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________________ समन्वय अधि० ३ १६ निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय व्यवहारोऽभूतार्थो, भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः।भूतार्थमाश्रितः खलु, सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः॥ विश्लेषणकृत यह भेदोपचारी व्यवहार यद्यपि अभूतार्थ व असत्यार्थ है, और एकमात्र शुद्ध या निश्चय नय ही भूतार्थ है, जिसके आश्रय से जीव वास्तव में सम्यग्दृष्टि होता है। ३०. सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभावदरिसीहि । __ ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ॥ स०सा०।१२ तु० दे० गा० ३३ शुद्धः शुद्धादेशो, ज्ञातव्यः परमभावशिभिः । व्यवहारदेशिता पुनर्ये, त्वपरमे स्थिता भावे॥ ( तदपि व्यवहार प्रयोजनीय है, क्योंकि ) परमभावदर्शियों ने शुद्ध तत्त्व का आदेश चरम-भूमि में स्थित शुद्ध तत्त्वज्ञानी के लिए किया है, और व्यवहार का आदेश अपरमभावरूप निम्न भूमियों में स्थित साधक के लिए किया गया है। २. निश्चय-व्यवहार चारित्र समन्वय ३१. णिच्छ्य सज्झसरूवं, सराय तस्सव साहणं चरणं । तम्हा दो विय कमसो, पढिज्जमाणं पबुज्झेदि ।। न० च० । ३२९ तु०= अध्या० सा० । ११.१४ निश्चयः साध्यस्वरूपः, सरागं तस्यैव साधनं चरणम्। तस्माद् द्वे अपि क्रमशः, पठचमाने प्रबुध्यस्व ॥ समता भाव रूप निश्चय चारित्र' साध्य है, और व्रत-समितिगुप्ति आदि रूप व्यवहार चारित्र' उसे प्राप्त करने का साधन है। क्रम से' अंगीकार किये गये ये दोनों ही व्यक्ति को प्रबुद्ध करने के लिए प्रयोजनीय हैं। समन्वय अधि०३ १७ निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय ३२. जीवोअविश्य व्यवहारमार्ग, न निश्चयं ज्ञातुमुपैति शक्तिम्। प्रभाविकाशेक्षणमन्तरेण, भानूदयं को वदते विवेकी।। आराधना सार । ७.३०. तु०=अध्या० उप० । ३.१३ व्यवहार मार्ग में प्रवेश किये बिना जीव निश्चय मार्ग ( अर्थात् अभेद रत्नत्रयभूत शुद्ध आत्मा ) को जानने या अनुभव करने में समर्थ नहीं हो सकता। प्रभात होने से पहले सूर्य का उदित होना कौन विवेकी कह सकता है ? ३३. अभ्यासे सक्रियापेक्षा, योगिनां चित्तशुद्धये । ज्ञानपाके शमस्यैव, यत्परैरप्यदः स्मृतं ।। अध्या० सा० । १५.२१ तुरत्नकरण्ड श्राव० । ४७-४८ योगी को चित्त-शुद्धि के लिए, अभ्यास-दशा में सक्रिया अर्थात् व्यवहार-चारित्र की अपेक्षा होती है। ज्ञान के परिपक्व हो जाने पर अर्थात् साक्षात् साम्यभाव की उपलब्धि हो जाने पर, प्रशान्त भाव रूप समता की ही अपेक्षा होती है, अन्य किसी क्रिया की नहीं। गीता में भी यही कहा है। (साधक-दशा में भी यदि बह व्यवहार-चारित्र का अवलम्बन नहीं लेता तो उसका अधःपतन निश्चित है।) ३४. कर्मयोग समभ्यस्य, ज्ञानयोगसमाहितः । ध्यानयोग समारुह्य, मुक्तियोगं प्रपद्यते ॥ अध्या० सा० । १५.८३ तु०=द्र० सं० टीका । ३५ । पृ० १४९ योगी कर्मयोग अर्थात् व्यवहार-चारित्र के अभ्यास द्वारा ज्ञानयोग में समाहित चित्त होकर, ध्यानयोग पर आरूढ़ हो, मुक्तियोग को प्राप्त कर लेता है। ( व्यवहार व निश्चय का यह कम यथायोग्य रूप में सर्वत्र जानना चाहिए।) १. दे० गा० ११७, २. दे० गा० १६२ २. पहले साधन पुरुषार्थपूर्वक किया जाता है, फिर उसके फलस्वरूप साध्य खयं प्राप्त होता है। यही क्रम है। Jain Education International १. गी० । ६- ३ 3 २ . दे० गा० १५४ । For Private & Personal use only. www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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