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________________ समन्वय अधिकार ( समन्वय योग) जैन-दर्शन समन्वयवादी है, अतः इसकी कथनपद्धति में सदा परमार्थ व व्यवहार दोनों का सन्तुलन रहता है । मोक्ष-मार्ग के दो प्रधान अंग हैं--ज्ञान व चारित्र (कर्म) । ये दोनों ही दो-दो प्रकार के है--निश्चय एवं व्यवहार। दोनों में ही निश्चय तो लक्ष्य या साध्य होता है और व्यवहार अभ्यास द्वारा उसे प्राप्त करने का साधन या कारण है-'हेतु नियत को होई। साधना के द्वारा धीरे-धीरे योगी की चित्त-शुद्धि होती जाती है, जिसके फलस्वरूप वह एक दिन समता की उस भूमि में प्रवेश कर जाता है, जहाँ ज्ञान व चारित्र दोनों एक हो जाते हैं। क्योंकि तत्त्व की शुद्ध अनुभूति ही उस समय ज्ञान कहलाती है और उसमें निश्चय स्थिति ही चारित्र है। यहाँ पहुँचने पर योगी के लिए अमृतकुम्भ भी उपयुक्त व्यवहार विषकुम्भ बनकर रह जाता है। इस विषय में यहाँ इतना विवेक आवश्यक है कि सम्यग्दर्शन युक्त आभ्यन्तर लक्ष्य से सपवेत ही साधनाभूमि के सकल व्यावहारिक विकल्प कार्यकारी होते हैं; उसके बिना वे निरर्थक ही नहीं, बल्कि ज्ञानाभिमान के कारण बनकर प्रायः अनर्थक हो जाते हैं। सम्यक्त्व-यक्त इस सत्य-साधना से योगी यदि कदाचित् उसी भव में मक्त न भी हो सके तो भी वह साधना नष्ट नहीं होती है, और उसे देवों के सुख व मनुष्यों के उत्तम कुलों में जन्म लेने का हेतु वनकर वह उसे परम्परा से तीन-चार भवों में अवश्य मुक्त कर देती है। समन्वय अधि०३ १५ निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय १. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय २७. ववहारेणुवदिस्सइ, णाणिस्स चरित्तं दंसणं गाणं । णवि णाणं ण चरितं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो।। स० सा०। ७ । तु०-उत्तरा० । २८.३ व्यवहारेणुपदिश्यते, ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् । नापि ज्ञानं न चरित्रं, न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः॥ अभेद-रत्नत्रय में स्थित ज्ञानी के चरित्र है, दर्शन है या शान है, यह बात भेदोपचार ( विश्लेषण) सूचक व्यवहार से ही कही जाती है। वास्तव में उस अखण्ड तत्त्व में न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है। वह ज्ञानी तो ज्ञायक मात्र है। प्रश्न : विश्लेषणकारी इस व्यवहार का कथन करने की आवश्यकता ही क्या है ? २८. जह ण वि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उ गाहे उं। तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ स० सा०।८ तु०-अध्या० सा० । १३.७ यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् । तथा व्यवहारेण विना, परमार्थोपदेशनमशक्यम् । उत्तर:-जिस प्रकार म्लेच्छ जनों को म्लेच्छ भाषा के बिना कुछ भी समझाना शक्य नहीं है, उसी प्रकार तत्त्वमूढ साधारण जन को व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना शक्य नहीं है। ( अर्थात् विश्लेषण किये बिना प्राथमिक जनों को अद्वैत तत्त्व का परिचय कराना शक्य नहीं है । ) २९. ववहारोऽभूयत्यो, भूयत्थो देखिदो दू सुद्धणो! भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो । स० सा० । ११ तु०-गा० ८५ ( अध्या० सा० । १८.२८) Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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