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________________ सम्यक अधि०४ निःकांक्षित्व ५३. सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगभए, परलोगभए। आदाणभए अकम्हाभए,आजीवभए,मरणभए असिलोगभए। समवायांग । ७.१ तु०=मू० आ० । ५३ सप्त भयस्थानानि प्रज्ञप्तानि, स यथा-इहलोकभय परलोकभय । आदानभय अकस्मात्भय, आजीविकाभय मरणभय अयशलोकभय ।। भयस्थान सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा--इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, आजीविका भय, मरण भय, अपयश भव । (ये सातों भय सम्यग्दृष्टि को नहीं होते हैं।) ६. निःकांक्षित्व ( निष्कामता) ५४. स्वभावलाभात् किमपि, प्राप्तव्यं नावशिष्यते । इत्यात्मैश्वर्य-सम्पन्नो, नि:स्पृहो जायते मुनिः ।। ज्ञान० सा० । १२.१ तु०=नि० सा० । ३८ आत्म-स्वभाव का लाभ हो जाने पर कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रह जाता, इसलिए आत्मारूपी ऐश्वर्य से सम्पन्न मुनि निःस्पृह हो जाता है। ५५. तिविहा य होइ कंखा, इह परलोए तथा कुधम्मे य। तिविहं पि जो ण कुज्जा, सणसुद्धीमुपगदो सो॥ मू० आ० । २४९ (५.६७) तु० - उत्तरा० । १९.९३ त्रिविधा च भवति कांक्षा, इह परलोके तथा कुधर्मे च । त्रिविधमपि यः न कुर्यात्, दर्शनशुद्धिमुपगतः सः॥ कामना तीन प्रकार की होती है--इह-लोक विषयक, परलोक विषयक तथा स्वधर्म को छोड़कर कुधर्म या परधर्म के ग्रहण विषयक' । जो इनमें से किसी भी प्रकार की आकांक्षा या कामना नहीं करता, नह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को प्राप्त हो गया है, ऐसा समझो। ( इसके अतिरिक्त उसे ख्याति-लाभ-प्रतिष्ठा की भी कामना नहीं होती।) १. सम्यग्दृष्टि किसी भी हेतु से अपने धर्म से व्युत नहीं होता। दे० गा०६०। २. दे० गा०६४-६६ । सम्य० अघि०४ निर्विचिकित्सत्व ५६. अधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोरं तपो, यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सत्तपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः, कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्वं फलम् ।। आ० अनु० । १८९ तु. भक्त परि० । १३८ समस्त आगम का अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि तू इन दोनों का फल यहाँ सम्पत्ति व प्रतिष्ठा आदि के रूप में प्राप्त करना चाहता है, तो समझ कि विवेकहीन होकर तू उस तपरूपी वृक्ष का छेद कर रहा है। तब उसके रसीले फल को तू कैसे प्राप्त कर सकेगा? ५७. कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो। उत्तरा० । ३२.९ ___तु-ज्ञा० । १७.१२ कामानुगद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य । यत्कायिक मानसिकं च किंचित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ॥ कामानुगद्धि ही दुःख की जननी है, इसीसे इहलोक में या देवलोक में जितने भी शारीरिक व मानसिक दुःख हैं, वीतरागी उन सबका अन्त कर देते है। अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त हो जाने के कारण उन्हें कामनाजन्य दुःख नहीं रहता।। ७. निविचिकित्सत्व ( अस्पृश्यता-निवारण) ५८. जो ण करेदि जगप्प, चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिन्विदिगिच्छो, सम्माद्दिट्ठी मुणेयव्वा ।। स० मा० । २३१ तु-उत्तरा० । ३२.२१-२५ जो न करोति जगप्स, चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणां। स खलु निविचिकित्सः, सम्यग्दृष्टितिव्यः॥ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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