SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वाधिकार १३ १४४ मोक्ष तत्त्व मोम रहित मूषक के आभ्यन्तर आकाश की भाँति अथवा घटाकाश की भाँति चरम शरीर वाला तथा अमूर्तीक होता है। ३३९. जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अन्नोन्नसमोगाढा, पुछा सव्वे वि लोगते ।। वि० आ० मा०। ३१७६ यत्र च एकः सिद्धस्तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ताः । अन्योन्यसमवगाढाः स्पृष्टाः सर्वेऽपि लोकान्ते ॥ लोक-शिखर पर जहाँ एक सिद्ध या मुक्तात्मा स्थित होती है, वहीं एक दूसरे में प्रवेश पाकर संसार से मुक्त हो जाने वाली अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं। चरम शरीराकार इन सबके सिर लोकाकाश के ऊपरी अन्तिम छोर को स्पर्श करते हैं। ३४०. जहा दड्ढाणं बीयाणं, न जायंति पुर्णकुरा। कम्मबीयेसु दड्ढेसु, न जायंति भवांकुरा ।। दशाश्रुत०। ५.१५ तु० = रा० वा० । १०.२.३ यथा दग्धानां बीजानां, न जायन्ते पुनरंकुराः। कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः॥ जिस प्रकार बीज के दग्ध हो जाने पर फिर उनसे अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार कर्मरूपी बीजों के दग्ध हो जाने पर भवरूपी अंकुर फिर उत्पन्न नहीं होते। अर्थात् मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं करते । ३४१. चक्किकुरुफणिसुरिद-देवहमिदे जं सुहं तिकालभवं । ततो अणंतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥ त्रि० सा०।५६० तु० = देवेन्द्रस्तवः । २९३ चक्रिकुरु फणिसुरेन्द्रेष, अहमिन्द्रे यत् सुखं त्रिकालभवं । ततो अणंतगुणितं, सिद्धानां क्षणसुखं भवति ॥ (अतीन्द्रिय होने के कारण यद्यपि सिद्धों के अद्वितीय सुख की व्याख्या नहीं की जा सकती, तथापि उत्प्रेक्षा द्वारा उसका कुछ अनुमान तत्त्वाधिकार १३ परमात्म तत्त्व कराया जाता है :) चक्रवर्ती, भोगभूमिया-मनुष्य, धरणेन्द्र, देवेन्द्र व अहमिन्द्र इन सबका सुख पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा अनन्त अनन्त गुना माना गया है। इन सबके त्रिकालवर्ती सुख को यदि कदाचित एकत्रित कर लिया जाय, तो भी सिद्धों का एक क्षण का सुख उस सबसे अनन्त गुना है। ९. परमात्म तत्त्व ३४२. यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। स० श०।३१ तु० = ज्ञा० सा० । १४.८ (कर्म आदि की उपाधियों से अतीत त्रिकाल शुद्ध आत्मा को ग्रहण करने वाली शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से देखने पर) जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो में हूँ वही परमात्मा है। इस तरह में ही स्वयं अपना उपास्य हूँ। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है। ऐसी तात्त्विक स्थिति है। ३४३. देहदेवलि जो वसइ, देउ अणाइ अणंतु । केवलणाणफुरंततणु, सो परमम्पु णिभंतु ॥ प०प्र०। १.३३ तु० = योग शास्त्र। १२.८ देहदेवालये यः बसति, देवः अनाद्यनन्तः । केवलज्ञानस्फुरत्तनुः, स परमात्मा निन्तिः ॥ जो व्यवहार दृष्टि से देह रूपी देवालय में बसता है, और परमार्थतः देह से भिन्न है, वह मेरा उपास्य देव अनाद्यनन्त अर्थात् त्रिकाल शाश्वत है। वह केवलज्ञान-स्वभावी है। निस्सन्देह वही अचलित स्वरूप कारण-परमात्मा है। ३४४. उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा । मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव, जायतेऽग्निर्यथा तरुः ।। स० श०। ९८ कारण परमात्मा स्वरूप इस परम तत्त्व की उपासना करने से यह कर्मोपाधियुक्त जीवात्मा भी परमात्मा हो जाता है, जिस प्रकार Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy