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________________ सम्यग्दर्शन अधि० ४ २२ सम्य० को प्रधानता १. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) ४३. भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं य । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। स० सा०। १३ तु०=उत्तरा० । २८.१७ भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च। आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ।। भूतार्थनय से जाने गये जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध-मोक्ष ये नव तत्व ही सम्यक्त्व हैं। ( आत्मनिष्ठ सम्यग्दृष्टि है और पर्याय-निष्ठ मिथ्या-दृष्टि'।) ४४. जं मोणं तं सम्मं जं सम्म तमिह होइ मोणं ति । निच्छय ओ इयरस्स उ सम्म सम्मत्तहेऊ वि ।। साव० पण्ण० । ६१ यन्मौनं तत्सम्यक् यत्सम्यक् तदिह भवति मौनमिति । निश्चयतः इतरस्य तु सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि । परमार्थतः मौन ही सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व ही मौन है। तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षणवाला व्यवहार सम्यक्त्व इसका हेतु है। २. सम्यग्दर्शन की सर्वोपरि प्रधानता ४५. दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झंति चरण रहिआ, दंसणरहिआ ण सिझंति ।। भक्त० परि०। ६६ सम्य० अधि०४ सम्य० की प्रधानता दर्शनभ्रष्टो भ्रष्टः, भ्रष्टदर्शनस्य नास्ति निर्वाणम् । सिद्धयन्ति चरणरहिता, दर्शनरहिता न सिद्ध्यन्ति ॥ सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति ही वास्तव में भ्रष्ट है, क्योंकि दर्शनभ्रष्ट को तीन काल में भी निर्वाण सम्भव नहीं। चारित्रहीन तो कदाचित् सिद्ध हो भी जाते हैं, परन्तु दर्शनहीन कभी भी सिद्ध नहीं होते। १. ( सम्यवत्वविहीन व्यक्ति का शास्त्रज्ञान निरा शाब्दिक होता है। अर्थज्ञान-शून्य होने के कारण वह आराधना को प्राप्त न करके शास्त्रीय जगत् में ही भ्रमण करता है। इसलिए ऐसा ज्ञान मोक्षमार्ग में अकिचित्कर है।) २. ( आत्मा को स्पर्श किये बिना शास्त्रज्ञान बालश्रुत है और अनेक विध व्यवहार-चारित्र केवल बालचरित्र'।) ३. (भाव-शुद्धि के बिना कठोर तपश्चरण करने पर भी परिश्रम ही ___हाथ लगता है, शुद्धि नहीं।) ४. (चित्त-शुद्धि ही वास्तविक सल्लेखना या समाधि मरण है, तृणमय संस्तर या प्रासुक भूमि नहीं।) ५. (विशुद्धात्मा साध्य है और अहिंसा-दया-दान आदि उसके साधन। दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है। सम्यक्त्व-युक्त होने पर ही ये सब मोक्ष के कारण हैं, अन्यथा तो संसार में रुलाने वाले है।) ४६. सम्मत्तादो णाणं णाणादो सब्वभाव उबलद्धी। उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ।। ४७. सेयासेय विदण्हू उद्धददुस्सील सीलवंतो वि। सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ।। द० पा० । १५-१६ तु०=पिण्ड नियुक्ति । ९१ द० पा०1३ १. नव तत्वों में अनुगत एक जीव या आत्मतत्त्व का दर्शन करना ही, इन्हें भूतार्थ नय से जानना है। क्योंकि ये नी तत्त्व वास्तव में उस आत्मा की ही पर्याय विशेष है, अन्य कुछ नहीं। २. नव तत्वों की व्याख्या के लिए दे० अधि०१३ । ३.देगा०८४ । ४. गव तत्वों में अनुगत वह बात्म-तत्त्व मन वाणी से अगोचर तथा इतना निर्विकल्प है कि मीन के अतिरिक्त उसके दर्शन की अन्य कोई व्याख्या ही सम्भव नहीं है। दे० गा० २९१ । ५. व्यवहार निश्चय का साधन हे-देना० ३१ । Jain Education International ३. दे० गा० २०४%B १.देगा .८५ *.दे० गा०२३७%, २. दे० गा० १४२, ५. दे० गा०२४३-२४५; For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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