________________
श्रद्धा-सूत्र
सम्य० अधि०४
सम्यक्त्वात् ज्ञानं, ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः । उपलब्धपदार्थे पुनः, श्रेयाऽश्रेयो विजानाति ॥ श्रेयाश्रेयवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि । शीलफलेनाभ्युदयं ततः पुन: लभते निर्वाणम् ॥
[ इसका कारण यह है कि ] सम्यक्त्व से ज्ञान उदित होता है और ज्ञान से तत्त्वों की यथार्थ उपलब्धि । तत्त्वोपलब्धि हो जाने पर हिताहित का विवेक होता है, जिससे स्वच्छन्द भी पुण्यवन्त हो जाता है। पुण्य के प्रभाव से देवों व मनुष्यों का सुख तथा उससे यथाकाल निर्वाण की प्राप्ति होती है।
सम्य० अधि०४
निःशंकित्व ४. सम्यग्दर्शन के लिंग ( ज्ञानयोग) ५०. निस्संकिय निक्कंखिय, निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उववह थिदीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ।।
उत्तरा० । २८.३५; मू० आ० । २०१. (५.४) निःशंकित नि:कांक्षित, निविचिकित्स्यममूढदृष्टिश्च । उपवूहास्थितिकरणे वात्सल्यप्रभावनेऽष्टी॥
सम्यग्दर्शन के ये आठ गुण या अंग है--निःशंकित्त्व, निःकांक्षित्त्व, निविचिकित्सत्व, अमूढदृष्टित्त्व, उपवृहणत्त्व (उपगृहनत्व), स्थितिकरणत्त्व, वात्सल्यत्त्व तथा प्रभावनाकरणत्त्व । ( इन सबके लक्षण आगे क्रम से कहे जानेवाले हैं।) ५१. संवेओ णिव्वेओ, जिंदा गरुहा व उवसमो भत्ती।
वच्छल्लं अणुकंपां, गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स ।। स० सा० । १७७ में उद्धृत प्रक्षेपक
तु०=उत्तरा० । २.२ संवेगो निवेदो, निन्दा गर्दा च उपशमो भक्तिः । वात्सल्यं अनुकम्पा, अष्ट गुणाः सम्यक्त्वयुक्तस्य । संवेग, निवेद (वैराग्य), अपने दोषों के लिए आत्मनिन्दन व गर्हण, कषायों की मन्दता, गुरु-भक्ति, वात्सल्य, व दया। (पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त ) सम्यग्दृष्टि को ये आठ गुण भी स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं।
३. श्रद्धा-सूत्र ४८. जं सक्कइ तं कीरइ, जं च ण सक्कइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहि भणियं, सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।।
द० पा० । २२ यं शक्नोति तं क्रियते, यच्च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्धानम्। केवलिजिनः भणितं, श्रद्धावानस्य सम्यक्त्वम् ।
यदि समर्थ हो तो संयम तप आदि का पालन करो, और यदि समर्थ न हो तो केवल तत्त्वों की श्रद्धा ही करो, क्योंकि श्रद्धावान् को सम्यक्त्व होता है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। ४९. यत्रैवाहितधी: पुंसः, श्रद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा, चित्तं तत्रैव लीयते ॥
स०२०। ९५ [ कारण यह कि ] जिस विषय में व्यक्ति की बुद्धि स्थित होती है, उसमें ही श्रद्धा उत्पन्न होती है ; अन्यत्र नहीं। और जिस विषय में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, उसीमें चित्त लीन होता है ; अन्यत्र नहीं।
५. निःशंकित्व (अभयत्व) ५२. सम्मादिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिन्भया तेण ।
सत्तभयविप्पमुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका ।। स० सा० । २२८
तु०-ज्ञा० सा०। १७.८ सम्यग्दृष्टयो जीवा, निश्शंकाः भवन्ति निर्भयास्तेन । सप्तभयविप्रमुक्ता, यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ।।
सम्यग्दष्टि जीव निश्शंक होते हैं और इसलिए निर्भय। चूंकि उन्हें सात भय नहीं होते, इसलिए वे निश्शंक होते हैं।
१. दे० गा० ४०-४२ Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org