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________________ तप व ध्यान अधि०९ ८९ प्रायश्चित्त तप तप व ध्यान अधि०९ ८८ विविक्त देश-सेवित्व २०९. छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहि, अबहुसुयस्स जो सोही। तत्तो बहुतरगुणिया, हविज्ज जिमियस्स नाणिस्स ॥ मरण समा०। १३१ षष्ठाष्टमदशमद्वादशेरबहुश्रुतस्य या शुद्धिः । ततो बहुतरगुणिता, भवेत् जिमितस्य ज्ञानिनः॥ [यद्यपि आत्मबल की वृद्धि के अर्थ योगी जन अनशन तप अवश्य करते हैं, परन्तु इसमें भोजन-त्याग का अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि] दो-तीन-चार व छह छह दिन के अनशन से भी अज्ञानी को जितनी शुद्धि होती है, उससे अनेक गुणा शुद्धि तो नित्याहारी ज्ञानी को सहज ही होती है। ---(एक दो आदि ग्रासों के क्रम से आहार को धीरे धीरे घटाना ऊनोबरी नामक द्वितीय तप है।) --(अमुक विधि से अमुक प्रकार का आहार भिक्षा में मिलेगा तो लेंगे अन्यथा नहीं लेंगे, योगी जो आत्म-विश्वास की अभिवृद्धि के लिए इस प्रकार के अटपटे अभिग्रह धारण करता है, वह वृत्ति-परिसंख्यान नामक तृतीय तप है।) --(दूध, दही, घी, तेल, शक्कर व नमक इन छह रसों में से एक-दो को अथवा छहों को छोड़ कर नीरस आहार ग्रहण करना रस-परित्याग नामक चतुर्थ तप है।) ३. विविक्त देश-सेवित्व २१०. लोइयजणसंगादो, होइ मइमुहरकुडिलदुब्भावो। लोइयसंगं तम्हा, जोइ वि तिविहेण मुंचाओ। र० सा०।४२ लौकिकजनसंसर्गात, भवति मतिमुखर-कुटिलदुर्भावः । लौकिकसंसर्ग तस्मात्, योगी अपि त्रिविधेन मुंचेत् ॥ लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाला वतक्कड़, कुटिल परिणाम और दुष्ट भावों से प्रायः अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। इसलिए, मुमुक्षु जनों को मन वचन काय से लौकिक संगति का त्याग कर देना चाहिए। २११, एगंतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ।। उत्तरा०।३०.२८ तु० = का० अ०। ४४९ एकान्तेऽनपाते, स्त्रीपशुविजिते। शयनासनसेवनया, विविक्तशयनासनम् ॥ जहाँ किसी का आना-जाना न हो, विशेषतः स्त्री व पशु के संसर्ग से वजित हो, ऐसे शून्य व निर्जन स्थान में रहना अथवा सोना-बैठना आदि विविक्त शय्यासन नाम का पंचम तप है। ४. कायक्लेश तप (हठ-योग) २१२. ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जति, कायकिलेसं तमाहियं ।। उत्तरा० । ३०.२७ तु० = मू० आ० । ३५६ (५.१७९) स्थानानि वीरासनादानि, जीवस्य तु सुखावहानि । उग्राणि यथा धारयन्ते, कायक्लेशः स आख्यातः ॥ [ आत्मबल की वृद्धि के तथा शरीर पर से ममत्व भाव का त्याग करने के अर्थ ] योगीजन वीरासन, कुक्कुट आसन, शवासन आदि विविध प्रकार के उत्कट व उग्र आसनों को धारण करके धूप शीत या वर्षा में निर्भय व निश्चल बैठे या खड़े रहते हैं। यही कायक्लेश नामक छठा बाह्य तप है। (अब क्रम से प्रायश्चित आदि आभ्यन्तर या मानसिक तपों का कथन किया जाता है।) ५. प्रायश्चित्त तप २१३. कोहादिसगब्भावक्खयपहुदीभावणाए णिग्गहण । पायच्छित्तं भणिदं, णियगुणचिता य णिच्छयदो॥ नि० सा०।११४ For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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