्रमश: इनका कथन किया गया है।) ३११. जीवाजीवौ हि धर्मिणौ, तद्धर्मास्त्वास्रवादय इति । धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं, सप्तविधमुक्तम् ॥ श्लोक वार्तिक । २.१.४ । श्लो० ४८, तु० = सन्मति । १.४६ इन उपर्युक्त नौ तत्त्वों में जीव व अजीव ये प्रथम दो तत्त्व तो धर्मी हैं, और आस्रव आदि शेष उन दोनों के ही धर्म हैं। इस प्रकार ये सात' या नौ तत्त्व वास्तव में दो ही है--धर्मी व धर्म अथवा जीव तथा अजीव । ३१२. अतः शुद्धनयायत्तं, प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतत्त्वगतत्वेऽपि, यदेकत्वं न मुञ्चति ॥ स० सा०।क०७ तु० = अध्या० सा० । १८.. १. पुष्य पाप नामक दो तत्त्व वास्तव में आसव तत्व के ही विशेष रूप है, इसलिए इनको वारूव में गर्मित कर देने पर तत्त्वनी की बजाय सात भी कहे जाते हैं। तत्त्वाधिकार १३ जीवाजीव तत्त्व परन्तु निश्चय या शुद्ध दृष्टि से देखने पर तो (दो तत्त्वों को भी कहीं अवकाश नहीं) एकमात्र आत्म-ज्योति ही चकचकाती है, जो इन नव तत्वों में धर्मीरूपेण अनुगत होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती है। २. जीव-अजीव तत्व ३१३. आगासकालपुग्गल-धम्माधम्मेसु णस्थि जीवगुणा। तेसि अचेदणत्थं भणिदं जीवस्स चेदणदा॥ पं०का०।१२४ तु० = सावय पण्णति । ७८ आकाशकालपुद्गल-धर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणाः । तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता ॥ (पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से) आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म ये पाँच द्रव्य जीव-प्रधान चेतन गुण से व्यतिरिक्त होने के कारण अजीव हैं, और जीव द्रव्य चेतन है। ३१४. उत्तमगुणाण धामं, सव्वदब्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेहि णिच्छयदो ।। का० अ०।२०४ उत्तमगुणानां धाम, सर्वद्रव्याणां उत्तमं द्रव्यम् । तत्त्वानां परं तत्त्वं, जीवं जानीयात् निश्चयतः ॥ ज्ञान दर्शन आनन्द आदि उत्तमोत्तम गुणों का धाम होने से 'जीव' छहों द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और नौ तत्त्वों में सर्वोत्तम या सर्वप्रधान है। ३१५. जीवादि बहित्तच्चं, हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुब्भव-गुगपज्जएहिं वदिरित्तो ॥ नि० सा० । ३८ जीवादि बहिस्त्वं, हेयमुपादेयमात्मनो ह्यात्मा। कर्मोपाघिसमुद्भव - गुणपर्याययं तिरिक्तः ॥ an Education Intematonal Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाधिकार १३ १३६ आस्रव तत्त्व [भले इस जीव की तात्विक व्यवस्था समझाने के लिए पूर्वोक्त प्रकार व्यवहार से नौ तत्त्वों का विवेचन किया गया हो, परन्तु निश्चय से तो पर्याय-प्रधान' होने के कारण ] जीवादि नौ तत्त्व आत्मा से बाह्य हैं। कर्मों की उपाधि से उत्पन्न होने वाले समस्त व्यावहारिक गुणों व पर्यायों से व्यतिरिक्त, एक मात्र शुद्धात्म-तत्त्व ही उपादेय है, इसके अतिरिक्त सब हेय हैं। ३. आस्रव तत्त्व ( क्रियमाण कर्म) ३१६. रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई । आसवदारेहि अविगुहेहि, तिविहेण करणेणं ।। मरण समाधि। ६१२ तु० = त० सू०। ६.१-२ रागद्वेषप्रमत्तं, इंद्रियवशगः करोति कर्माणि । आस्रवद्वारैरविगहि - तैस्त्रिविधेन करणेन ॥ राग-द्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियों के वश होकर मन, बचन व काय इन तीन करणों के द्वारा सदा कर्म करता रहता है। कर्मों का यह आगमन ही 'आस्रव' शब्द का वाच्य है, जिसके अनेक द्वार हैं। ३१७. इंदिय कसायअव्वय, जोगा पंचचउपंचतिन्नि कमा। किरिआओ पणवीस, इमाउताओ अणुक्कमसो।। नव तत्व प्रकरण। ९० तु०- त० सू० । ६.५ इन्द्रियकषायावतयोगाः, पंचचतुः पंचत्रिकृताः । कियाः पंचविंशतिः, इमास्ताः अनु क्रमशः। पाँच इन्द्रिय, क्रोधादि चार कवाय, हिंसा, असत्य आदि पाँच अव्रत तथा पचीस प्रकार की सावध क्रियाएँ, ये सब आस्रव के द्वार हैं। इनके कारण ही जीव कर्मों का संचय करता है। ३१८. आसवदारेहि सया, हिंसाईएहिं कम्ममासवइ । जह नावाइ विणासो, छिद्देहि जलं उयहिमज्झे । मरण समाधि। ६१८ तु० = रा० वा० । १.४.९, १६ ___Jan Education internat...दे० २८-२९ २. देगा .२६७-३७० तत्त्वाधिकार १३ १३७ संबर तत्त्व आस्रवद्वारः सदा, हिंसादिकः कर्ममास्रवति । यथा नावो विनाशश्छि ड्रैरुदधिमध्ये जलमास्रवन्त्याः॥ हिंसादिक इन आस्रव-द्वारों के मार्ग से जीव के चित्त में कर्मों का प्रवेश इसी प्रकार होता रहता है, जिस प्रकार समुद्र में सछिद्र नौका जल-प्रवेश के कारण नष्ट हो जाती है। ३१९. जो सम्म भूयाई पासइ, भए य अप्पभूए य । कम्ममलेण ण लिप्पइ, सो संवरियासवदुवारो ॥ मरण-समाधि । ६२४ तु० - स० सा०।७३-७४ यः सम्यग्भूतान् पश्यति, भूतांश्चात्मभूतांश्च । कर्ममलेन न लिप्यते, स संवृत्तास्रवद्वारः॥ जो आत्मभूत और अनात्मभूत सभी पदार्थों को तत्त्व-दृष्टि से देखता है, वह कर्म-मल से लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसके समस्त आस्रव-द्वार रुक जाते हैं। ४. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) ३२०. रुधिय छिद्दसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छ त्ताइअभावे, तह जीवे संवरो होई ॥ न० च०।१५६ तु० = दे० गा० ३२१ रुन्धित्वा छिद्र सहस्राणि, जलयाने यथा जलं तु नास्त्रवति । मिथ्यात्याद्यभावे, तथा जीवे संवरो भवति । जिस प्रकार नाव का छिद्र बन्द हो जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कपाय व इन्द्रिय आदि पूर्वोक्त आस्रव-द्वारों के रुक जाने पर कर्मों का आस्रव भी रुक जाता है। और यही उनका संवरण या संवर कहलाता है। ३२१. पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। __अगारवो य निस्सल्लो, जोवो हवइ अणासओ ॥ उत्तरा०। ३०.३ तु० - द्र०सं०।३५ For Private & Personal use only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वाधिकार १३ १३८ पुण्य-पाप तत्त्व पंचसमितित्रिगुप्तः, अकषायो जितेन्द्रियः । अगौरवश्च निश्शल्यः, जीवो भवत्यनास्रवः॥ पाँच समिति, तीन गुप्ति, कषायनिग्रह, इन्द्रिय-जय, निर्भयता, निश्शल्यता' इत्यादि संवर के अंग हैं, क्योंकि इनसे जीव अनास्रव हो जाता है। ३२२. नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बला निरंभति। इंदियविसयकसाया, धरिया तुरगा व रज्जूहिं । मरण समाधि। ६२१ तु० - म० आ०।१८३७ कानेन च ध्यानेन च, तपोबलेन च बलान्निरुध्यन्ते। इन्द्रियविषयकषाया, धृतास्तुरगा इव रज्जुभिः॥ जिस प्रकार घोड़े को लगाम के द्वारा बलपूर्वक वश में किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान, ध्यान व तप के द्वारा इन्द्रिय- विषय व कषायों को बलपूर्वक वश करना चाहिए। ३२३. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदम्वेसु । णासवदि सुहं असुहं, समसुहदुक्खस्स भिवखुस्स ।। पं०का०। १४२ तु० - दे० गा०३१९ यस्स न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु । नास्रवति शुभाशुभं, समसुखदुःखस्य भिक्षो॥ परन्तु परम भाव को प्राप्त समता-भोगी जिस भिक्षु को किसी भी द्रव्य के प्रति न राग शेष रह गया है और न द्वेष व मोह, उसके बिना किसी प्रयास के ही शुभ व अशुभ कर्मों का आस्रव रुक जाता है। ५. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) ३२४. कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसील, जं संसारं पवेसेदि । स० सा०।१४५ तु० - अध्या० सा०। १८.६० तत्त्वाधिकार १३ पुण्य-पाप तत्त्व कर्ममशुभं कुशोलं, शुभकर्म चापि जानीहि सुशीलं । कथं तद्भवति सुशीलं, यत्संसारं प्रवेशयति ॥ अशुभ कर्म कुशील है और शुभ कर्म सुशील है, ( ऐसा भेद व्यावहारिक जनों को ही शोभा देता है ) समता-भोगी के लिए कोई भी कर्म जो संसार में प्रवेश कराये, सुशील कैसे हो सकता है ? ३२५. सोवणियं पिणियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।। स० सा०। १४६ तु० - अध्या० सा०। १८.६१ सौणि कमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि च यथा पुरुषं । बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥ जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसी प्रकार मोने को बेड़ी भी बांधती है। इसलिए परमार्थतः शुभ व अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीव के लिए बन्धनकारी हैं। ३२६. वर जिय पावइँ सुन्दरइँ, णाणिय ताँई भणंति । जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु, सिवमइ जाइँ कुणंति ॥ प०प्र० । २.५६ वरं जीव पापानि सुन्दराणि, ज्ञानिनः ताणि भणन्ति । जीवानां दुःखानि जनित्वा लघु, शिवमति यानि कुर्वन्ति । ज्ञानी की दृष्टि में तो वह पाप भी बहुत अच्छा है, जो जीव को दुःख व विषाद देकर उसकी बुद्धि को मोक्षमार्ग की ओर मोड़ देता है। ३२७. मं पुणु पुण्णइँ भल्ला', णाणिय ताइँ भणंति । जीवहं रज्जइँ देवि लहु, दुक्खइँ जाई जणंति ।। प०प्र०। २.५७ मा पुनः पुण्यानि भद्राणि, ज्ञानिनः तानि भणन्ति । जीवस्य राज्यानि दत्वा लघु, दुःखानि यानि जनयन्ति । और फिर वह (पापानुबन्धी) पुण्य भी किसी काम का नहीं, जो For Private & Personal uon o उसं राज्य-सुख देकर उसमें आसक्ति उत्पन्न करा देता है, जिसके कारण Jan Education internatk..दे० अधिकार ८ । www.janelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाधिकार १३ १४० बन्ध तत्त्व (पुण्य क्षीण हो जाने पर) शीघ्र ही वह नरक आदि गतियों के दुःखों को प्राप्त हो जाता है। [परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुण्य सर्वत्र व सर्वदा इसी प्रकार तिरस्कार के योग्य है:] ३२८. वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहि। छायात वठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं । मो० पा०।२५ वरं व्रततपोभिः स्वर्गः, मा दुक्खं भवतु नरके इतरैः। छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः । पाप-कर्मों के द्वारा नरक आदिक के दुःख भोगने की बजाय तो व्रत तप आदि के सम्यक् अनुष्ठान से स्वर्ग प्राप्त करना ही अच्छा है। घाम में बैठ कर प्रतीक्षा करने वाले की अपेक्षा छाया में बैठ कर प्रतीक्षा करने वाले की स्थिति में बड़ा अन्तर है। ( इसके अतिरिक्त इस प्रकार का पुण्य परम्परा रूप से मोक्ष का कारण भी हो जाता है।) ६. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) ३२९. एएहि पंचहि असंवरेहि, रयमादिणित्तु अणुसमयं । चउविह गति पेरंतं, अणुपरियटति संसारं ॥ प्र. व्या० । १.५ अन्तिम गा०, तु० = ध०१५।३४ । गा० १८ एतेः तंचभिरसंवरः, रजमाचित्याऽनुसमयम् । चतुविधगतिपर्यन्त-मनुपरिवर्तन्ते संसारम् ॥ हिसा असत्य आदि पाँच प्रवान असंबर या आस्रवद्वार हैं। इनसे प्रति समय अनुरंजित रहने के कारण जीव नित्य ही कर्म-रज का संचय करके चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। ३३०. स्नेहाभ्यक्ततनोरंगं, रेणुनाश्लिष्यते यथा। रागद्वेषानुविद्धस्य, कर्मबन्धस्तथा मतः ।। अध्या० सा०। १८.११२ तु० -- स० सा० । २३७-२४१ तत्त्वाधिकार १३ १४१ निर्जरा तत्त्व जिस प्रकार शरीर पर तेल मल कर व्यायाम करने वाला व्यक्ति रज-रेणुओं से लिप्त होता है, उसी प्रकार जिस व्यक्ति का चित्त राग से अनुविद्ध है, उसी को कर्मों का बन्ध होता है। राग-द्वेष विहीन केवल क्रिया मात्र से नहीं। ३३१. रत्तो बंधदि कम्म, मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। एसो बंधसमासो, जीवाणं जाण णिच्छयदो॥ प्र० सा०। १७९ तु० = स्थानांग। २.९६ रवतो बध्नाति कर्म, मुच्यते कर्माभिः रागरहितात्मा। एष बन्धसामासो, जीवानां जानीहि निश्चयतः॥ रागी जीव ही कर्मों को बांधता है, और राग-रहित उनसे मुक्त होता है। परमार्थतः संसारी जीवों के लिए राग ही एक मात्र बन्ध का कारण व बन्धस्वरूप है। ७. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) ३३२. तवसा उनिज्जरा इह, निज्जरणं खवणनासमेगछा। कम्माभावापायणमिह, निज्जरमो जिणा विति ।। सावय० पण्णति। ८२ तु० - भ० आ० । १८४७-१८४८ तपसा तु निर्जरा इह, निर्जरणं क्षपणं नाश एकार्थाः । कर्माभावापादानमिह, निर्जरा जिना ब्रुवते ॥ तप के प्रभाव से कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरण, क्षपण, नाश, कर्मों के अभाव की प्राप्ति ये सब एकार्थवाची हैं। ३३३. तवसा चेवण मोक्खो, संवरहीणस्स होइ जिणवयणे । ण हु सोते पविस्संते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ।। भ० आ०। १८५४ x (अ) ज्ञानी कर्म करता हुआ भी अवर्ता है। दे० गा० १४७ (आ) शानी विषय-वन करता हुआ भी असेवक है। दे० गा० १२२ (३) प्रमादी सदा हिंसक है, अप्रमादी नहीं। दे० गा० १६७ १. पानी के कर्म निर्जरा के कारण है। दे० गा० १३४ २. राग द्वेष ही दो महापाप हैं। दे० गा० ११८ १.३० गा० ४०-१२ For Private & Personal use only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाधिकार १३ मोक्ष तत्त्व तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने । न हि स्रोतसि प्रविशन्ति, कृस्नं परिशुष्यति तडागम् ॥ जिस प्रकार तालाब में जल का प्रवेश होता रहने पर, जल निकास का द्वार खोल देने से भी वह सुखता नहीं है, उसी प्रकार संवरहीन अज्ञानी को केवल तप मात्र से मोक्ष नहीं होता। ३३४. जहा महातलागस्स, सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिंचिणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ।। ३३५. एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा णिज्जरिज्जई। उत्तरा० । ३०.५-६ तु० = पं० का०।१४४ यथा महातडागस्य सन्निरुद्धे जलागमे। उत्सिंचनेन, क्रमेण शोषणा भवेत् ॥ एवं तु संयतस्यापि, पापकर्म निरास्रवे। भवकोटिसंचितं कर्म, तपसा निर्जीयते ॥ जिस प्रकार किसी बड़े भारी तालाब में जलागमन के द्वार को रोक कर उसका जल निकाल देने पर वह सूर्य ताप से शीघ्र ही सूख जाता है। उसी प्रकार संयमी साधु पाप-कर्मों के द्वार को अर्थात् राग-द्वेष को रोक कर तपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। --[अज्ञानी जितने कर्म करोड़ों भवों में खपाता है, ज्ञानी विगुप्ति रूप संवर-युक्त होकर उतने कर्म उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है।'] ८. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) ३३६. सेणावतिमि निहते, जहा सेणा पणस्सती। एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए। दशाश्रुत०। ५.१२ तु० = त० सू० । १०.१-२ १. राग देष ही दो महापाप हैं । दे० गा० ११८, २. दे० गा० २०६ तत्त्वाधिकार १३ १४३ - मोक्ष तत्त्व सेनापतौ निहते, यथा सेना प्रणश्यति। एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥ जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना नष्ट हो जाती है या भाग जाती है, उसी प्रकार राग-द्वेष के कारणभूत मोह-कर्म के क्षय हो जाने पर शेष सब कर्म-संस्कारों का क्षय स्वतः होता जाता है। ३३७. लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के । गइपुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु ।। वि० आ० मा०। ३१४१-३१४२ . तु० = त० सू०। १०.६-७ अलाबु च ऐरण्डफलमग्निधूमश्चेषुर्धनुविप्रमुक्तः । गतिः पूर्वप्र योगेणैवं सिद्धानामपि गतिस्तु ॥ जिस प्रकार मिट्टी का लेप धुल जाने पर तूम्बी स्वतः जल के ऊपर आ जाती है, जिस प्रकार एरण्ड का बीज गर्मी के दिनों में चटखकर स्वयं ऊपर की ओर जाता है, जिस प्रकार अग्नि की शिखा तथा धूम का स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन होता है और जिस प्रकार धनुष्य से छुटे हुए बाण का पूर्व प्रयोग के कारण ऊपर की ओर गमन होता है, उसी प्रकार पूर्व प्रयोगवश सिद्धों की भी ऊर्ध्व गति स्वभाव से स्वतः हो जाती है। ३३८. जावद्धम्म दब्वं, तावं गंतूण लोयसिहरम्मि। चेट्ठति सव्वसिद्धा, पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा ॥ ति०प०।९.१६ तु० -- विशे० आ० भा०।३१५९+३१७४-७५ यावद्धर्मो द्रव्यं, तावद् गत्वा लोकशिखरे । तिष्ठन्ति सर्वसिद्धाः, पृथक् पृथक् गतसिक्थमूषकगर्भनिभाः ॥ लोक के शिखर पर जहाँ तक धर्म द्रव्य की सीमा है वहाँ तक जाकर सभी मुक्त जीव पृथक पृथक स्थित हो जाते हैं। उनका आकार १. गमन के हेतुभूत धर्म-द्रव्य की सीमा का उल्लंघन कोई भी द्रव्य नहीं कर सकता और यह लोक प्रमाण है। इसलिए सिद्धात्माओं की पूर्वोक्त खाभाविक ऊर्व गति लोक-शिखर तक ही हो पाती है, उससे आगे नहीं। Jan Education international Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाधिकार १३ १४४ मोक्ष तत्त्व मोम रहित मूषक के आभ्यन्तर आकाश की भाँति अथवा घटाकाश की भाँति चरम शरीर वाला तथा अमूर्तीक होता है। ३३९. जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अन्नोन्नसमोगाढा, पुछा सव्वे वि लोगते ।। वि० आ० मा०। ३१७६ यत्र च एकः सिद्धस्तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ताः । अन्योन्यसमवगाढाः स्पृष्टाः सर्वेऽपि लोकान्ते ॥ लोक-शिखर पर जहाँ एक सिद्ध या मुक्तात्मा स्थित होती है, वहीं एक दूसरे में प्रवेश पाकर संसार से मुक्त हो जाने वाली अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं। चरम शरीराकार इन सबके सिर लोकाकाश के ऊपरी अन्तिम छोर को स्पर्श करते हैं। ३४०. जहा दड्ढाणं बीयाणं, न जायंति पुर्णकुरा। कम्मबीयेसु दड्ढेसु, न जायंति भवांकुरा ।। दशाश्रुत०। ५.१५ तु० = रा० वा० । १०.२.३ यथा दग्धानां बीजानां, न जायन्ते पुनरंकुराः। कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः॥ जिस प्रकार बीज के दग्ध हो जाने पर फिर उनसे अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार कर्मरूपी बीजों के दग्ध हो जाने पर भवरूपी अंकुर फिर उत्पन्न नहीं होते। अर्थात् मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं करते । ३४१. चक्किकुरुफणिसुरिद-देवहमिदे जं सुहं तिकालभवं । ततो अणंतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥ त्रि० सा०।५६० तु० = देवेन्द्रस्तवः । २९३ चक्रिकुरु फणिसुरेन्द्रेष, अहमिन्द्रे यत् सुखं त्रिकालभवं । ततो अणंतगुणितं, सिद्धानां क्षणसुखं भवति ॥ (अतीन्द्रिय होने के कारण यद्यपि सिद्धों के अद्वितीय सुख की व्याख्या नहीं की जा सकती, तथापि उत्प्रेक्षा द्वारा उसका कुछ अनुमान तत्त्वाधिकार १३ परमात्म तत्त्व कराया जाता है :) चक्रवर्ती, भोगभूमिया-मनुष्य, धरणेन्द्र, देवेन्द्र व अहमिन्द्र इन सबका सुख पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा अनन्त अनन्त गुना माना गया है। इन सबके त्रिकालवर्ती सुख को यदि कदाचित एकत्रित कर लिया जाय, तो भी सिद्धों का एक क्षण का सुख उस सबसे अनन्त गुना है। ९. परमात्म तत्त्व ३४२. यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। स० श०।३१ तु० = ज्ञा० सा० । १४.८ (कर्म आदि की उपाधियों से अतीत त्रिकाल शुद्ध आत्मा को ग्रहण करने वाली शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से देखने पर) जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो में हूँ वही परमात्मा है। इस तरह में ही स्वयं अपना उपास्य हूँ। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है। ऐसी तात्त्विक स्थिति है। ३४३. देहदेवलि जो वसइ, देउ अणाइ अणंतु । केवलणाणफुरंततणु, सो परमम्पु णिभंतु ॥ प०प्र०। १.३३ तु० = योग शास्त्र। १२.८ देहदेवालये यः बसति, देवः अनाद्यनन्तः । केवलज्ञानस्फुरत्तनुः, स परमात्मा निन्तिः ॥ जो व्यवहार दृष्टि से देह रूपी देवालय में बसता है, और परमार्थतः देह से भिन्न है, वह मेरा उपास्य देव अनाद्यनन्त अर्थात् त्रिकाल शाश्वत है। वह केवलज्ञान-स्वभावी है। निस्सन्देह वही अचलित स्वरूप कारण-परमात्मा है। ३४४. उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा । मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव, जायतेऽग्निर्यथा तरुः ।। स० श०। ९८ कारण परमात्मा स्वरूप इस परम तत्त्व की उपासना करने से यह कर्मोपाधियुक्त जीवात्मा भी परमात्मा हो जाता है, जिस प्रकार For Private & Personal use only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरवाधिकार १३ १४६ परमात्म तत्व बांस का वृक्ष अपने को अपने से रगड़ कर स्वयं अग्नि रूप हो जाता है। (मोक्ष प्राप्त वह सिद्धात्मा कार्य परमात्मा है) ३४५. ज्ञानं केवल संज्ञ, योगनिरोधः समग्रकर्महतिः । सिद्धिनिवासश्च यदा, परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।। अध्या० सा० । २०.२४ तु० = दे० गा० ३४४ ___ उस जीवात्मा को जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, योगनिरोध के द्वारा समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह जब लोक-शिखर पर सिद्धालय में जा बसता है, तब उसमें ही वह कारण-परमात्मा व्यक्त हो जाता है। :१४: सृष्टि-व्यवस्था सृष्टि-व्यवस्था के विचार में वेदान्तादि अद्वैत दर्शनों को छोड़ कर प्रायः सभी भारतीय दर्शन स्वभाववादी होने के कारण ईश्वर की पारमार्थिक सत्ता स्वीकार नहीं करते। जैनदर्शन इस विषय में स्वभाववादी व कर्मवादी है। ___कार्य-कारण व्यवस्था में इसका स्वभाववाद'सत्कार्यवाद व आरम्भवाद दोनों को स्वीकार करता है। साथ ही इसकी समन्वय-दृष्टि काल, आत्मा, ईश्वर, पुरुषार्थ आदि अन्य अंगों का भी सर्वथा लोप नहीं कर सकती। Jain Education intematonal Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृष्टि-व्यवस्था अधि० १४ १४८ १. स्वभाव कारणवाद ( सत्कार्यवाद ) ३४६. भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो । गुणपज्जयेसु भावा, उप्पादवए पकुब्वंति ॥ पं० का० । १५ भावस्य नास्ति नाशो नास्ति अभावस्य चैव उत्पादः । गुणपर्यायेषु भावा, उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति ॥ सत् का नाश और असत् का उत्पाद किसी काल में भी सम्भव नहीं । सत्ताभूत पूर्वोक्त जीवादि षट् विध पदार्थ अपने गुणों व पर्यायों में स्वयं उत्पन्न होते रहते हैं और विनष्ट होते रहते हैं । ३४७. अण्णोष्णं पविसंता, दिता मेलंता वि य णिच्चं, सगं पं० का० । ७ स्वभाव कारणवाद ओगास मण्णमण्णस्व । सभावं ण विजर्हति ॥ तु० - सन्मति । ३.५ ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य । अन्योऽन्यं प्रविशन्ति, मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति ॥ ये छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करके स्थित हैं, अपने भीतर एक दूसरे को अवकाश देते हैं। क्षीर-नीरवत् परस्पर में मिल कर एकमेक हो जाते हैं। इतना होने पर भी ये कभी अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं । ३४८. उप्पज्जंतो कज्जं, कारणमप्पा णियं तु जणयंतो । तम्हा इह ण विरुद्ध, एगस्स वि कारणं कज्जं ॥ न० च० । ३६५ उत्पद्यमानः कार्य, कारणमात्मा निजं तु जनयन् । तस्मादिह न विरुद्ध एकस्यापि कारणं कार्यम् ॥ प्रत्येक द्रव्य में उत्पद्यमान उसकी पर्याय तो कार्य है और उसे उत्पन्न करने वाला वह द्रव्य उसका कारण है। इस प्रकार एक ही १. विशेष ३० गा० ३६४-३६५ २. चेतन जीव चेतन ही रहता है, और पुद्गल आदि अपने रूप ही । सृष्टि-व्यवस्था अधि० १४ १४९ पुद्गल कर्तृत्ववाद पदार्थ का कार्यरूप व कारणरूप होना विरोध को प्राप्त नहीं होता । ( जिससे उसे अपनी सृष्टि के लिए किसी अन्य कारण का अन्वेषण करना पड़े।) २. पुद्गल कर्तृत्ववाद ( आरम्भवाद) ३४९. एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खतं । परिणामादो भणिदं जाव अनंतत्तमणुभवदि ॥ ३५०. गिद्धा वा लुक्खावा अणुपरिणामा सभा वा विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि आदिपरिहीणा || ३५१. दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा संसंठाणा । पुविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहि जायंते || प्र० स० । १६४, १६५, १६७ एकोत्तरमेकाद्यणोः स्निग्घत्वं च रूक्षत्वम् । परिणामाद्भणितं यावदनन्तत्वमनुभवति ॥ स्निग्धा वा रूक्षा वा अणुपरिणामाः समा वा विषमा वा । समतो द्वधिका यदि बध्यन्ते हि आदिपरिहीनाः ॥ द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः सूक्ष्माः वा बादराः ससंस्थानाः । पृथिवीजलतेजोवायवः स्वक परिणामर्जायन्ते ॥ [जैन-दर्शन-मान्य स्वभाववाद की इस प्रक्रिया में पुद्गल (जड़) तत्व भी बिना किसी चेतन की सहायता के स्वयं ही पृथिवी आदि महाभूतों के रूप में परिणमन कर जाता है। सो कैसे, वही प्रक्रिया इन गाथाओं द्वारा बतायी गयी है। ] परमाणु के स्पर्श-गुण की दो प्रधान शक्तियाँ हैं--स्निग्धत्व व रूक्षत्व अर्थात् ( Attractive force and Repulsive / force ) | ये दोनों सदा स्वतः एक अंश से लेकर दो तीन संख्यात असंख्यात व अनन्त अंशों तक हानि व वृद्धि का अनुभव करती रहती हैं। परिणामतः अनेक परमाणु तो समान अंशधारी स्निग्ध अथवा समान अंशवारी रूझ हो जाते हैं, तथा अनेक असमान अंशवाले हो जाते हैं। दो अंशों का अन्तर होने तक तो वे परस्पर बन्ध के योग्य Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृष्टि-व्यवस्था अधि०१४ कर्म-कारणवाद नहीं हो पाते, परन्तु सजातीय या विजातीय स्निग्ध व रूक्ष दो निकटवर्ती परमाणुओं में जब यह अन्तर दो से अधिक हो जाता है तो पाषाण की भाँति वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होकर परस्पर में संश्लेष को प्राप्त हो जाते हैं। चुम्बक 1 इस प्रकार द्वगुक को आदि लेकर त्र्यणुक चतुरणुक संख्याताणुक असंख्याताणुक व अनन्ताणुक स्कन्ध इस आकाश में स्वयं होते रहते हैं। इनमें कुछ सूक्ष्म होते हैं और कुछ स्थूल । ये दोनों ही पृथिवी, अप्, तेज व वायु इन चार प्रसिद्ध महाभूतों के रूप में विभक्त हो जाते हैं। तथा त्रिकोण, चौकोण, गोल आदि अनेक आकारों को धारण कर लेते हैं । ३. कर्म-कारणवाद ३५२. जीवहँ कम्मु अणाइ जिय-जणिय उ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ विजणि णवि, दोहि वि आइ ण जेण ॥ १५० जीवानां कर्म अनादीनि जीव जनितं कर्म न तेन । कर्मणा जोवोऽपि जनितो नापि, द्वयोरपि आदिः न येन ॥ हे आत्मन् ! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं। न तो जीव ने कर्म उत्पन्न किये हैं और न ही कर्मों ने जीव को उत्पन्न किया है। क्योंकि जीव व कर्म दोनों की ही कोई आदि नहीं है । स० [सा० । ८० प० प्र० । १.५९ ३५३. जीवपरिणामहेदु, कम्मत्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो विपरिणमइ || तु० = अध्या० सा० । १८.११३-११५ जीव परिणाम हेतु, कर्मत्वं पुद्गलाः परिणमन्ति । पुद्गलकर्मनिमित्तं तथैव जीवोपि परिणमति ॥ जीव के राग-द्वेषादि आस्रवभूत परिणामों के निमित्त से पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमन करते हैं, और इसी प्रकार जीव भी पुद्गल या जड़ कर्मों के निमित्त से राग-द्वेषादि रूप परिणमन करता है। ( ऐसा ही कोई स्वभाव है, जिसमें तर्क नहीं चलता है | ) सृष्टि-व्यवस्था अधि०१४ १५१ कर्म-कारणवाद ३५४. चिच्चादुपयं च च उप्पयं च, खेत्तं सिंहं धणधन्नं च सव्वं । कम्पीय अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ।। उत्तरा० । १३.२४ त्यक्त्वा द्विपदं च चतुष्पदं च क्षेत्रं गृहं धन-धान्यं च सर्वम् । कर्मात्मद्वितीयः अवशः प्रयाति परं भवं सुन्दरं पावकं वा ॥ सुन्दर या असुन्दर जन्म धारण करते समय, अपने पूर्व-संचित कर्मों को साथ लेकर, प्राणी अकेला ही प्रयाण करता है । अपने मुख के लिए बड़े परिश्रम से पाले गये दास दासी तथा गाय घोड़ा आदि सब यहीं छूट जाते हैं। ३५५. ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया, पुणो वि जीवस्स । संजायते देहा, देहंत रसं कमं पप्पा || प्र० सा० । १७० ते ते कर्मत्वगताः पुद्गलकायाः, पुनरपि जीवस्य । संजायन्ते देहाः, देहान्तरसंक्रम प्राप्य ॥ वे कर्म रूप परिणत पुद्गल स्वन्ध भवान्तर की प्राप्ति होने पर उस जीव के नये शरीर का आयोजन कर देते हैं। ३५६. जो खलु संसारत्थो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ ३५७. गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते । हिंदु विसयग्गहणं, ततो रागो व दोसो वा ॥ ३५८. जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि | इदि जिणव रेहिं भणिदो,अणादिणिघणो सणिधणो वा ॥ पं० का० । १२८-१३० यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः । परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः ॥ गतिमधिगतस्य बेहो, देहादिन्द्रियाणि जायन्ते । तैस्तु विषयग्रहणं, ततो रागो वा द्वेषो वा ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृष्टि-व्यवस्था अधि०१४ १५२ कर्म-कारणवाद जायते जीवस्येवं, भावः संसारचक्रवाले। इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा॥ संसार स्थित जीव को पूर्व-संस्कारवश स्वयं राग द्वेषादि परिणाम होते हैं। परिणामों के निमित्त से कर्म और कर्मों के निमित्त से चारों गतियों में गमन होना स्वाभाविक है। गति प्राप्त हो जाने पर देह, तथा देह के होने पर इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, तथा उससे पुनः राग-द्वेष का होना स्वाभाविक है। संसाररूपी इस चक्रवाल में इस प्रकार जीव के भाव उत्पन्न होते रहते हैं। कड़ी-बद्ध अटूट शृंखला की अपेक्षा यह संसार-चक्र अनादि निधन है, और किसी एक भाव या गति आदि की अपेक्षा देखने पर वह सादि सनिधन है। ३५९. विधि सृष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया कर्मवेधसः ।। म० पु०। ४.३७ विधि, सृष्टा, विधाता, देव, पुराकृत, कर्म और ईश्वर, ये सब उसी कर्म के पर्यायवाची नाम हैं। ३६०. तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य । न चैतदसिद्धम् ।। आप्त-परीक्षा। टीका। १।७५१ अब तक कहे गये सर्व प्रकरण पर से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि स्वभाव व कर्म इन दो शक्तियों के अतिरिक्त शरीर, न्द्रिय व जगत् के कारण रूप में, ईश्वर नामक किसी अन्य सत्ता की कल्पना करना व्यर्थ है। अनेकान्त-अधिकार (द्वैताद्वैत ) छह द्रव्यों का व उनके पृथक्-पृथक् गुणों का परिचय अधिकार १२ में दिया जा चुका है। जैन-दर्शन इन दोनों को न कूटस्थ नित्य मानता है, न सर्वथा अनित्य । परिणमन-स्वभावी होने के कारण ये नित्य बदलते जा रहे है। जीवद्रव्य पशु से मनुष्य बन जाता है और मनुष्य बालक से वृद्ध । ज्ञान-गुण अविशद से विशद हो जाता है और रस-गण खट्टे से मीठा। द्रव्य व गण इन दोनों के परिवर्तनशील ये उत्पन्नध्वंसी कार्य 'पर्याय' शब्द के वाच्य है। सत्ताभूत वस्तु इन तीनों का एक रसात्मक अखण्ड पिण्ड है। इन्द्रियों द्वारा बालक वृद्धादि द्रव्य-पर्यायें और खट्टा मीठा आदि गण-पर्यायें ही देखने व जानने में आती हैं, उनमें अनुगत वह द्रव्य व गुण नहीं, जिसमें व जिस पर कि ये तैर रही है। अन्वय रूप से अवस्थित वे दोनों त्रिकाल ध्रुव है। पर्यायें उत्पन्नध्वंसी होने के कारण अनित्य है और द्रव्य व गुण उनमें अनुगत होने के कारण नित्य । पर्याय एक दुसरे से भिन्न-रूपवर्ती होने के कारण एक-दूसरे के प्रति अतत् स्वरूप है और इसलिए अनेक भी, जबकि द्रव्य व गुण इनमें अनुगतरूप से सदा वही रहने के कारण तत् स्वरूप तथा एक-एक है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने० अधि० १५ १५४ जिस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा किसी एक ही पुरुष में पितृत्व व पुत्रत्वादि धर्म विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं, उसी प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से देखने पर एक ही वस्तु में ये सभी विरोधी धर्म विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं । परिचय वास्तव में देखा जाय तो ये सब विश्लेषणकृत विकल्प मात्र हैं। वस्तु तो न नित्य है न अनित्य, न तत् न अतत्, न एक और न अनेक। वह है इन सबका एक रसात्मक अखण्ड पिण्ड, एक जात्यन्तर भाव, बौद्धिक तर्कों, मानसिक विकल्पों व वाचिक भेदों से अतीत और वस्तु का यह स्वरूप ही है अनेकान्त शब्द का वाच्य, जिसे इस नाम से न सही, पर किसी न किसी रूप में सभी स्वीकार करते हैं । अने० अधि० १५ १. द्रव्य स्वरूप ३६१ तं परियाहिं दब्बु तुहुं, जं गुणपज्जयजुत्तु । सहभुव जाणहि ताहँ गुण, कमभुय पज्जउ वृत्तु ॥ १५५ द्रव स्वरूप प० प्र० । १.५७ तत् परिजानीहि द्रव्यं त्वं यत् गुणपर्याययुक्तम् । सहभुवः जानीहि तेषां गुणाः, क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ॥ और पर्यायों से युक्त होता है, उसे तू द्रव्य जान । जो द्रव्य के साथ सदा काल रहें वे गुण होते हैं। (जैसे जीव का ज्ञान गुण ) । तथा द्रव्य व गुण के वे भाव पर्याय कहलाते हैं जो उनमें एक के पश्चात् एक क्रम से उत्पन्न हों (जैसे ज्ञान के विविध विकल्प ) । ( तात्पर्य यह कि द्रव्य में गुण तो नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य ।) ३६२. गुणाणामासओ दव्वं, एगदव्वासिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ॥ उत्तरा० । २८.६ तु० त० सू० । ५.४१, ४२ गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्याश्रिताः गुणाः । लक्षणं पर्यायाणां तु उभयोराश्रिता भवन्ति ॥ द्रव्य गुणों का आश्रय होता है। प्रत्येक द्रव्य के आश्रित अनेक गुण रहते हैं, जैसे कि एक आम्रफल में रूप रसादि अनेक गुण पाये जाते हैं । (द्रव्य से पृथक् गुण पाये नहीं जाते हैं। ) पर्यायों का लक्षण उभयाश्रित है। ३६३. ववदेसा संठाणा संखा, विसया य होंति ते बहुगा । ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जते ॥ पं० का० । ४६ व्यपदेशाः संस्थानानि संख्या, विषयाश्च भवन्ति ते बहुकाः । ते तेषामनन्यत्वे, अन्यत्वे चापि विद्यते ॥ १. अर्थात् पर्याय दो प्रकार की है- द्रव्य पर्याय व गुण-पर्याय (विशेष देखो अंत में शब्दकोश) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने० अधि०१५ १५७ वस्तु को जटिलता अने० अधि० १५ १५६ विरोध में अविरो ___द्रव्य, गुण व पर्याय इन तीनों में भले ही संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन, संस्थान आदि की अपेक्षा भेद रहे, परन्तु प्रदेश भेद न होने के कारण ये वस्तुतः अनन्य है। ३६४. एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया, वयणपज्जया वा वि। तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ सन्मति तर्क । १.३१ तु० - ध०। १गा०, १९९ । ३८६ पर उद्धृत एकद्रव्ये येऽर्थपर्यायाः, व्यंजनपर्यायाः वापि । अतीतानागतभूताः, तावत्कं तत् भवति द्रव्यम् ॥ एक द्रव्य में जो अतीत वर्तमान व भावी ऐसी त्रिकालवर्ती गुण पर्याय तथा द्रव्य पर्याय होती हैं, उतना मात्र ही वह द्रव्य होता है। ३६५. दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पायलिदिभंगा, हंदि दवियलक्खणं इयं । सन्मति तकं । १.१२ तु० - पं० का०। ११-१२ द्रव्यं पर्ययवियुक्तं, द्रव्यवियुक्ताश्च पर्ययाः न सन्ति । उत्पादस्थितिभंगाः, भवति द्रव्यलक्षणमेतत् ॥ उत्पन्नध्वंसी पर्यायों से विहीन द्रव्य तथा त्रिकाल ध्रुवद्रव्य से विहीन पर्याय कभी नहीं होती। इसलिए उत्पाद व्यय व ध्रौव्य इन तीनों का समुदित रूप ही द्रव्य या सत् का लक्षण है। २. विरोध में अविरोध ३६६. न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात् । ___व्यत्युदेति विशेषात्ते, सहक्त्रोदयादि सत् ।। आ० मी०। ५७ तु० - दे० गा० ३९८ [यहाँ यह शंका हो सकती है कि एक ही द्रव्य में एक साथ उत्पाद, व्यय व प्रोव्य ये तीन विरोधी बातें कैसे सम्भव है? इसका उत्तर देते हैं कि अन्वय रूप से सर्वदा अवस्थित रहने वाला सामान्य द्रव्य तो न उत्पन्न होता है न नष्ट, परन्तु पर्यायरूप पूर्वोत्तरवर्ती विशेषों की अपेक्षा वही नष्ट भी होता है और उत्पन्न भी। इस हेतु से सत् के त्रिलक्षणात्मक होने में कोई विरोध नहीं है। ३६७. जह कंचणस्स कंचण-भावेण अवठियस्स कडगाई। उप्पज्जति विणस्संति, चेव भावा अणेगविहा ।। ३६८. एवं च जीवदव्वस्स, दवपज्जवविसेसभइयस्स । निच्चत्तमणिच्चत्तं, च होइ णाओवल भंतं । सावय पण्णति। १८४, १८५ तु० = आप्त मी०। ५९ यथा कांचनस्य कांचनभावेन अवस्थितस्य कटकादयः । उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चैव भावाः अनेकविधाः॥ एवं च जीवद्रव्यस्य द्रव्यपर्यायविशेषभक्तस्य । नित्यत्वमनित्यत्वं च भवति न्यायोपलभ्यमानम् ॥ जिस प्रकार स्वर्ण स्वर्णरूपेण अवस्थित रहते हुए भी उसमें कड़ा कुण्डल आदि अनेकविध भाव उत्पन्न व नष्ट होते रहते हैं, उसी प्रकार द्रव्य व पर्यायों को प्राप्त जीव द्रव्य का नित्यत्व व अनित्यत्व भी न्याय-सिद्ध है। ३. वस्तु की जटिलता ३६९. पुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माई मरणकालपज्जतो। तस्स उ बालाइया, पज्जवजोया बहुवियप्पा ।। सन्मति तर्क । १.३२ पुरुषे पुरुषशब्दो, जन्मादि-मरण कालपर्यन्तः । तस्य तु बालादिकाः, पर्यययोग्या बहुविकल्पाः ।। जन्म से लेकर मरणकाल पर्यन्त पुरुष में 'पुरुष' ऐसा व्यपदेश होता है । वाल युवा आदि उसीकी अनेक विध पर्यायें या विशेष हैं। ३७०. तम्हा बत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जयो स सामन्नं । जो विसरिसो विसेसो, स मओऽणत्यंतरं तत्तो॥ वि० आ० मा०। २२०२ तु० = प० म०। ४.१-२ For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने० अधि०१५ १५८ अनेकान्त निर्देश तस्माद् वस्तूनामेव, यः सदृशः पर्ययः स सामान्यम् । यो विसदृशो विशेषः, स मतोऽनन्तरं ततः॥ प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते हैं। सदृश रूप से सदा अनुगत रहनेवाला गुण तो सामान्य अंश है और एक-दूसरे से विसदश ऐसी बाल-वृद्धादि पर्याय विशेष अंश हैं। दोनों एक-दूसरे से पृथक् कुछ नहीं है । ( इसलिए वस्तु सामान्यविशेषात्मक है।) ३७१. वृद्धैः प्रोक्तमतः सूत्रे, तत्त्वं वागतिशायि यत। द्वादशांगबाह्यं वा, श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ।। पं०प०। उ०। ६१६ तत्त्व वास्तव में वचनातीत है। द्वादशांग वाणी अथवा अंगबाह्य रूप विशाल आगम केवल स्थूल व व्यावहारिक पदार्थों को ही विषय करता है। ४. अनेकान्त-निर्देश ३७२. न पश्यामःक्वचित् किंचित, सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यन्तरं तु पश्यामः, ततोऽनेकान्त हेतवः ।। सि० वि० । २.१२ तु०-दे० गा०३७० (सामान्य व विशेष आदि रूप ये सब विकल्प वास्तव में विश्लेषण कृत हैं) वस्तु में देखने पर न तो वहां कभी कुछ सामान्य ही दिखाई देता है और न कुछ विशेष ही। वहाँ तो इन सब विकल्पों का एक रसात्मक अखण्ड जात्यन्तर भाव ही दृष्टिगोचर होता है, और वही अनेकान्त का हेतु है। ३७३. यदेव तत्तदेवातत्, यदेवकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवा___ सत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम् । इत्येकवस्तुनि वस्तु त्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।। स० सा० । आ० । परिशिष्ट तु० = स्याद्वाद मंजरी। ५ की टीका ____ जो अखण्ड तत्त्व स्वयं तत् स्वरूप है, वहीं अतत् स्वरूप है । जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य १. खट्टे मीठे आदि से रहित रस नामक गुण और जिला के विषयभूत रस गुण से व्यतिरिक्त खटु मीठे खाद अवस्तुभूत है। अने० अधि०१५ १५९ अने० को सार्वभौमिकता है। इस प्रकार वस्तु में वस्तुत्व का दर्शन करानेवाली परस्पर विरुद्ध अनेक शक्तियुगलों का प्रकाशित करना ही अनेकान्त का लक्षण है। ५. अनेकान्त को सार्वभौमिकता ३७४. यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते, नश्यत्येव न नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च । एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्ते प्रतीति दृढ़ां, सिद्ध ज्योतिरमूर्ति चित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते ।। पं० वि०। ८.१३ सिद्ध ज्योति अर्थात् शुद्धात्मा सूक्ष्म भी है और स्थूल भी, शून्य भी है और परिपूर्ण भी, उत्पन्नध्वंसी भी है और नित्य भी, सत् भी है और असत् भी, तथा एक भी है और अनेक भी। दृढ़ प्रतीति को प्राप्त वह किसी बिरले ही योगी के द्वारा देखी जाती है । ३७५. अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च। अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पंचभूतान्यपंचभूतानि । अहमखिलं जगत्। वेदोऽअमवेदोऽहम् । विद्याहम विद्याहम् । अजाहमनजाहम्। अधश्चोय च तिर्यकचाहम् । दुर्गा सप्तशती। देव्यथर्वशीर्षम् । ___ में ब्रह्मस्वरूपिणी हूँ। मुझसे ही प्रकृति पुरुषात्मक यह सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। में आनन्दरूपा हूँ और अनानन्दरूपा भी। मैं विज्ञानरूपा हूँ और अविज्ञानरूपा भी। में जानने योग्य ब्रह्मस्वरूपा हूँ और अब्रह्मस्वरूपा भी। पंच महाभूत भी में हूँ और अपंच महाभत भी। यह सारा दश्य जगत में ही हैं। वेद और अवेद में हैं। विद्या और अविद्या भी में हैं। अजा और अनजा भी में हूँ। नीचे भी मैं हूँ तथा ऊपर तथा अगल-बगल भी मैं ही हूँ। For Private & Personal use only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने० अधि०१५ सापेक्षतावाद ६. सापेक्षतावाद ३७६. यथैकशः कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका, नयास्तवेष्टा गुणमुख्य कल्पिताः॥ स्वयंभू स्तोत्र। ६२ तु०-दे० गा० ३७७ जैसे व्याकरण में एक-एक कारक शेष कारकों को सहायक बनाकर ही अर्थ की सिद्धि में समर्थ होता हैं, वैसे ही वस्तु के सामान्यांश और विशेषांश को ग्रहण करने वाले जो प्रधान नय या दृष्टियाँ हैं, वे मुख्य और गौण की कल्पना से ही इष्ट हैं। ३७७. यत्रानर्पितमादधाति गुणतां, मुख्यं तु वस्त्वर्पितं । तात्पर्यावलम्बनेन तु भवेद्, बोधः स्फुट लौकिकः ।। अध्या० सा०। १९.११ तु० = का० अ०। २६४ (यद्यपि वस्तु का कोई भी अंश मुख्य या गौण नहीं होता, परन्तु प्रतिपादन करते समय वक्ता प्रयोजनवश वस्तु के कभी किसी एक अंश को मुख्य करके कहता है और कभी दूसरे को) जिस समय कोई एक अंश अपेक्षित हो जाने से मुख्य होता है, उस समय दूसरा अंश अनपेक्षित होकर गौण हो जाता है, परंतु निषिद्ध नहीं होता है । लोक में भी वक्ता के अभिप्राय को देख कर ही उसकी बात का अर्थ जाना जाता है। ३७८. भिन्नापेक्षा यथैकत्र, पितृपुत्रादिकल्पना । नित्यानित्याद्यनेकान्त-स्तथैव न विरोत्स्यते ॥ अध्या० उप० । १.३८ तु० = स० सि०। ५.३२ जिस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से देखने पर एक ही व्यक्ति में पितृत्व प पुत्रत्व आदि की कल्पना विरोध को प्राप्त नहीं होती है, उसी प्रकार अनेकान्तस्वरूप एक ही वस्तु में अपेक्षावश नित्यत्व व अनित्यत्व आदि की कल्पनाएँ विरोध को प्राप्त नहीं होती है। १. विशेष दे० गा० ३६५-३६७ :१६: एकान्त व नय अधिकार ( पक्षपात-निरसन ) अपेक्षावश वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करने वाला वक्ता का अभिप्राय-विशेष 'नय' कहलाता है। एकांशग्राही होने के कारण यही 'एकान्त' शब्द का वाच्य है। परन्तु इतनी विशेषता है कि दूसरे धर्मों को उस समय गौण करके स्वाभिप्रेत को मुख्य करने वाला वह एकान्त सम्यक् है, और दूसरे धर्मों या पक्षों का सर्वथा लोप करके अपने ही पक्ष का हठ पकड़ने वाला एकान्त मिथ्या है। तात्त्विक गवेषणा के काल में यह नय-ज्ञान अत्यन्त उपकारी है, जबकि अनेकान्तमयी पूर्वोक्त जात्यन्तरभाव का दर्शन करते समय व्यक्ति नयातीत हो जाता है। For Private & Personal use only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय अधिकार १६ १६२ नयवाद नय अधिकार १६ पक्षपात-निरसन अर्थात् मिथ्यादृष्टि हैं, और परस्पर में समुदित हो जाने पर सभी सम्यग्दृष्टि है। (कारण अगली गाथा में बताया गया है।) १. नयवाद ३७९. णाणाधम्मजुदं पि य, एयं धम्म पि बुच्चदे अत्थं । तस्सेव विवक्खादो, णत्थि विवक्खा हु सेसाणं । का० अ०। २६४ तु० - अध्या० उप० । १.३४ नानाधर्मयुतः अपि च एकः धर्मः अपि उच्यते अर्थः । तस्य एकविवक्षातः, नास्ति विवक्षा खलु शेषाणाम् ॥ नाना धर्मों से युक्त पदार्थ के किसी एक धर्म को ही मुख्यरूपेण कहने वाला (वक्ता का अभिप्राय विशेष') नय कहलाता है, क्योंकि उस समय उसी एक धर्म की विवक्षा होती है, शेष की नहीं। ३८०. अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः, प्रमाणनयसाधनः । ___ अनेकान्तः प्रमाणान्ते, तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ स्वयंभू स्तोत्र । १०३ तु० = सन्मति तर्क। ३.२७ अनेकान्त भी वास्तव में प्रमाण और नय, इन दो साधनों के कारण अनेकान्तस्वरूप है। सकलार्थग्राही होने के कारण प्रमाण दृष्टि से अनेकान्त की सिद्धि होती है, जबकि किसी एक विवक्षित धर्म को विषय करने वाले विकलार्थग्राही नय से एकान्त की सिद्धि होती है। ३८१. जावंतो वयणपहा, तावंतो वा नया विसद्दाओ। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदया सव्वे ।। वि० आ० मा० । २२६२ तु० = गो० क०। ८९४-८९५ यावन्तो वचनपथास्तावन्तो, वा नया अपि शब्दात् । त एव च परसमयाः, सम्यक्त्वं समुदिता सर्वे॥ जगत् में जो कुछ भी बोलने में आता है वह सब वास्तव में किसी न किसी नय में गभित है। पृथक् पृथक् रहे हुए ये सभी पर-रामय २. पक्षपात-निरसन ३८२. न समेन्ति न च समेया, सम्मत्तं णेव वत्थुणो गमगा। वत्थुविधाताय नया, विरोहओ वेरिणो चेव ॥ वि० आ० मा० । २२६६ तु० - ध०९। पृ० १८२ न समयन्ति न च समेताः, सम्यक्त्वं नैव वस्तुनो गमकाः । वस्तुविधाताय नया, विरोधतो वैरिण इव ॥ परस्पर विरोधी होने के कारण ये नय या पक्ष क्योंकि एक-दूसरे के साथ मैत्रीभाव से मेल नहीं करते हैं और पृथक्-पृथक् अपने-अपने पक्ष का ही राग अलापते रहते हैं, इसलिए न तो सम्यक्भाव को प्राप्त हो पाते हैं, और न अनेकान्तस्वरूप वस्तु के ज्ञापक ही हो पाते हैं, बल्कि वैरियों की भाँति एक-दूसरे के साथ विवाद करते रहने के कारण वस्तु के विघातक बन बैठते हैं। ३८३. सव्वे समयंति सम्म, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि । भिच्च-ववहारिणो इव, राओदासीणवसवत्ती॥ वि० आ० मा०। २२६७ तु० = दे० गा० ३८६ सर्वे समयन्ति समम्यक्त्वं, चैकवशाद नया विरुद्धा अपि । भूत्यव्यवहारिण इव, राजोदासीनवशवर्तिनः ॥ किसी एक स्याद्वादी के वशवर्ती हो जाने पर, परस्पर विरुद्ध भी ये सभी नयवाद समुदित होकर उसी प्रकार सम्यक्त्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं, जिस प्रकार राजा के वशवर्ती हो जान पर अनेक अभिप्रायों को रखने वाला भृत्य-समूह एक हो जाता है। अथवा किसी व्यवहारकुशल निष्पक्ष व्यक्ति को प्राप्त हो जाने पर, धन-धान्यादि के अर्थ परस्पर लड़ते हुए अनेक व्यक्ति, युक्ति द्वारा झगड़ा सुलझा देने के कारण परस्पर पुनः मिल जाते हैं। १. प्रमाणनय तत्त्वालंकार । ७.१ २. व्यक्ति सदैव वस्तु के किसी एक अंश को ही लक्ष्य में रख कर बोलता है, इसलिए वे सब बचन-पथ नय में गर्भित हैं। For Private & Personal use only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ नय अधिकार १६ पक्षपात-निरसन ३८४. अवरोप्परसावेक्खं, णयविसयं अह पमाणविसयं वा । तं सावेक्खं तत्तं, णिरवेक्खं ताण विवरीयं ॥ न०1०। २५० अपरापरसोपेक्षो, नयविषयोऽथ प्रमाणविषयो वा। तत्सापेक्षं तत्त्वं, निरपेक्षं • तयोविपरीतम् ॥ प्रमाण व नय के विषय एक-दूसरे की अपेक्षा से वर्तते हैं। प्रमाण का विषय अर्थात् अनेकान्तात्मक जात्यन्तरभूत वस्तु तो नय के विषय की अर्थात् उसके किसी एक धर्म की अपेक्षा करती है, और नय का विषयभूत एक धर्म तत्सहवर्ती दूसरे नय के विषयभूत अन्य धर्म की अपेक्षा करता है। यही तत्त्व की या नय की सापेक्षता है। इससे विपरीत नय निरपेक्ष कहलाती है। ३८५. हिरवेक्खे एयन्ते, संकरआदीहि ईसिया भावा। णो णिजकज्जे अरिहा, विवरीए ते वि खलु अरिहा ॥ न०च०। ६७ निरपेक्षे एकान्ते, संकरादिभिरीषिता भावाः। नो निजकार्येऽर्हाः, विपरीते तेऽपि खल्वर्हाः ।। नय को निरपेक्ष एकान्तस्वरूप मान लेने पर, अभिप्रेत भी भाव संकर आदि दोषों के द्वारा अपना कार्य करने को समर्थ नहीं हो सकते हैं, और उसे सापेक्ष मान लेने पर वे ही समर्थ हो जाते हैं। ३८६. सापेक्षा नयाः सिद्धा, दुर्नयाऽपि लोकतः । स्याद्वादिनां व्यहारात, कुक्कुटग्रामवासितम् ।। सि० वि०। १०.२७ तु०-दे० गा०३८३ इसीलिए लोक में प्रयुक्त पक्षपातपूर्ण प्रायः सभी नय या अभिप्राय दुर्नय हैं। वे ही स्याद्वाद की शरण को प्राप्त होने पर सुनय बन जाती है, जिस प्रकार ग्राम या गृहवासी परस्पर मैत्रीपूर्वक रहने के कारण प्रशंसा को प्राप्त होते हैं। नय अधिकार १६ नयवाद को सार्वभौ० ३८७. कालो सहाव णियई, पुवकयं पुरिस कारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेवा, समासओ होति सम्मत्तं ॥ सन्मति तर्क। ३.५३ तु० = गोक०। ८७७-८९५ कालो स्वभावो नियतिः, पूर्वकृतं पुरुषः कारणकान्ताः । मिथ्यात्वं ते चैव, समासतो भवन्ति सम्यक्त्वम् ।। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अर्थात् कर्म देव या अदृष्ट, और पुरुषार्थ ये पांचों ही कारण हर कार्य के प्रति लागू होते हैं। अन्य कारणों का निषेध करके पृथक् पृथक एक एक का पक्ष पकड़ने पर ये पाँचों ही मिथ्या है और सापेक्षरूप से परस्पर मिल जाने पर ये पाँचों ही सम्यक् है। ३. नयवाद को सार्वभौमिकता ३८८. बोद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद्वेदान्तिनां संग्रहात, सांख्यानां तत् एव नैगमनयाद् , योगश्च वैशेषिकः । शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः, सर्वैर्नयैर्गुम्फिता, जैनी दृष्टिरितीह सारतरता, प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्वते । अध्या० सा०। १९.६ तु० = रा. वा०। १.६.१४४ (जितने भी दर्शन है या होंगे, ये सभी अपने अपने किसी विशेष दृष्टिकोण से ही तत्व का निरूपण करते हैं। इसलिए सभी किसी न किसी नय का अनुसरण करते हैं।) यथा-अनित्यत्ववादी बौद्ध-दर्शन 'ऋजुसूत्र' नय का अनुसरण करता है, अद्वेत व अभेदवादी वेदान्त व सांस्य-दर्शन 'संग्रह' नय का, भेदवादी योग व वैशेषिक-दर्शन 'नगम' नय का, और शब्दाद्वैतवादी 'मीमांसक' लोग शब्द सममिरूढ़ व एवंभूत नामक तीनों 'शब्द नयों' का अनुसरण करते हैं। परन्तु सर्व नयों से गुम्फित स्याद्वादमयी जैन दृष्टि की सारतरता प्रत्यक्ष ही सर्वोपरि अनुभव में आती है। १. गोम्भटसार में इन पाँच के अतिरिक्त भात्मवाद, ईश्वरवाद व संयोगवाद ये तीन For Private & Personal use only. और स्वीकार किये हैं। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय अधिकार १६ १६६ नयवाद को सार्वभौ० नय अधिकार १६ १६७ नय को हेयोपादेयता ३८९. जमणेगधम्मणो वत्थुणो, तदंसे च सव्वपडिवत्ती। अनेकान्तस्वरूप वस्तु के ज्ञाता उन नयों में 'यह कुछ नय तो सच्चे हैं अन्धव्व गयावयवे, तो मिच्छद्दिठिणो वीसु ॥ और यह कुछ झूठे' ऐसा विभाग नहीं करते हैं । वि० आ० मा० । २२६९ तु० = पं० विं। ४.७ ४. नय की हेयोपादेयता यदनेकधर्मणो वस्तुनस्तदंशे, च सर्वप्रतिपत्तिः । अन्धा इव गजावयवे, ततो मिथ्यादृष्टयो विष्वक् ॥ ३९२. सम्सइंसणणाणं, एदं लहदि त्ति णवरि ववदेसं । जिस प्रकार हाथी को टटोल-टटोल कर देखने वाले जन्मान्ध सब्वणयपक्पखरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो॥ पुरुष उसके एक एक अंग को ही पूरा हाथी मान बैठते हैं, उसी प्रकार स० सा०।१४४ अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में अपनी अपनी अटकल दौड़ानेवाले सम्यग्दर्शनज्ञानमतल्लभत, इति केवलं व्यपदेशः । मिथ्यादृष्टि मनुष्य वस्तु के किसी एक एक अंश को ही सम्पूर्ण वस्तु सर्वनयपक्षरहितो, भणितो यः स समयसारः ॥ मान बैठते हैं। आत्मा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान को प्राप्त होता है, ऐसा व्यवहार ३९०. परसयएगनयमयं, तप्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा। केवल कथन मात्र है। वस्तुतः वह शद्धात्म-तत्त्व सभी नयपक्षों से समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए । अतीत कहा गया है। वि० आ०भा० । २२७४ तु० = घ०९। पृ० १८२ ३९३. अत्थं जो न समिक्खइ,निक्खेव-नय-प्पमाणओविहिणा। परसमयकनयमतं, तत्प्रतिपक्षनयतो निवर्तयेत् । तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ ।। समये वा परिगृहीतं, परेण यद् दोषबुद्धया ॥ वि० आ० मा० । २२७३ तु० - ध०१ । गा० १० (उद्धृत) एकान्त पक्षपाती वे पर-समय या मिथ्यादृष्टि स्वाभिप्रेत एक अर्थ यो न समीक्षते, निक्षेपनयप्रमाणतो विधिना । नय को मान कर उसके प्रतिपक्षभूत अन्य नयों या मतों का निराकरण करने लगते हैं। अथवा दूसरों के धर्म या मत में जो बात ग्रहण की गयी तस्यायुक्तं युक्तं, युक्तमयुक्तं वा प्रतिभाति ॥ हो, उसमें दोष देखने लगते हैं। जो मनुष्य पदार्थ के स्वरूप की प्रमाण नय व निक्षेप से सम्यक प्रकार समीक्षा नहीं करता है, उसे कदाचित् अयुक्त भी युक्त प्रति३९१. णिययवयणिज्जसच्चा, सन्वनया परवियालणे मोहा। भासित होता है और युक्त भी अयुक्त । ( इसलिए नयातीत उस ते उण ण दिसमओ,विभयइ सच्चे व अलिए वा॥ तत्त्व का निर्णय करने के लिए नयज्ञान प्रयोजनीय है।) सन्मति तकं । १.२८ तु० = क० पा० १। गा० ११७ । पृ० २५७ पर उद्धृत ३९४. तच्चाणेसणकाले, समयं बुज्झहि जुत्तिमग्गेण । निजकवचनीयसत्याः, सर्वनयाः परविचारणे मोहाः । णो आराहणसमये, पच्चक्खो अणुहओ जम्हा ॥ तान् पुनः न दृष्टिसमयो, विभजति सत्यानि वा अलीका वा। न० च० । २६६ सभी नय अपने अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, परन्तु वे ही जव तत्त्वान्वेषणकाले, समयं बुध्यस्व युक्तिमार्गेण । दूसरे के वक्तव्यों का निराकरण करने लगते हैं तो मिथ्या हो जाते हैं। For Private & Personal use only नो आराधनसमये, तत्प्रत्यक्षोऽनुभवो यस्मात् ॥ ___ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय अधिकार १६ १६८ नय-योजना - विधि परन्तु तत्त्वान्वेषण के काल में ही मुक्ति मार्ग से तत्त्व को जानना योग्य है, आराधना के काल में नहीं, क्योंकि उस समय तो वह स्वयं प्रत्यक्ष ही होता है । ५. नय-योजना - विधि ३९५. तित्थय रवयण संगह, विसेसपत्थारमूलवागरणी । दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ, य सेसा वियप्पा सिं ॥ तु० = न० च० । १४८ तीर्थंकरवचन संग्रह विशेष प्रस्तारमूलव्याकरणी । द्रव्यार्थिकश्च पर्ययनयश्च, शेषाः विकल्पाः एतेषाम् ॥ तीर्थंकरों के वचन प्रायः दो प्रकार के होते हैं-- सामान्यांश प्रतिपादक और विशेषांश प्रतिपादक । इसलिए उनके ग्राहक नय भी दो प्रकार के हैं -- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । शेष सर्व नय इन दोनों के ही भेद-प्रभेद हैं। सन्मति तर्क । १.३ ३९६. पज्जउ गउणं किज्जा, दव्वं पि य जो हु गिहणए लोए । सो दव्वत्थिय भणिओ, विवरीओ पज्जयत्थिओ ॥ तु० = वि० आ० भा० । २६४४-२६४६ न० च० । १९० पर्यायं गौणं कृत्वा द्रव्यमपि च यो गृह्णाति लोके । स द्रव्यार्थिकः भणितः, विपरीतः पर्यायार्थिकः ॥ पर्याय को गौण करके जो द्रव्य को मुख्यतः ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है। उससे विपरीत पर्यायार्थिक नय है । अर्थात् द्रव्य को गौण करके जो पर्याय का मुख्यतः ग्रहण है, वह पर्यायार्थिक नय है। ३९७. दव्वट्ठियवत्तन्वं अवत्थु, णियमेण पज्जवणयस्स ॥ तह पज्जववत्थु अवत्थमेव दव्वट्ठियणयस्स || सन्मति तर्क । १.१० द्रव्याथिक वक्तव्यमवस्तु, तथा पर्ययवस्तु अवस्तु तु० = रा० वा० । १. ३३.१ नियमेन पर्ययनयस्य । एव द्रव्याथिकनयस्य ॥ नय अधिकार १६ १६९ नय-योजना-विधि द्रव्याथिक का वक्तव्य पर्यायार्थिक की दृष्टि में अवस्तु है और इसी प्रकार पर्यायार्थिक का वक्तव्य द्रव्यार्थिक की दृष्टि में अवस्तु' है । ३९८. उप्पज्जंति वियंति य, भावा नियमेण पज्जवणयस्स । दव्वट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्नमविणठं ॥ सन्मति तर्क । १.११ तु० = पं० का० त० प्र० । ५४ नियमेन पर्ययनयस्य । सदानुत्पन्नमविनष्टम् ॥ उत्पद्यन्ते व्ययन्ति च भावा द्रव्याथिकस्य सर्वं, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी वस्तुएँ सर्वदा के लिए न उत्पन्न होती हैं, न नष्ट । १. विशेषांश को देखते समय सामान्य और सामान्यांश को देखते समय विशेषांश दिखाई ही नहीं देते। इसलिए उस समय उसके लिए वे भवस्तु है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७: स्याद्वाद अधिकार (सर्वधर्म-समभाव) 'अनेकान्त' वस्तु का स्वरूप है और स्याद्वाद उसे कहने की न्यायपूर्ण पद्धति । 'स्थाद्' यह निपात 'कथंचित्' अर्थ का द्योतक है। वाक्य में प्रयुक्त यह शब्द जहाँ अभिप्रेत धर्म को मुख्य करता है, वहाँ साथ ही साथ अन्य धर्म का लोप भी होने नहीं देता है। 'स्याद्वस्तु नित्यव' इस वाक्य का स्पष्ट अर्थ यह है कि किसी एक अपेक्षा से वस्तु नित्य अवश्य है। इसी का अनुक्त अर्थ यह भी है कि किसी अन्य अपेक्षा से वह अनित्य भी अवश्य है। इस प्रकार यह पद्धति अभिप्रेत व अनभिप्रेत सभी धर्मों को समानभाव से आत्मसात् कर लेती है। और यही है इस न्याय की व्यापकता, विशालता व उदारता। For Private & Personal use only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ स्वाद्वाद अधि०१७ सर्वधर्म-समभाव १. सर्वधर्म समभाव ३९९. जं पुण समत्तपज्जाय, वत्थुगमग त्तिसमुदिया तेणं। सम्मत्तं चक्खुमओ, सब्बगयावयवगहणे व्व ॥ वि० आ० मा० । २२७० यत् पुनः समस्तपर्याय-वस्तुगमका इति समुदितास्तेन । सम्यक्त्वं चक्षुष्मन्तः, सर्वगजावयवग्रहण इव ।। जिस प्रकार नेत्रवान् पुरुष सांगोपांग हाथी को ही हाथी के रूप में ग्रहण करता है, उसके किसी एक अंग को नहीं; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि व्यक्ति समस्त पर्यायों या विशेषों से विशिष्ट समुदित वस्तु को ही तत्त्वरूपेण ग्रहण करता है, उसके किसी एक धर्म या विशेष को नहीं। ४००. उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते,प्रविभक्तासु सरित्स्विोदधिः।। वि० आ० मा० । २२६५ की टीका में उद्धृत हे नाथ ! जिस प्रकार सभी नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार सभी दृष्टियाँ अर्थात् धर्म, आपकी स्याद्वादी दृष्टि में आकर मिल जाते हैं। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों में सागर नहीं रहता, उसी प्रकार विभिन्न एकान्तवादी पक्षों में आप अर्थात् स्याद्वाद नहीं रहता। ४०१. हेउविसओवणीअं, जय वयणिज्जं वरो नियत्तेइ। जइ तं तहा पुरिल्लो, दाइंतो केण जिव्वंतो॥ सन्मति तर्क। ३.५८ हेतुविषयोपनीतं, यथा वचनीयं परो निवर्तयति । यदि तत्तथाऽपरोऽदर्शयिष्यत, केन अजेष्यत । वादी यदि साध्य को ही हेतु के रूप में प्रयोग करता है तो प्रतिवादी उसे असिद्ध साधन दोष देकर हरा देता है। परन्तु यदि वादी । स्याद्वाद अधि० १७ १७३ स्याद्वाद-न्याय उस साध्य को पहले से स्वीकार कर चुका हो, तब वह किससे पराजित होगा। २. स्याद्वाद-न्याय ४०२. वाक्येष्वनेकान्तद्योतिगम्यं-प्रतिविशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्-तत्केवलिनामपि । आप्त मी० । १०३ 'स्थात' यह निपात या अव्यय अनेकान्त का द्योतक है और पदार्थ अनेकान्त का द्योत्य है। इस प्रकार अर्थयोगी होने के कारण यह शब्द केलियों के भी वाक्यों में अनेकान्त के विशेषण रूप में प्रयुक्त होता है। ४०३. सिद्धयंत्रो यथा लोके, एकोऽनेकार्थदायकः । स्याच्छब्दोऽपि तथा ज्ञेय, एकोऽनेकार्थसाधकः ॥ न.च०।२५१ पर उद्धृत जिस प्रकार लोक में सिद्ध किया गया मंत्र एक व अनेक इच्छित पदार्थों को देने वाला होता है, उसी प्रकार 'स्यात्' यह शब्द एक तथा अनेक अभिप्रेत अर्थों का साधक है। ४०४. अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या। आकांक्षिणः स्यदिति वै निपातो, गुणाऽनपेक्षे नियमेऽपवादः ॥ स्वयंभू स्तोत्र । ४४ जिस प्रकार 'वृक्षा.' यह पद अनेक वृक्षों का वाचक होते हुए भी स्वभाव से ही पृथक्-पृथक् एक वृक्ष का भी द्योतन करता है, इसी १. एकान्तबादी अपने पक्ष के अतिरिक्त दूसरे के पक्ष को किसी भी अपेक्षा खीकार नहीं करता है, इसीसे प्रतिवादी उसके पक्ष को इक्षित करने में सफल हो जाता है। परन्तु किसी न किसी नव से सभी पक्षों को खीकार करने वाला स्याद्वादी से पराजित हो सकता है ? ' For Private & Personal use only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ स्याद्वाद अघि०१७ १७४ स्याद्वादन्याय प्रकार प्रत्येक पद का वाच्य एक तथा अनेक दोनों होते हैं। एक धर्म का कथन करते समय सहवर्ती दूसरे धर्म का लोप होने न पावे इस अभिप्राय से स्याद्वादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात्कार का प्रयोग करता है। यह निपात गौणीभूत धर्म की अपेक्षा न करते हुए भी उसका सर्व लोप होने नहीं देता है। ४०५. वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्यथाऽनुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ।। सर्वथा तत्प्रयोगेऽपि सत्वादिप्राप्तिविच्छेदे । स्यात्कारः संप्रयुज्येतानेकान्तद्योतकत्वतः ।। श्लो० वा० । २.१.६ । श्लो० ५३-५४ तु. = स्याद्वाद मंजरी । २३ स्याद्वाद अधि०१७ स्याद्वाद-योजना-विधि ३. स्याद्वाद-योजना-विधि ४०७. जीवे णं भन्ते गभं वक्कममाणे कि सेयं दिए वक्कमइ अणिदिए वक्कमइ ? गोयमा ! सिय सेइंदिए वक्कमइ, सिय अणिदिए वक्कमइ। से केणठेणं भंते ? गोयमा ! दव्विंदियाइं पडुच्च अणिदिए वक्कमइ, भाविदियाइ पडुच्च सेइंदिए वक्कमइ। से तेणठेणं गोयमा। व्याख्या प्रज्ञप्ति । १.७ सूत्र ६१ जीवो ननु भगवन् ! गर्भोपक्रममाण: कि सेन्द्रियोपकामति अनिन्द्रियोऽपक्रामति (वा)? गौतम ! स्यात् सेन्द्रियोऽपक्रामति स्यात् अनिन्द्रियोऽपक्रामति । तत् केनार्थेन भगवन् ? गौतम! द्रव्येन्द्रियाणि प्रतीत्य अनिन्द्रियोपक्रामति, भावेन्द्रियाणि प्रतीत्य सेन्द्रियोऽपक्रामति । तत्तेनाऽर्थेन गौतम ! प्रश्न :-हे भगवन्, यह जीव जब गर्भ में आता है तब इन्द्रियों सहित आता है, अथवा इन्द्रियों रहित आता है? उत्तर :-हे गौतम ! कथंचित् इन्द्रियों सहित आता है, और कथंचित् इन्द्रियों रहित आता है। प्रश्न :-सो कैसे भगवन् ? उत्तर :-हे गौतम ! द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों रहित आता है और भावेन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों सहित आता है। . अनिष्टार्थ की निवृत्ति के लिए वाक्य में एवकार का प्रयोग अवश्य करना चाहिए, अन्यथा कहीं कहीं कहा हुआ भी वह वाक्य न कहे हुए के समान हो जाता है । परन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उसके प्रयोग से सत्वादि किसी भी धर्म का सर्वथा विच्छेद होता हो तो उसके साथ-साथ स्यात्कार का भी प्रयोग अवश्य करना चाहिए, क्योंकि यह अनेकान्त का द्योतक है। ४०६. सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञः, सर्वत्रार्थात्प्रतीयते । यथैवकारेऽयोगादि, व्यवच्छेदप्रयोजनः । श्लो० वा० । २.१.६ ॥ ५६ (निःसन्देह सर्वत्र व सर्वदा इस प्रकार बोलना व्यवहार विरुद्ध है, इसीलिए आचार्य कहते हैं कि) जिस प्रकार एवकार का प्रयोग न होने पर भी विज्ञजन केवल प्रकरण पर से अयोग व्यवच्छेद, अन्ययोग व्यवच्छेद और अत्यन्तायोग व्यवच्छेद के आशय को ग्रहण कर लेते हैं, उसी प्रकार स्यात्कार का प्रयोग न होने पर भी स्याद्वादीजन प्रकरणवशात् उसके आशय को ग्रहण कर लेते हैं। For Private & Personal use only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८ : आम्नाय अधिकार देश कालानुसार भाषा व पद्धति के भेद अथवा छोटे-मोटे व्यावहारिक भेद को लेकर युग-युग में सर्वदा अवतीर्ण होने वाले सभी तीर्थंकर एक ही सिद्धान्त का आदेश देते हैं, इसलिए जैनाम्नाय अनादि-निधन है । जैन आम्नाय में श्वेताम्बर व दिगम्बर का भेद कब व कैसे उत्पन्न हुआ, यह विवादास्पद है। यहाँ केवल इतना बता देना इष्ट है कि दिगम्बर मत नग्नता के बिना मुक्ति नहीं मानता, और इसी कारण स्त्री-मुक्ति उसे स्वीकार नहीं, जब कि श्वेताम्बर मत स्त्री पुरुष आदि सबकी मुक्ति स्वीकार करता है और किसी भी लिंग से, यहाँ तक कि गृहस्थ लिंग से भी । वस्त्र, पात्र आदि उपकरण धारण करने मात्र से साघु परिग्रही नहीं हो जाता, क्योंकि वह उन्हें संयम के निर्वाहार्थं ग्रहण करता है, मूर्च्छा या आसक्ति के वश होकर नहीं । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ देशकाल का प्रभाव १७८ आम्नाय अधि० १८ आम्नाय अधि० १८ जैनधर्म को शाश्वतता १. जैनधर्म की शाश्वतता ४०८. जंबूद्दीवे भरहेरावएसु वासेसु, एगसमए एगजुगे दो। अरहंतवंसा उप्पज्जिसुवा, उप्पज्जिति वा उप्पज्जिस्संति वा ।। स्थानांग । २.३०.२० (८९) तु० - ज०प० । १९९ जम्बूद्वीपे भरतरावतेषु वर्षेषु, एकसमये एकयुगे द्वौ। अहंदशौ उत्पन्नौ वा, उत्पद्यते वा उत्पत्स्यतः वा॥ इस जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत इन दो वर्षों या क्षेत्रों में एक साथ अहंत या तीर्थंकर वंशों की उत्पत्ति अतीत में हुई है, वर्तमान में हो रही है और भविष्य में भी इसी प्रकार होती रहेगी। (वर्तमान युग के तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम है, अरिष्टनेमि २२वें, पार्श्वनाथ २३ वें और भगवान् महावीर अन्तिम अर्थात् २४ वें हैं।) ४०९. तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति, भास्करो यथा लोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते, तीर्थकरः एवम् ॥ नन्दिसूत्र । २ की मलयगिरि टीका में उद्धृत । पृ० २१ जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार ये सभी तीर्थकर स्वभाव से ही तीर्थवर्तना के लिए प्रवृत्त होते हैं । ४१०. अविसु पुरा वि भिक्खवो, आएसा वि भवंति सव्वया। एयाइँ गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो॥ सू० कृ० । १.२.३.२० अभवन् पुरापि भिक्षवः, आगामिनश्च भविष्यन्ति सुव्रताः । एतान् गुणानाहुस्ते, काश्यपस्य धर्मानुचारिणः ।। हे मुनियो ! भूतकाल में जितने भी तीर्थकर हुए हैं और भविष्यत् में होंग, वे सभी व्रती, संयमी तथा महापुरुष होते हैं। इनका उपदेश नया नहीं होता, बल्कि काश्यप अर्थात् ऋषभदेव के धर्म का हो अनुसरण करने वाला होता है । ( तीर्थंकर किसी नये धर्म के प्रवर्तक नहीं होते, बल्कि पूर्ववर्ती धर्म के अनुवर्तक होते हैं।) ४११. सव्वण्हुमुहविणिग्गय, पुवावरदोसरहिदपरिसुद्धं । अक्खयमणाहिणिहणं, सुदणाणपमाणं णिद्दिढें । ज०प०।१३.८३ सर्वज्ञमुख विनिर्गतः, पूर्वापरदोषरहितपरिशुद्धम् । अक्षयमनादिनिधनं, श्रुतज्ञानप्रमाणं निर्दिष्टम् ॥ (यही कारण है कि) सर्वज्ञ भगवान् तीर्थङ्कर के मुख से निकला हुआ, पूर्वापर विरोध-रहित तथा विशुद्ध यह द्वादशांग श्रुत अर्थात् जैनागम अक्षय तथा अनादि-निधन कहा गया है। २. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन ४१२. एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ? धम्मे दुविहे मेहावि, कहं विप्पच्चओ न ते ? उत्तरा। २३.२४ एककार्यप्रपन्नयोः, विशेषे किन्नु कारणम् । धर्मे द्विविधे मेधाविन् ! कथं विप्रत्ययो न ते॥ (भगवान महावीर ने पंचव्रतों का उपदेश किया और उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व ने चार व्रतों का। इस विषय में केशी ऋषि गौतम गणधर से शंका करते हैं, कि) हे मेधाविन् ! एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वाले दो तीर्थंकरों के धर्मों में यह विशेष भेद होने का कारण क्या है ? तथा धर्म के दो भेद हो जाने पर भी आपको संशय क्यों नहीं होता है ? ४१३. पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। ___ कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ। उत्तरा०।२३.२७ तु. = भू. आ०।५३५ (७.४३) पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु, चरमाणां दुरनुपालकः । कल्यो मध्यमगानां तु, सुविशोध्यः सुपालकः ॥ यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती te & Personal uion on Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम्नाय अधि०१८ १८० दिगम्बर-सूत्र है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते हैं। ४१४. चाउज्जामो य जोधम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ - बद्धमाणेणं, पासेण य महामुणी ॥ उत्तरा०। २३.२३ चातुर्यामश्च यो धर्मः, योऽयं पंचशिक्षितः। देशितो बर्द्धमानेन, पार्वेन च महामुनिना ॥ यही कारण है कि भगवान् पार्श्व के आम्नाय में जो चातुर्याम मार्ग प्रचलित था, उसी को भगवान् महावीर ने पंचशिक्षा रूप कर दिया। ४१५. बावीसं तित्थयरा, सामाइयसंजमं उवदिसंति । छेदुवट्ठावणियं पुण, भयवं उसहो महावीरो॥ मू० आ० । ५३३ (७.४२) द्वाविंशतितीर्थकराः, सामायिकसंयम उपदिशति । छेदोपस्थापनं पुनः, भगवान् ऋषभश्च वीरश्च ॥ दिगम्बर आम्नाय के अनुसार मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया है। परन्तु प्रथम व अन्तिम तीर्थकर ऋषभ व महावीर ने छेदोपस्थापना संयम पर जोर दिया है। ३. दिगम्बर-सूत्र ४१६. ण वि सिज्झइ वत्थधरो, __ जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मगया सव्वे ।। सू०पा०।२३ नापि सिध्यति वस्त्रघरो, जिनशासने यद्यपि भवति तीर्थकरः। नग्नो विमोक्षमार्गः, शेषा उन्मार्गकाः सर्वे॥ भले ही तीर्थकर क्यों न हो, वस्त्रधारी मुक्त नहीं हो सकता। एकमात्र नग्न या अचेल लिंग ही मोक्षमार्ग है, अन्य सर्व लिंग उन्मार्ग हैं। अम्नाय अधि० १८ १८१ श्वेताम्बर सूत्र ४१७. धम्मम्मि निप्पवासो, दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। निप्फलनिग्गुणयारो, नडसवणो नग्गरूवेण ॥ भा०पा०।७१ धर्मे निप्रवासो, दोषावासश्च इक्षुपुष्पसमः। निष्फलनिर्गुणकारो, नटश्रमणो नग्नरूपेण ॥ (इसका यह अर्थ नहीं कि नग्न हो जाना मात्र मोक्षमार्ग है, क्योंकि) जिसका चित्त धर्म में नहीं बसता, जिसमें दोषों का आवास है, तथा जो ईख के फूल के समान निष्फल व निर्गुण है, वह व्यक्ति तो नग्नवेश में नट-श्रमण मात्र है। ४१८. णिच्छयदो इथीत्णं सिद्धी, ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा । तम्हा तप्पडिरूवं, वियप्पियं लिंगमित्थी णं ।। प्र० सा०।२२५ को प्रक्षेपक गा०७ निश्चयतः स्त्रीणां सिद्धिन, तेनैव जन्मना दृष्टा। तस्मात् तत्प्रतिरूपं, विकल्पिकं लिगं स्त्रीणां ।। निश्चय से स्त्रियों को इसी जन्म से सिद्धि होती नहीं देखी गयी है, क्योंकि सावरण होने के कारण, उन्हें निर्ग्रन्थ का अचेल लिंग सम्भव नहीं। ४. श्वेताम्बर सूत्र ४१९. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ बद्धमाणेणं, पासेण य महाजसा ।। उतरा०। २३.२९ अचेलस्य यो धर्मः, योऽयं सान्तरोत्तरः। देशितो दर्द्धमानेन, पार्वेण च महायशसा ॥ हे गौतम! यद्यपि भगवान् महावीर ने तो अचेलक धर्म का ही उपदेश दिया है, परन्तु उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व का मार्ग सचेल भी है। For Private & Personal use only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम्नाय अधि० १८ १८२ श्वेताम्बर-सूत्र ४२०. एवमेव महापउम्मो वि, अरहा समणाणं निग्गंथाणं । पंचमहव्वयाई जाव, अचेलगं धम्मं पण्णविहिउ ॥ स्थानांग । ९.५० (६९३ ) एवमेव महापद्मोऽपि, अर्हन् श्रमणाणां निर्ग्रन्थानाम् । पंचमहाव्रतानि यावदचेलकं धर्मं प्रज्ञापयिष्यति ॥ इसी प्रकार आगामी तीर्थंकर भगवान् महापद्म भी पंच महाव्रतों से युक्त अचेलक धर्म का ही प्ररूपण करेंगे। ४२१. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगप्पओयणं ॥ उत्तरा० । २३.३२ प्रतीत्यार्थं च लोकस्य नानाविध विकल्पनम् । यात्रार्थं ग्रहणार्थं च, लोके लिंगप्रयोजनम् ॥ इतना होने पर भी लोक-प्रतीति के अर्थ, हेमन्त व वर्षा आदि ऋतुओं में सुविधापूर्वक संयम का निर्वाह करने के लिए, तथा सम्यक्त्व व ज्ञानादि को ग्रहण व धारण करने के लिए लोक में बाह्य लिंग का भी अपना स्थान अवश्य है । ४२२. इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे णवुंसगा । तहेव य ॥ उत्तरा० । ३६.४९ स्त्रीपुरुषसिद्धाश्च तथैव च नपुंसकाः । स्वलिंगाः अन्यलगाश्च, गृहिलिंगास्तथैव च ॥ (सभी लिंगों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, क्योंकि सिद्ध कई प्रकार के कहे गये हैं) यथा- स्त्रीलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, पुरुषलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, नपुंसक लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, जिन-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, आजीवक आदि अन्य लिंगों से मुक्त होने वाले सिद्ध, और गृहस्थलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध । आम्नाय अधि० १८ १८३ श्वेताम्बर-सूत्र ४२३. निग्गंथ सक्क तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा ॥ नन्दि सूत्र । ४६ की मलयगिरि टीका में उद्धृत निर्ग्रन्थ शाक्य तापस, गैरुक आजीव पंचधा श्रमणा । श्रमण लिंग पाँच प्रकार का होता है--निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक । ४२४. जिणकप्पा विदुविहा, पाणिपाया पडिग्गहधरा य । पाउरजमया उरणा, एक्केक्का ते भवे दुविहा ॥ पवयणसारोद्वार । ६०.२ जिनकल्पाऽपि द्विविधाः पाणिपात्राः परिग्रहधराश्च । सप्रावरणा अप्रावरणा, एकैकास्ते भवेयुः द्विविधाः ॥ जिनकल्पी साधु भी दो प्रकार के होते हैं और उनमें से भी प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं । अर्थात् चार प्रकार के होते हैं-सवस्त्र परन्तु पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र पात्रधारी । ४२५. य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं यः स्याज्जिन इव प्रभुः ॥ उत्तरा० । ३.१७८ की शान्त्याचार्य कृत टीका में उद्धृत जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है ( परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं। ) ४२६. जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं तंपि संजमलज्जट्ठा, धारंति पायपुंछणं । परिहरति य ॥ दशवं० । ६.२० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम्नाय अधि० १८ १८४ यदपि वस्त्रं च पात्रं च कम्बलं तदपि संयमलज्जार्थं धारयन्ति श्वेताम्बर-सूत्र पादप्रोंछनम् । परिहरन्ति च ॥ साधुजन ये जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पादत्रोंछन आदि उपकरण धारण करते हैं, वे केवल संयम व लज्जा की रक्षा करने के लिए, अनासक्ति भाव से ही इनका उपयोग करते हैं, और किसी प्रयोजन से नहीं । समय आने पर अर्थात् हेमन्त आदि के बीत जाने पर इनका यथाशक्ति पूर्ण या एकदेश त्याग भी कर देते हैं । ४२७ न सो परिग्गहो बुसो, नापपुरोग ताणा मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इय वृत्तं महेसिणा ॥ दशवं । ६.२१ नाऽसौ परिग्रहः उक्तः, ज्ञातपुत्रेण त्रायिना । महर्षिणा ॥ मूर्छा परिग्रहः उक्तः इत्युक्तं परन्तु इतने मात्र से साधु परिग्रहवान् नहीं हो जाते हैं, क्योंकि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने पदार्थों की मूर्च्छा या आसक्ति भाव को परिग्रह कहा है, पदार्थों या उपकरणों को नहीं। यही बात महर्षि स्वामी ने अपने शिष्यों से कही है। ४२८. सव्वत्युवहिणा बुद्धा, संरक्षण-परिहे। अति अपणो विदेहम्म, नाऽऽयरन्ति ममाइयं ॥ दशवं० । ६.२२ संरक्षणपरिहे। सर्वत्रोपधिना बुद्धाः, अप्यात्मनोऽपि देहे, नाचरन्ति ममत्वम् ॥ समता- भोगी जिन वीतरागियों को अपनी देह के प्रति भी कोई ममत्व नहीं रह गया है, वे इन वस्त्र पात्र आदि के प्रति ममत्व रखते होंगे, यह आशंका कैसे की जा सकती है ? १. आचारांग ८.४ सूत्र २ २. दे० गा० १७६ १७७ परिशिष्टः १ गाथा का आदि शब्द अगणिअ जो मुक्ख अचेलगो य जो धम्मो अज्झवसाण विसुद्धी अट्ठेण तं ण बंधइ अण्णोष्णं पविसंता अतीन्द्रियं परं ब्रह्म अतः शुद्धनयायत्तं अत्थं जो ण समिक्खड़ अधीत्य सकलं श्रुतं अघुवयसरणमे गत्त अध्यात्मशास्त्रहेमाद्रि अनन्यशरणीभूय अनेकमेकं च पदस्य अनेकान्तोप्यनेकान्तः अन्तस्तत्त्व विशुद्धात्मा अन्नं इमं सरीरं अप्पा कत्ता विकत्ता य अप्पा नई वेयरणी अन्तरसोधीए अमुट्ठाणं अंजलि अभविसु पुरा वि अभ्यासे सत्क्रियापेक्षा अम्भोवद्बुदसंनिभा अरसमरूवमगंधं अर्थोऽयमपरोऽनर्थं अलक्ष्यं लक्ष्यसम्बन्धात् गाथानुक्रमणिका ( अंक गाथाओं के हैं) गाथांक १६१ ४१९ २०४ १८४ ३४७ ९३ ३१२ ३९३ ५६ ܘܘ܀ ८८ २२६ ४०४ ३८० २४३ १०७ १३ १२ ७८ २१६ ४१० ३३ १०१ २९० गाथा का आदि शब्द अवरोप्परसावेक्वं अवि सुइयं वा सुक्कं वा असई उच्चागोए असुहादो विणिवित्ति असुहेण णिरय तिरियं अहं ब्रह्मस्वरूपिणी अहमिक्को खलु सुद्धो २२५ आगासकालपुग्गल आदा णाणपमाण आदिणिहण होणो आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी आलोयणादिकिरिया आलोयणा गरिहाईय आसवदारेहिं सया आह गुरु पूयाए आहच्च सवणं ल आहारपोसहो खलु इं दिअकसायअव्वय इक्कं पंडियमरणं इत्थी पुरिससिद्धा य इमं च मे अतिथ इय जीवमजीवे य इमासेसणादाणे इह सामण्णं साधु इहलोगणिरवेक्लो उक्कोरसचरित्तोऽवि गाथांक ३८४ २५३ २७२ १३९ १११ ३७५ २८४ ३१३ २९२ २८६ २५८ ३६ २१४ ३१८ २५७ ११३ १८६ ३१७ २३३ ४२२ १७ २६ १९१ २४१ २०२ १५४ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ गायांक गाथा का आदि शब्द १८७ गाथांक गाथांक ४२० १०ख २२० 0020402 000RA.GK ३९८ २९३ ३८७ 4 गाथा का आदि शब्द उड्ढमहो तिरिय पि उत्तमखममदवज्जव उत्तम गुणाण घामं उदधाविव सर्वसिन्यवः उदयं जह मच्छाणं उद्देसियं कीयगडं उद्धाण तेण सावय उपास्यात्मानमेवात्मा उप्पज्जति वितिय उप्पज्जतो कज्ज उवमोगपरिमोगे बीयं उवमोगमिदियेहि उवसमदयादमाउ एए य संगे समइक्कमित्ता एएहि पंचहि असंवरेहि एकस्य विषयो यः एको मावः सर्वभाव एक्कु करे मं विणि एगतमणावाए एगते अच्चित्ते दूरे एगकज्जपवनाणं एगदवियम्मिजे एगुत्तरमेगादि अणुस्स एगो मे सासजओ अप्पा एवं सकम्मविरियं एयाओ पंचसमिईओ एवा वि सा समत्था एवं त्रमशोऽभ्यासा एवं च जीवदव्वस्स एवं तु संजयस्सावि एवं सेहे वि अपुढे एवं हि जीवराया २२८ २७५ १८२ एवमेव महापउम्मो वि २४२ (ख) एवमेव वयं मुढा ३१४ ओरालियो य देहो ४०० कत्ता भोइ अमुत्तो कम्ममसुहं कुसोलं १९५ कर्म नष्कयं वैषम्य कर्मयोग समभ्यस्य ३४४ कर्माप्याचरतो ज्ञातु कसाए पयणू ए किच्चा ३४८ कह चरे कह चिट्ठ १८३ कामाणु गिद्धिप्पमवं १३४ काकिरियाणियत्ती १२२ कालो सहाव णियई किचिवि दिमिपावत्त ३२९ किमाहणा! जोइसमा १२९ कुलस्वजादिबुद्धिसु कृतानि कर्माण्यतिदा कोहं खमाइमाणं २११ कोहस्स व माणस्सव १९७ कोहादिसगम्भावक्खय ४१२ कोहेण जोण तप्पदि खंच सयलसमत्थं खंधा य खंघदेसाय १०५ सामेमि सबजीवे गदिमधिगदस्स देहो १९२ गामे वा णयरे वा २५६ गुणपरिणामो सड्ढा २२९ गुणाणामासओ दवं ३६८ गुणेहिं साहू अगुणेहि ३३५ ज्ञान केवलसंज १३६ ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो २४ घोडलिंडसमाणस्स गाथा का आदि शब्द चउरंग दुल्लहं णच्चा चक्किकुरुफणिसुरिंद चक्खुसा पडिलेहिता चतुवर्गऽग्रणी मोक्षो चत्तारि कसाए तिन्नि चत्तारि मंगलं चत्तारि लोगुत्तमा चत्तारि सरणं पव्वज्जामि चरणकरणप्पहाणा चरे पयाई परिसंकमाणो चाउज्जामो य जो चारितं खलु धम्मो चितंतो ससरूवं चिच्चा दुपयं च चउ चित्तमंतमचित्तं वा चेयणरहियममुत्तं छट्ठट्ठमदसमदुवा जं अन्नाणी कम्म जं किचिवि चितंतो जं पि वत्थं व पाय जं पुण सम्मत्तपज्जाय जंबूद्दीवे भरहेरावएसु जं मया दिस्सदे एवं जं मोणं तं सम्म जं सक्कइ तं कीरइ जउकुंभे जोइउवगूढे जत्थ य एगो सिद्धो जत्थेव पासे कइ जदि पढदि बहुसुदाणि जमणेगवम्मणो जमिणं जगई पुढो जम्मजरामरणमए ३५ १४६ २७० गायक गाथा का आदि शब्द ४२ जयं चरे जयं चिटठे ३४१ जले जीवाःस्थले १९६ जस्स ण विज्जदि २० जह कंचणस्स कंचण ७२ जह कंटएण विद्धो २ जह जह बहुस्सुओ २ जहणवि सक्कम २ जह णाम को वि पुरिसो १४३ जह ते न पियं दुक्खं २३४ जह निबदुमुप्पण्णो ४१४ जह पउमरायरयणं ११७ जह बालो जपतो २२७ जह रायकुलपसूओ ३५४ जह वि णिरुद्धं १७० जह सलिलेण ण ३०१ जह हवदि धम्मदव्वं २०९ जहा कुम्मे सअंगाई २०६ जहा दड्ढाणं बीयाणं २३० जहा दुमस्स पुप्फे ४२६ जहा महातलागस्स ३९९ जहा लाहो तहा लोहो ४०८ जादो अलोगलोगो २०१ जायदि जीवस्सेवं ४४ जा रायादिणियत्ती ४८ जावइयं किचि दुह १७४ जावद्धम्म दवं ३३९ जावन्तो वयणपहा ६९ जिणकप्पा वि दुविहा १४२ जीवपरिणामहेदु २८९ जीवस्स णत्थि रागो ११ जीवह कम्मु अणाइ १०३ जीवाजीवा य बंधा २१५ १२४ १२३ २६८ २९५ Mmmmmmmmm १४४ २६९ ३५७ १७१ २२१ ३८१ ३६२ ૪૨૪ ३५३ २१. २९९ २५२ ३१० Education intematon For Private Penal Use Oy Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ १८९ गायक गाथा का आदि शब्द गाथा का आदि शब्द गाांक गायांक गाथा का आदि शब्द गाथांक गाथा का आदि शब्द १४८ २०५ M . ३२ . १७९ ३५० जीवाजीवी हि धर्मिणौ जीवादीपयत्थाणं जीवादिबहित्तच्च जीवादीसद्दहणं जीवा पुग्गलकाया जीवेणं भन्ते गम्भ जीबोप्रविश्य जीवो बंभा जीवम्मि जे इंदियाणं विसया जे केइ वि उवएसा जेण रागा विरज्जेज्ज जे पज्जएसुणिरदा जे य कंते पिय भोए जेसि विसयेसु रदी जो अवमाणकरणं जो एग जाणइ जो खलु संसारत्थो जो चरदि णादि पेच्छदि जो चितेइ ण वक जो जाए परिणिमित्ता जो ण करेदि जुगुप्पं जो ण य कुब्बदि गवं जो धम्मिएसु भत्तो जो पस्सदि अप्पाणं जो मण्णादि हिंसामि जो मुणिभुत्तवसेसं जो समो सव्वभूएसु जो सुत्तो ववहारे जो सम्म भूयाई ठाणा वीरासणाईया ण बलाउसाउअट्ठ णमो अरहताणं ३११ ण य गच्छदि ११० णवि कारणं तणमओ ३१५ ण वि तं कुणइ अमित्तो २२ ण वि सिज्झइ वत्थधरो २८८ ण हि आगमेण ४०७ णाणाधम्मजदं पिय णासीले ण विसीले १७३ णिच्छयदो इत्थीणं १२८ णिच्छय सज्झसरूपं २६० णिद्धा वालुक्खा वा ९६ णिययवयणिज्ज ८४ हिरवेक्खे एयन्ते २८२ णिब्वेगतियं भावद ८ णिसल्लस्सेव पुणो २७१ णो च्छायए णो वि ८२ तं एयत्तविभत्तं ३५६ तं परियाहिं दब्बु २१ तच्च तह परमट्ठ २७३ तच्चाणेसणकाले २३९ तत्स्वाभाव्यादेव ५८ तथ रोसेण सयं ६२ तनुकरणभुवनादौ ७० तम्हा अहिगयसत्तेण ८१ तम्हा वत्थूणं चिय १६५ तवसा उणिज्जरा इह २६५ तवसा चेव ण मोक्खो १८७ तवो जोई जीवो १५७ तस्माद्वीर्यसमुद्रेका ३१९ तस्स ण कप्पदि २१२ तहागहं भिक्खु २५१ ता मंजिज्जउ लच्छी १ तिण्णो हु सि o rm mrar smrrorms तित्थयरवयणसंगह तिविहा य होइ कंखा तिसिदं वा मुक्खिदं तेते कम्मत्तगदा तेसि वि तवो ण त्यक्तं येन फलं थोवम्मि सिक्खिदे दसणणाणे विणओ दसणभट्ठो मट्ठो दर्शनविशुद्धिविनय दवम्गिणा जहा दव्वं पज्जवविउयं दविठियवत्तव्वं दाणं पूजा सील दिसिविदिसिमाण दुपदेसादी खंधा दुविह संजमचरणं देहादेवलि जो वसई धम्मकहाकहणण धम्मम्मि निप्पवासो धम्माधम्मा कालो घम्मेण विणा जिण घम्मे य धम्मफलम्हि धम्मो अहम्मो धम्मो वत्थुसहावो घोरेण विमरियब्वं न कम्मणा कम्म न काममोगा समय न पश्यामः क्वचित् न समेन्ति न च समेया न सामान्यात्मनोदेति न सो परिग्गहो वुत्तो ३९५ न हयप्रमत्तसाधूनां ५५ नाणमयवायसहिओ २६२ नाणेण य झाणेण य ३५५ निग्गंथ सक्क तावस ६५ निस्संकिय निक्कंखिय १४७ नो खलु अहं तहा १४० नो सक्कियमिच्छई न २१८ पंच उ अणुब्बयाई ४५ पंचसमिओ तिगुत्तो ९८ पंचेव अणुब्बयाई १०(क) पउमणिपत्तं व जहा ३६५ पच्चयत्यं च लोगस्स ३९७ पज्जय गउणं किज्जा २४५ पत्थं हिदयाणिळं पि १८१ पमायं कम्ममाहंसु ३५१ परमाणुमित्तयं वि परसमएगनयमयं पुरिमाणं दुव्विसोझो पुरिसम्मि पुरिससद्दो पूयादिसु णिरवेक्खो पेसुण्णहासकक्कस्स प्रियं तथ्यं वचस्तथ्यं १३० फासुवमग्गेण दिवा २८७ बारसविहयम्मि वि २४२(क) बावीसं तित्थयरा २३२ बौद्धानामृजुसूत्रतो २७८ भावस्स सिद्ध्यसिद्धि १७६ मावस्स पत्थि णासो ३७२ भावे विरत्तो मणु ओ ३८२ भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो भिन्नापेक्षा यर्थकत्र ४२७ भूतं भान्तमभूतमेव makarmorror-m For Private & Personal use only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० १९१ गायांक ३२० गाथांक २५० ११४ ८६ २२४ ३३७ १२७ orm mmm. MYum. २८५ १३५ २१९ ४०५ مام १३३ गाथा का आदि शब्द भूयत्येणाभिगदो भेदसंघाताभ्यां च भोगामिस दोस मोच्चा माणुस्सए यं पुणु पुण्ण मंसठियसंघाए मणसा वाया कायेण मदमाणमायलोह मनः शुद्धिमविभ्राणा मरदुवा जियदु मा चिट्ठह मा जंपह माणुस्सं विग्गहं मायावुइममेयं तु मिच्छंतं वेदंतो मितसुयबंधवाइसु मूछिन्नधियां सर्व मूतिमत्सु पदार्थेषु य एतान् वर्जयेद्दोषान् यः परमात्मा स एवाऽहं यत्रानपितमादधाति यत्रवाहितघीः पुंसः यत्सूक्ष्मं च महच्च यथा-यथा समायाति यथा स्वप्नोऽवबुद्धो यथैकशः कारकमर्थ यदेव तत्तदेवातत् यद्यत्स्वानिष्ट यस्य सस्पन्दमामाति रत्तो बंधदि कम्म रागहोसपमत्तो रागद्वेषाविह हि रागादीणमणुप्पा गाांक गाथा का आदि शब्द ४३ रुपिय छिद्दसहस्से २९४ लाउ य एरंडफले १८ लाहालाहे सुहे दुक्खे ४१ लोइय जणसंगादो ३२७ लोयायास पदेसे १०९ वजिज्जा तेनाहड १९ वदसमिदिकसायाणं ७६ वरं वयतवेहि सग्गो ७७ वर जियपा वई १६७ ववदेसा संठाणा संखा २३१ ववहारेणुवदिस्सइ ११२ ववहारोऽभूयत्यो ६० वाक्येऽवधारणं तावद् वाक्येष्वनेकान्त ७३ वासीचन्दणसमाण १७७ विगिच कम्मुणो विणओ मोक्खदारं वित्तेण ताणं ण लमे ३४२ विधिः सृष्टा विधाता बिना समत्वं प्रसरन् विरलो अज्जदि पुण्णं ३७४ विषमेऽपि समेक्षी यः १२६ विषयान् साधकः पूर्व ८५ विसयकसायविणिग्गह ३७६ वृद्धः प्रोक्तमतः सूत्रे ३७३ व्याप्नोति महती भूमि २४६ संगं परिजाणामि १३१ संजोगमूला जीवेणं ३३१ संजोगसिद्धीइ फलं ३१६ सलेहणा य दुविहा १२१ संवेओ णिब्वेओ १६६ संसयविमोहविन्मम गाथा का आदि शब्द सत्तमयट्ठाणा सत्त्वेषु मंत्री सइंघयार-उज्जोय सदहदि य पत्तेदि सद्धं णगरं किच्चा सुबहुं पि सुयमहीयं सब्भावसभावाण समणेण सावएण य समणोत्ति संजदोत्ति समदा तह मज्झत्थ समसंतोष-जलेणं सम्मत्तणाणचरणे सम्मत्तरयणभट्ठा सम्यत्तादोणाणं सम्मदिट्ठी जीवा सम्मइंसण णाणं सव्वओ पमत्तस्स सब्वण्हुमुहविणिग्गय सब्वत्थुवहिणा बुद्धा सवे पाणा पियाउया सब्वे भावे जम्हा सव्वे समयंति सव्वे सरा नियटॅति सापेक्षा नयाः सिद्धा सामाइयं उकए सामाइयं च पढम सामिसं कुललं सावज्जजोगपरि सिद्धमंत्रो यथा सिया ह से पावय गाथांक गाथा का आदि शब्द सीह-गय-वसह ७१ सुइंच लढूंसद्धं च २९७ सुई जहा ससुत्ता १५ सुचिए समे विचित्ते २४४ सुत्तं अत्यनिमेणं १४१ सुत्तेसु यावी पडि ३०७ सुद्धो सुद्धादेसो ९९ सुदपरिचिदाणु २४९ सुलभं वागनुच्चारं सुहं वसामो जीवामो २७६ सुहसायगस्स २५५ सेज्जागासणिसेज्जा ८९ सेणावतिम्मि निहते सेयासेयविदण्हू ५२ सेवंतो वि ण सेवइ ३९२ सोप्रयुक्तोऽपि १५६ सोच्चा जाणइ ४११ सो णत्थि इहोगासो ४२८ सोनाम अणसण सोवण्णिय पि २७९ सो वि परीसह सौख्यं वैषयिक २९१ स्नेहाभ्यक्ततनोरंग ३८६ स्वमावलामात् हत्थागया इमे १८५ हयं नाणं कियाहीणं १७८ हा! जह मोहिय १८८ हिंसाविरदिसच्चं ४०३ हेउविसओवणी २६१ होऊण व णिस्संगो THA २१७ १५५ ३७७ १८९ ३८३ rm wormr W93urPurrorm १९० For Private & Personal use only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ अस्तेय-विना दी वस्तु में ग्रहण का उपवहंणत्व-दम्भाचार को छोड़कर भाव न होना। (१७१) सम्यक् प्रकार निज गुणों में वृद्धि परिशिष्ट:२ अहिंसा-किसी को न मारना व्यवहार करना। (६४-६८) पारिभाषिक शब्द-कोश अहिंसा है और राग-द्वेष का उपशम-निर्मदता। (६२) उत्पन्न न होना निश्चय अहिंसा उपाध्याय-अध्ययन-अध्यापन करने में अंक गाथाओं के हैं कुशल साधु । (१) अचित्त-निर्जीव पदार्थ (१७०) आकाश-अचेतन अमूर्तिक व विभु ऊवं लोक-लोककाश का ऊर्ध्ववर्ती अन्यत्व भावना-अपने को देहादि से द्रव्य । (३०१) वह भाग जहाँ कि देवों का निवास अजीव-जीव के अतिरिक्त पुदगल आदि भिन्न देखना। (१०७) आकिंचन्य-निर्मम भाव । (२८४) है। (११०) पाँच द्रव्य अचेतन होने से अजीव अपरम भाव-योगी जब तक पूर्ण-काम आचार्य-साधु-संघ के नायक। (१) ऊनोदरी-ग्रास ग्रास करके भोजन को कहलाते हैं। (३१३) नहीं हो जाता (३०) आत्मा-दे० जीव घटाना। (२०७) अणुव्रत-अहिंसा, सत्य आदि पांच मूल अपेक्षा-एक पदार्थ या धर्म की अपेक्षा व्रत ही एकदेश रूप पालन होने दूसरे का परत्वापरत्व । आदाननिक्षेपण समिति-पदार्थों को ऋजसूत्र-क्षणवर्ती कार्य को ही पूर्ण तत्त्व देखनेवाली दृष्टि । (३८९) पर अणुव्रत कहलाते हैं । (१८०) देख भालकर उठाना घरना। अप्रमाद-पारमार्थिक जागरूकता अधर्म द्रव्य-लोकाकाश प्रमाण एक एकत्व-सब पर्यायों में अनुगत मूल तत्त्व (१४५); दैनिक क्रियाओं के अमूर्तिक द्रव्य, जो जीव व आर्जव-मायाविहीन शिशुवत् सरल की एकता (४); जगत् में जीव प्रति सावधानी । (१५१) पुद्गलों की स्थिति में उदासीन भाव । (२७३-२७४) का तात्त्विक एकाकीपन । (१०५) अमढ़वष्टित्व-स्व-धर्म-निष्ठा । (६०) हेतु है। (३०४) अलोक-पट् द्रव्यमयी लोक-भाग को आवश्यक कर्म-साधु के करने योग्य छह एकान्त-अनेक धर्मात्मक वस्तु में से अधोलोक-लोकाकाश का अधःवर्ती वह आवश्यक कर्म--वन्दना, स्तुति, किसी एक धर्म को ही ग्रहण छोड़कर उसके बाहर का अनंत भाग जिसमें नारकीयों का वास समता, प्रतिक्रमण, कायोत्सगं व करनेवाली दृष्टि या पक्षपात । आकाश । (३०२) (३८२) स्वाध्याय । (१४८) है। (११०) __ अशरणत्व-आत्मा व धर्म के अतिरिक्त अनर्थदण्ड-निष्प्रयोजन किया गया आस्तिक्य-तत्त्व व अतत्त्व में विवेक ऐरावत क्षेत्र-जम्बूद्वीप का उत्तरवर्ती जगत् में कुछ भी शरणभूत नहीं कोई भी कार्य (१८४) भाव । (७४) क्षेत्र । (४०९). है। (१०४) अनशन-खान पान आदि चारों प्रकार अशचित्व भावना-शरीर के अशुचि आत्रव-क्रियमाण कर्म-संस्कारों का एषणा समिति-यथालब्ध आहार में सन्तोष रखना। (१९५) के आहार का पूर्ण त्याग (२०८) आगमन । (३१६-१८) स्वभाव को देखकर इससे विरक्त अनागार धर्म-निर्ग्रन्थ अर्थात् साधु का तप- आहारक शरीर-ऋद्धि-प्राप्त औदारिक शरीर-दृष्ट स्थूल शरीर । होना। (१०९) धर्म (२४७) स्वियों का एक विशेष अदृष्ट (२९८) अशुभोपयोग-हिंसा आदि रूप मानसिक अनित्यत्व भावना-बारह अनुप्रेक्षाओं प्रवृत्ति । (१११) शरीर। (२९८) करोति क्रिया-फलेच्छा सापेक्ष साहमें से प्रथम, देहादि की अनित्यता अस्तिकाय-त्रिकालावस्थायी होने से ईर्या समिति-जीव-जन्तुओं को बचाते कार कर्म। ( १४६) का चिंतन (१०१) छहों द्रव्य अस्तित्व स्वभावी हैं, हुए देखभाल कर चलना। कर्म-राग-द्वेषादि तो भाबकर्म है, और अनेकान्त-नित्यत्व-अनित्यत्व आदि परन्तु अणु परिमाण होने से काल इनके निमित्त से संचित किन्हीं अनेक विरोधी धर्मों से गुम्फित द्रव्य कायवान नहीं है । शेष पाँच उपगृहन-अपने गुणों का व अन्य के सूक्ष्माणुओं का संश्लेप द्रव्यकर्म वस्तु का एकरसात्मक जात्यन्तर विभु व मध्यम परिमाण-युक्त होने दोषों का गोपन । (७२) है। (३५३) भाव। (३७४-३७७) से कायवान भी हैं। (२८८) १३ For Private & Personal use only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायक्लेश-उग्र आसन मांड कर धूप छल-वक्ता के अभिप्राय से विपरीत शीत या वर्षा में निश्चल स्थित शब्दार्थ करना। (४) रहना। (२१२) छेदोपस्थापना-व्रत समिति आदि के कायोत्सर्ग-शरीर को ठूठ या काष्ठ विकल्पों से युक्त व्यवहार चारित्र। वत् सोचकर निश्चल व निष्क्रिय (४१६) हो जाना। (१९९) जम्बूद्वीप-यह पृथिवी-मण्डल। (४०९) कार्मण शरीर-उपरोक्त द्रव्य-कमों का जीव-प्रत्येक देह में स्थित चेतन संचय। (२९८) अमूत्तिक जीवात्मा। (२८९-२९३) काल-द्रव्यों के परिणमन में उदासीन तत्त्व-द्रव्यादि का सारभूत भाव हेतुभूत, अणु-परिमाण, असंख्यात (३०९) तत्व नौ है (२०७) अमूत्तिक द्रव्य-(३७७-३७८) तप-इच्छा का निरोध (२०७) क्षमा-क्रोध का कारण होने पर भी तीर्थकर-तीर्थ अर्थात् संसार सागर का क्रोध न करना। (२६८) किनारा । उसके प्रति प्रवृत्त क्षोभ-राग द्वेष-युक्त परिणाम (११७) होनेवाले महापुरुष तीर्थकर कहगाँ-गुरु के समक्ष अपने दोष बताकर लाते हैं। (४१०) आत्मनिन्दन करना। (२१५) तियंच-वनस्पति व कीट-पतंग आदि गुण-प्रत्येक अवस्था में द्रव्य के साथ से लेकर पशु-पक्षी पर्यन्त सर्व रहने वाले उसके स्थायी अंश। जीव-राशि । (१११) यथा मनुष्य में ज्ञान इच्छा प्रयत्न तेजस शरीर-इस स्थूल देह में कान्ति आदि तथा आम में रूप रस व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाला कोई गन्ध आदि। (३६३) आभ्यन्तर सूक्ष्म शरीर। (२९८) गुणवत-अहिंसा आदि मूल अणुव्रतों त्याग-प्राप्त भोगों के प्रति पीठ दिखा के मूल्य को अनेक-गुणा कर देने कर चलना। (२८२) वाले कुछ नियम। (१८१) दया-परदुःख-कारतरता। (२६२-६३) गुप्ति-मन वचन काय का गोपन। दान-दान देकर खाना ही खाना है। अशुभ योग की निवृत्ति। (२६५) (१९२) दिगम्बर-फेवल नग्न लिंग से मुक्ति गुरु उपासना-गुरु-विनय । (२६०) मानने वाला एक प्रधान जैन ज्ञप्ति-किया-निष्काम कर्म । (१४७) सम्प्रदाय । (४१७) चातुर्याम मार्ग-अहिंसा, सत्य, अचौर्य दिखत-दिशाओं की सीमा का परि व ब्रह्मचर्य इन चार व्रतों का माण करके उससे बाहर व्यापार मार्ग। (४१५) करने का त्याग। (१८२) देव-स्वर्गवासी। (१११) निदान-परमव में सुख की कामना। द्रव्य-गुण-पर्यायवान् । (३६३) उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त । (३६७) निरपेक्ष-सहवर्ती दूसरे धर्म या पक्ष का त्रिकालवर्ती पर्यायों का पिण्ड। लोप करके केवल अपना पक्ष पुष्ट करनेवाला अभिप्राय। द्रव्य छह है-जीव, पुद्गल, धर्म, (३८६) अधर्म, आकाश व काल । (३८७) निजरा-तप द्वारा निर्जरा-तप द्वारा कर्मों का क्षीण द्रव्याथिक नय-पर्याय या विशेष को होना। (३३२) गोण करके केवल अनुगताकार निविचिकित्सा-किसी भी धर्म या सामान्य को ग्रहण करने वाली पदार्थ के प्रति ग्लानि न होना। दृष्टि। (३९७ ) द्रव्येन्द्रिय-देहगत आँख नाक आदि। निश्चय-एकरसात्मक अखण्ड तत्त्व द्वेष-अनिष्ट विषयों के प्रति अरति (२७-२८) । आभ्यन्तर परिणाम भाव (१२८); विशेष दे० । व स्वसंबेदन ज्ञान । (अधि०३) (११८-१२१) नगम नय-द्वैताद्वैत ग्राही दृष्टि । (३८९) धर्म-समता निश्चय धर्म है और व्रत पंचशिक्ष मार्ग-अहिंसा, सत्य, अस्तेय दया दान आदि व्यवहार धर्म है। ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह, ऐसे पांच (२४२) व्रतों का मार्ग (१६३) धर्म द्रव्य-जीव पुद्गल की गति में पण्डित-तत्त्वज्ञ, सम्यग्दृष्टि । (१४४) उदासीन सहकारी, लोकाकाश पण्डितमरण-समाधि या सल्लेखना प्रमाण एक अमूत्तिक द्रव्य। मरण। (१३३) (३०३) परम भाव-पूर्ण-काम, योगनिष्ठ । ध्यान-शरीर को स्थिर करके मन को (३०) किसी विषय के प्रति एकाग्र परमात्मा-जीव की सभी पर्यायों में करना। (२२४-२२७) अनुगत शुद्ध चित्तत्व कारणनय-प्रयोजनवश वस्तु के किसी एक परमात्मा है ( ३४३), और अंश को प्रधान करके देखने व मुक्तात्मा कार्य-परमात्मा है। कहनेवाला अभिप्राय या पक्षविशेष। (३८१) परमेष्ठी-अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय नरक-लोकाकाश का अघोमाग (११२) व साधु ये पांच (१), परमेष्ठी निःकांक्षित्व-निष्कामता। (५३) कहलाते हैं। (२२८) निःशंकित्व-तात्विक निर्भीकता।(५२) परसमय-मिथ्यादृष्टि अज्ञानी। (८३) Jan Education int o nal Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-देहादि अनात्मभूत पदार्थों में प्रमाद-शास्त्रविहित कर्मों के प्रति मूर्छा या इच्छा का भाव । अथवा अपने स्वरूप के प्रति अनु(१७७,४२९) त्साह । (१५४-१५८) परिणमन-मनुष्य की बाल-बद्धादि प्रशम-राग-द्वेषविहीन शान्त परि अवस्थाओं की भांति, द्रव्य में णाम। (७२-७३) पर्यायों का नित्य बदलते रहना। प्रायश्चित्त-अपने दोषों के शोधनार्थ (१२१) पश्चात्तापपूर्वक ग्रहण किया गया परीषह-जय-तितिक्षा । (१३७) दण्ड । (२१४) पर्याय-द्रव्य व गुण के नित्य परिवर्तन- प्रोषध-पर्व के दिन आहार भोग व शील क्रमवर्ती कार्य। मनुष्य की शरीर-संस्कार आदि का त्याग बाल वृद्धादि अवस्थाएँ तथा आम करके धर्म ध्यान में समय बिताना। की कच्ची-पक्की आदि अवस्थाएं बन्ध-राग-दूषक कारण हान बन्ध-राग-द्वेष के कारण होने वाला 'द्रव्य-पर्यायें हैं, और ज्ञान की कर्मसंचय। (३२९-३३१) तरतमताएँ तथा रस की खट्टी बहुश्रुत-शास्त्रज्ञ। (१४०) मीठी आदि अवस्थाएँ गुण-पर्यायें बाल-अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि । (१४४) हैं। (३६३) बालचरण-समताविहीन कोरा कर्मपर्यायाथिक नय-द्रव्य या सामान्यांश काण्ड। (१४२) को छोड़ कर केवल पर्याय या बालश्रुत-तत्त्व विहीन कोरा शास्त्रविशेषांश को ग्रहण करनेवाली ज्ञान । (१४२) दृष्टि। (३९७-३९९) बोधिदुर्लभ-जगत् की दुर्लभ से दुर्लभ पुद्गल-रूप-रसादि-गुणयुक्त तथा पूरण वस्तुओं में भी श्रद्धा व संयमगलन स्वभावी मूत्तिक या भौतिक .युक्त तत्त्वज्ञान दुर्लभतम है। द्रव्य । (२९४-३००) (११२-११४) प्रतिक्रमण-भूतकालीन दोषों का आत्म- ब्रह्मचर्य-आत्मा में रमण निश्चय ब्रह्म लानि के भाव द्वारा शोषन करना। चर्य है (१७३) और स्त्री-त्याग प्रतिष्ठापना समिति-मल-मूत्र का निर्जन व्यवहार ब्रह्मचर्य। (१७५) स्थान में निक्षेपण करना।(१९७) भक्ति-ज्ञानादि गुणों का बहुमान प्रदेश-एक परमाणु परिमाण क्षेत्र। निश्चय भक्ति है। (२५५) और (३०८) जिनेन्द्र भक्ति व्यवहार है। (२५६) प्रमाण-अनेक धर्मात्मक वस्तु को, भय-मय सात होते हैं। (५३) मुख्य गौण किये बिना, युगपत भरतक्षेत्र-जम्बूद्वीप का दक्षिणवर्ती ग्रहण करनेवाला ज्ञान । (३८३) क्षेत्र । (४०९) १९७ भावेन्द्रिय-इन्द्रियगत देखने सुनने आदि युक्ताहार-शुद्ध व परिमित आहार। की शक्ति । (२०२) भाषा-समिति-सोच समझकर स्व-पर योग-मन वचन काय को प्रवृत्त करने हितकारी वचन बोलना (१९४) वाला बाभ्यन्तर प्रयत्न। (१९) भोग-परिभोग परिणाण व्रत-भोगेच्छा रत्नत्रय-मोक्षमार्ग के तीन प्रधान को वश करने के लिए भोग-परि- अंग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व भोग की वस्तुओं का परिमाण सम्यक्चारित्र। (२०) करना। (१८३) रस-परित्याग-नमक मीठा घी आदि मध्यलोक-लोकाकाश का मध्यवर्ती रसों को छोड़ कर नीरस आहार वह भाग जिसमें तिर्यच व मनुष्य करना। (२०७) रहते हैं। (११०) राग-इष्ट विषयों के प्रति रति भाव मनोगुप्ति-रागादि की निवृत्ति। (१९८) (१२८),विशेष दे० (११८-१२१) महाव्रत-अहिंसा आदि का पूर्णदेश लेश्या-कषायानुरंजित प्रवृत्ति। (२३९) पालन । (१६३) लोक-आकाश का मध्यवर्ती वह भाग मार्दव-अष्टविध मद का न होना। जिसमें जीव आदि षट् द्रव्य (२७०) अवस्थित है (३०२)। यह तीन मिथ्यात्व-तत्त्व विषयक विपरीत भागों में विभाजित है-अघो, थद्धान। (१४) मध्य व ऊर्ध्व । (११०) मोक्ष-कों के निःशेष विध्वंस हो जाने वचन गुप्ति-अलीक वचनों की निवृत्ति पर जीव की वासना-शून्य शुद्ध अथवा मौन । (१९८) बुद्ध अवस्था (३३६), पुनः संसार वात्सल्य-मंत्री, प्रमोद, करुणा, मध्य में आवर्तन नहीं होता (३४०) स्थता आदि रूप भाव। (७१) मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व विनय-अभ्युत्थान, अनुगमन, गुरु सम्यग्चारित्र इन तीनों की इच्छानुसार वर्तन। (११६-१८) समुदित एकता । (२२) विभक्त-आत्मा की देहादि से पृथमोह-अनात्मभूत जगत् में स्वामित्व कता। (४) कर्तुत्व व भोक्तृत्व बुद्धि का होना विविक्त देशसेवित्व-एकान्तवास । (२१०) मौन-अनात्मभूत पदार्थों में मन की विषय-इन्द्रियों के भोग्य ।(८) प्रवृत्ति न होना । (२००) वृत्ति परिसंख्यान-इस विधि से मिक्षा पज्ञ-तप रूपी अग्नि में कर्मों का होम। मिलेगी तो लेंगे अन्यथा नहीं, (२६६) ऐसे अटपटे अभिग्रह । (२०९) For Private & Personal use only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वकियिक शरीर-अणिमा गरिमा आदि शील व्रत-अहिंसा आदि पाँच मूल विक्रियाओं में समर्थ देवों व नार- व्रतों के रक्षणार्थ धारण किये कीयों का शरीर । (२९८) गये कुछ नियम । (१७९) वैयावृत्य-वृद्ध रोगी व गुरु आदि की शुक्ल ध्यान-ध्यान ध्याता ध्येय की सेवा । (२१९-२२१) त्रिपुटीरहित निर्विकल्प समाधि । वैराग्य-संसार देह भोगों से विरक्तता। (२३१) (१३०) शुद्धोपयोग-सर्व कामनाओं व विकल्पों व्यवहार-भेदोपचार अर्थात् अखण्ड से अतीत केवल ज्ञाता दृष्टा भाव । तत्त्व में गुण-गुणी आदि रूप भेद करना (२७-२८), अभेदोपचार शुद्धोपयोग-वत समिति गुप्ति आदि अर्थात् अनात्मभूत पदार्थों में पालने के भाव। (१११) स्वामित्व कर्तृत्व व भोक्तृत्व रूप शौच-सन्तोषरूपी जल से लोभ रूपी सम्बन्ध स्थापित करना। अथवा मल को धोना। (२७६) बाह्य ज्ञान बाह्य आचार आदि। श्रमण-साधु । (२४९) अत-हिसा अनूत आदि के प्रति श्रावक-त्यागी व विवेकी गृहस्थ । (१७९) विरति भाव। (त० सू० ७.१) श्रुत-शास्त्र तथा शास्त्रज्ञान। (११२) श्वेताम्बर-किसी भी लिंग से मुक्ति शब्द नय-पदार्थ के वाचक शब्द के माननेवाला एक प्रधान जन सम्प्रविषय में तर्क-वितर्क करने वाली दाय । (४२३-४२४) दृष्टि। (३८९) षडावश्यक कर्म-दे० आवश्यक कर्म । शम-मोह क्षोभ विहीन समता परि- सचित्त-सजीव पदार्थ, यथा हरित वन णाम (११७) । वैराग्य (१३१), स्पति, कीट पतंग आदि । (१७०) शल्य-जीव का वह सूक्ष्म कषायला सत्य-तथ्य प्रिय व हितकर बचन। भाव जो कांटे की भांति मन में (१६८) बराबर चुभता रहता है। यह समिति-चलने, बोलने, खाने आदि तीन प्रकार का होता है-माया, दैनिक क्रियाओं के प्रति यत्ना मिथ्या व निदना । (१५९-१६०) चारी प्रवृत्ति । (१५३, १९२) शिक्षाव्रत-श्रावक के कुछ ऐसे नियम सम्यग्ज्ञान-जीवादि नव तत्वों का जिनके द्वारा उसे साधु धर्म की सम्यगवधारण। (२२) शिक्षा मिले, यथा कुछ काल पर्यन्त आत्मा व अनात्मा का विवेक । समता युक्त हो सामायिक करना। (७९) अखण्ड तत्त्व का निर्विकल्प (१८५) ज्ञान (८२) सम्यक् चारित्र-रागद्वेष का परिहार सापेक्ष-प्रयोजनवश किसी एक धर्म को (२२), समता (११६), अशुभ मुख्य (३७८) तथा अन्य को से निवृत्ति (गुप्ति) तथा शुभ में गौण कर देना । (३८६) प्रवृत्ति (समिति) । (१३९) सामायिक-समता भाव (१८७), सर्व सम्यग्दर्शन-जीवादि नव तत्त्वों का सावध कर्मों का त्याग। (१८८) श्रद्धान (२२), अथवा नवतत्त्वों सामायिक संयम-समता-प्रधान निर्विमें अनुगत शुद्धात्मा की श्रद्धा कल्प निश्चय चारित्र । (१८७) रुचि प्रतीति ! (४३) सिद्ध-लोक-शिखर पर विराजित सराग धर्म-व्रत समिति गुप्ति आदि मुक्तात्मा। (१) ___ रूप सविकल्प आचरण । (१५४) स्कन्ध-अणुओं के संघात से निर्मित सल्लेखना-कषाय व देह को सम्यक पदार्थ । (३४९-३५१) प्रकार कृश करते हुए समतापूर्वक स्थितिकरणत्व-कदाचित साधना मार्ग देह का त्याग कर देना । (२३८) से डिग जाने पर पुनः उसी में संग्रह नय-तत्त्व के भेद-प्रभेद रूप व्यष्टि स्थापित होने का प्रयत्न । (६९) सत्ताओं को संग्रह करके एक रूप स्याद्वाद-वाक्य को कथंचित-वाचक देखने वाली दृष्टि (३८९)।। स्यात्-पद-मुद्रित करके बोलने की संयम-पंचव्रत-धारण, पंच-समिति न्यायपूर्ण पद्धति, ताकि अनपेक्षित धमों का लोप होने के बजाय पालन, कषायचतुष्क-निग्रह, पंचे अनुक्त रूप से उनका भी संग्रह न्द्रिय-विजय आदि । (१६२) हो जाय। (४०५-४०६) संबर-संयम द्वारा कर्मों के आगमन स्वभाववाद-वस्तु स्वभाव से ही परिको रोक देना। (३२०) णमन शील है। (३४६) संवेग-धर्म व धर्म-फल के प्रति बहुमान स्वाध्याय-शास्त्राध्ययन सर्वप्रधान तप का भाव। (१३०) है। (१२२-१२३) संसार-जन्म-मरण रूप संसरण (६-७) हिंसा-जीवों का मारना व्यवहार हिसा सागार धर्म-सग्रन्थ अर्थात् गृहस्थ है और राग-द्वेष की उत्पत्ति का धर्म । (२४७) निश्चय हिंसा है। (१६६) For Private & Personal use only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.ainelibrary.org