SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भेद रत्नत्रय रत्नत्रय अधि०२ ३. भेद-रत्नत्रय २२. जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं तेसिमधिगमो नाणं । रायादीपरिहरणं चरणं, एसो दु मोक्खपहो । स० सा०। १५५ तु०- उत्तरा० । २८.३५ . जीवादिश्रद्धानं, सम्यक्त्वं तेषामधिगमो जानं । रागादिपरिहरणं चरणं, एष तु मोक्षपथः ॥ जीवादि नव तत्त्वों' का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तथा उनका सामान्य-विशेष रूप से अवधारण करना सम्यग्ज्ञान है। राग-द्वेष आदि दोषों का परिहार करना सम्यकचारित्र है और ये तीनों मिलकर समुचित रूप से एक अखंड मोक्षमार्ग है। (ये तीनों वास्तव में पृथक्-पृथक् कुछ नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक होने के कारण एक ही हैं।) २३. जह णाम को वि पुरिसो, रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो, अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥ २४. एवं हि जीवराया, णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो, सो चेव दु मोक्खकामेण ॥ स० सा० । १७-१८ तु० दे० आगे गा० २६ यथानाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति । ततस्तमनुचरति पुनरर्थाथिकः प्रयत्नेन । एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः । अनुचरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन ॥ जिस प्रकार कोई धनार्थी पुरुष राजा को पहले जानता है और उसकी श्रद्धा करता है। तत्पश्चात् वह उसका प्रयत्नपूर्वक अनुसरण करता है। इसी प्रकार मुमुक्षु को जीव या आत्म-तत्त्व जानकर उसकी श्रद्धा करनी चाहिए। तत्पश्चात् उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करना चाहिए। १. दे० अधिकार १५ रत्नत्रय अधि०२ भेद रत्नत्रय २५. ण हि आगमेण सिज्झदि, सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे, असंजदो वा ण णिव्वादि ।। प्र० सा० । २३७ तु० दे० आगे गाथा ३७ न ह्यागमेन सिद्ध्यति, श्रद्धानं यद्यपि नास्त्यर्थेषु । श्रद्दधान् अर्थानसंयतो वा न निर्वाति ॥ तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा, रुचि, प्रेम या भक्ति के बिना केवल शास्त्र-ज्ञान से मुक्ति नहीं होती। और श्रद्धा या भक्ति हो जाने पर भी यदि संयम न पाला जाय अर्थात् प्रवृत्ति व निवृत्तिरूप शास्त्रविहित कर्म न किया जाय तो भी निर्वाण प्राप्त नहीं होता है। २६. इय जीवमजीवे य, सोच्चा सद्दहिऊण य । सव्वनयाणमणुमए, रमेज्जा संजमे मुणी॥ उत्तरा० । ३६.२५० तु०= दे० गा० २३-२४ इति जीवान् अजीवांश्च, श्रुत्वा श्रद्धाय च । सर्वनयानामनुमते, रमते संयमे मुनिः॥ इस प्रकार जीव और अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप को सुनकर तथा परमार्थ तथा व्यवहार आदि सभी दृष्टियों के अनुसार उनकी हृदय से श्रद्धा करके भिक्षु संयम में रमण करे। १. दे० गा०३७-३९ Jan Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy