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________________ नय अधिकार १६ १६६ नयवाद को सार्वभौ० नय अधिकार १६ १६७ नय को हेयोपादेयता ३८९. जमणेगधम्मणो वत्थुणो, तदंसे च सव्वपडिवत्ती। अनेकान्तस्वरूप वस्तु के ज्ञाता उन नयों में 'यह कुछ नय तो सच्चे हैं अन्धव्व गयावयवे, तो मिच्छद्दिठिणो वीसु ॥ और यह कुछ झूठे' ऐसा विभाग नहीं करते हैं । वि० आ० मा० । २२६९ तु० = पं० विं। ४.७ ४. नय की हेयोपादेयता यदनेकधर्मणो वस्तुनस्तदंशे, च सर्वप्रतिपत्तिः । अन्धा इव गजावयवे, ततो मिथ्यादृष्टयो विष्वक् ॥ ३९२. सम्सइंसणणाणं, एदं लहदि त्ति णवरि ववदेसं । जिस प्रकार हाथी को टटोल-टटोल कर देखने वाले जन्मान्ध सब्वणयपक्पखरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो॥ पुरुष उसके एक एक अंग को ही पूरा हाथी मान बैठते हैं, उसी प्रकार स० सा०।१४४ अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में अपनी अपनी अटकल दौड़ानेवाले सम्यग्दर्शनज्ञानमतल्लभत, इति केवलं व्यपदेशः । मिथ्यादृष्टि मनुष्य वस्तु के किसी एक एक अंश को ही सम्पूर्ण वस्तु सर्वनयपक्षरहितो, भणितो यः स समयसारः ॥ मान बैठते हैं। आत्मा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान को प्राप्त होता है, ऐसा व्यवहार ३९०. परसयएगनयमयं, तप्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा। केवल कथन मात्र है। वस्तुतः वह शद्धात्म-तत्त्व सभी नयपक्षों से समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए । अतीत कहा गया है। वि० आ०भा० । २२७४ तु० = घ०९। पृ० १८२ ३९३. अत्थं जो न समिक्खइ,निक्खेव-नय-प्पमाणओविहिणा। परसमयकनयमतं, तत्प्रतिपक्षनयतो निवर्तयेत् । तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ ।। समये वा परिगृहीतं, परेण यद् दोषबुद्धया ॥ वि० आ० मा० । २२७३ तु० - ध०१ । गा० १० (उद्धृत) एकान्त पक्षपाती वे पर-समय या मिथ्यादृष्टि स्वाभिप्रेत एक अर्थ यो न समीक्षते, निक्षेपनयप्रमाणतो विधिना । नय को मान कर उसके प्रतिपक्षभूत अन्य नयों या मतों का निराकरण करने लगते हैं। अथवा दूसरों के धर्म या मत में जो बात ग्रहण की गयी तस्यायुक्तं युक्तं, युक्तमयुक्तं वा प्रतिभाति ॥ हो, उसमें दोष देखने लगते हैं। जो मनुष्य पदार्थ के स्वरूप की प्रमाण नय व निक्षेप से सम्यक प्रकार समीक्षा नहीं करता है, उसे कदाचित् अयुक्त भी युक्त प्रति३९१. णिययवयणिज्जसच्चा, सन्वनया परवियालणे मोहा। भासित होता है और युक्त भी अयुक्त । ( इसलिए नयातीत उस ते उण ण दिसमओ,विभयइ सच्चे व अलिए वा॥ तत्त्व का निर्णय करने के लिए नयज्ञान प्रयोजनीय है।) सन्मति तकं । १.२८ तु० = क० पा० १। गा० ११७ । पृ० २५७ पर उद्धृत ३९४. तच्चाणेसणकाले, समयं बुज्झहि जुत्तिमग्गेण । निजकवचनीयसत्याः, सर्वनयाः परविचारणे मोहाः । णो आराहणसमये, पच्चक्खो अणुहओ जम्हा ॥ तान् पुनः न दृष्टिसमयो, विभजति सत्यानि वा अलीका वा। न० च० । २६६ सभी नय अपने अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, परन्तु वे ही जव तत्त्वान्वेषणकाले, समयं बुध्यस्व युक्तिमार्गेण । दूसरे के वक्तव्यों का निराकरण करने लगते हैं तो मिथ्या हो जाते हैं। For Private & Personal use only नो आराधनसमये, तत्प्रत्यक्षोऽनुभवो यस्मात् ॥ ___www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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