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________________ धर्माधिकार ११ अनगारसूत्र द्विविधं संयमचरणं, सागारं तथा भवेत् निरागारम् । सागारं सग्रन्थे, परिग्रहादहिते खलु निरागारम् ॥ संयमचरण या धर्म दो प्रकार का है-सागार व अनगार। सागार धर्म परिग्रह-युक्त गृहस्थों को होता है और अनगार धर्म परिग्रह-रहित साधुओं को। २. सागार (श्रावक) सूत्र २४८. नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पब्वइत्तए। अहं ण देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिसामि।। उपा०६०। १.१२ - सागार धर्मामृत । १.१६ नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुण्डो यावत् प्रवजितुम् । अहं खल देवानु प्रियाणामन्ति के पंचाणुवतिक सप्तशिक्षाप्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपत्स्ये। जो व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रवजित होकर अपने को अनगार धर्म के लिए समर्थ नहीं समझता है, वह पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ऐसे द्वादश व्रतों' वाले गृहस्थधर्म को अंगीकार करता है। ३. अनगरासूत्र (संन्यास योग) २४९.समणोत्ति संजदोत्ति य, रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागोत्ति। णामाणि सुविहिदाण अणगार भदंत दंतोत्ति ॥ मू० आ०। ८८६ (८.१२१) श्रमण इति संयत इति च, ऋषिमुनिः साधु इति वीतराग इति । नामानि सुविहितानां, अनगारो भदन्तः दान्तो यतिः ॥ श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति, ये सब नाम एकार्थवाची है। धर्माधिकार ११ अनगारसूत्र २५०. सोह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सुरूवहि-मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर सरिसां, परम-पय-विमग्गया साहू ॥ घ०१ गा०३३ तु० = प्र० व्या० । २.५-१२ सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणिः । क्षिति-उरगाम्बर सदा, परमपद-विमार्गणा साधुः ।। सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४, मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुंज, १२. क्षितिवत् तितिक्षु, १३. सर्पवत् अनिश्चित स्थानवासी, तथा १४. आकाशवत् निरालम्ब । २५१. ण बलाउसाउअळं, ण सरीरस्सुवचयटुं तेजळें । णाणळं संजमळं, भाणटुं चेव भुंजेज्जो ॥ मू० आ० । ४८१ (६.६२) तु०=उत्तरा० । ३५.१७ न बलायुः स्वादार्थ, न शरीरस्योपचयार्थ तेजोऽर्थ । ज्ञानार्थ संयमार्थ, ध्यानार्थ चैव भुजीत ॥ साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं। ५५२. जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेड अप्पयं ।। दशवैः । १.२ तु०-रा० बा०।९.६.१६ यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमरः आपिबति रसम् । न च पुष्पं बलामयति, स च प्रीणाति आत्मानम् ॥ १. दे० गा०१७९-१९० Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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